जिंदगी का सफर।
जिंदगी खुशनुमा इबादत सी हुई थी। पांच भाइयों में तीसरे नंबर का था। भाइयों का नंबर यह नंबर उसका लकी नंबर भी रहा। मगर मैं बचपन से लेकर अभी तक की घटनाओं का जिक्र करूंगा, तो मुझे दो तीन उपन्यास लिख डालना पड़ेगा। मैं बस छोटी सी इस चैप्टर को सफर का नाम देकर आपको सफर जिंदगी का बयां करना चाहता हूं।
पांच भाई दो बहने ।और आयल इंडिया का क्वार्टर बड़ा सा क्वार्टर ।फिर बगल में एक किचन गार्डन ।पिछवाड़े में एक कार्यशाला। कार्यशाला का मतलब उस वक्त उनके पापा ड्यूटी से आकर बर्तन हांडे चाकू छोरियां और इसी तरह के सामान बनाने का काम करते। अपने बच्चों का पेट भरते ।क्योंकि ,आयल इंडिया की तनख्वाह इतनी नहीं बनती थी- कि इतने भारी भरकम परिवार को परवरिश की जाए ।इसीलिए चाचा ड्यूटी से आते ही लग जाते ।घर में कुछ बकरियां भी रख रखी थी। हंस और मुर्गियां भी पाल रखे थे ।जिनसे अंडों का काम चल जाता था ।बच्चे खाते पीते रहते। बच्चे भी कुछ ना कुछ काम में लगे रहते।
कोई बकरियों को घास के लिए चला गया या फिर बकरी चराने के लिए ,जलाने के लकड़ी लाने जंगल चला गया ।
फिर इसी बीच बच्चे पढ़ाई भी कर लेते। खेलकूद भी कर लेते ।बच्चों का टाइम बंधा हुआ था ।खेलने का ,खाने का, स्कूल का।
जो भी बच्चे थे -सभी पढ़ाई भी करते और घर का काम भी करते ।
किचन गार्डन का काम फिर बकरियां-- मैं मैं करती । उनका भी घास और चारे की तैयारी करते ।बकरियों को छोड़ा जाता ,फिर उन्हें ढूंढ कर घर मिलाने का काम करते ।
इन सबके बावजूद पढ़ाई करते ,सारे बच्चे अब्बल तो नहीं थे। औसत बच्चों की तरह पढ़ाई करते ।
घर में बुलाने के उनके कुछ और नाम थे। स्कूल मे कुछ अलग नाम से नवाजे जाते।
3 बच्चे मुझसे बड़े थे । एक बड़ी दीदी थी। माया दीदी ।सबको प्यार करती सबको संभालने की कोशिश करती ।उस वक्त मैं ही बहुत छोटा था।कि किसी को जज करने की मेरी भी उम्र नहीं थी ।एक दीदी को लेकर चार मुझसे बड़े थे। जिनकी जिक्र यहां चल रहा है वह भी मुझसे बड़े थे ।मगर मेरी और इनकी अच्छी छनती थी।
मुझे अपने बारे में पता है। उस समय स्कूलों में 5 साल से छोटे बच्चों को एडमिशन नहीं की जाती थी। मैं अभी 5 साल का हुआ नथा। 5 साल होकर छठी साल लिखवाकर पापा ने मुझे स्कूल डाल दिया था । स्कूल जाएगा बच्चों से खेलेगा मिलेगा कुछ न कुछ तो सीखेगा ।यही सोच कर।
मैं उनसे छोटा था। मैं खेलने के लिए उनके पास घर में चला जाया करता। और अक्सर दिन का ज्यादा वक्त मैं वहीं गुजार लेता। क्योंकि , वहां मुझे बच्चे बच्चे कई नजर आते। कोई ना कोई तो मुझसे खेलता। अगर कोई खिलाड़ी ना हो तो चाची के पास ही बैठ जाता।
या चाचा खूब अपनी जिंदगी में घटित घटनाओं को चटखारे ले -लेकर कुछ इस तरह से कहते कि मुझे सुनने में मजा आता! उसी बीच चाची भी खाने पीने के लिए दे जाती। कोई भी मुझे अपने से अलग नहीं समझता ।मैं भूख लगे तो खा लेता था। वरना खाने पीने में कोई समस्या न थी। और खेलने में भी ज्यादा ध्यान रहता ।
मेरी और गोपाल की अच्छी बनती थी। हम साथ जंगल जाते ।साथ दौड़ते।सुभह दौड़ने चले जाते ।खेलने के लिए चले जाते। गोपाल के घर में छत में एक डंडा लगा हुआ था। गोपाल ने उस में झूलने के लिए ।हम चले जाते।
कहने का अर्थ मेरा पता यह नहीं है कि हमारा सारा बचपन ही खेलकूद में गुजर रहा था।
पढ़ाई के साथ काम में भी लगता था।
बकरियां लौटती नहीं तो चाचा डंडा लेकर बकरियों से ज्यादा बच्चों को ढूंढते ।और उनकी खैर खबर लेते।
जिंदगी बच्चों से लेकर बड़ों तक का संघर्ष मय था। बच्चों की पढ़ाई के साथ काम भी जरूरी था ।बच्चे तो पढ़ाई तो करते ही थे। मगर काम भी करते और बच्चों की भी आदत पड़ गई थी। काम की।
धीरे-धीरे बच्चे बड़े होते चले गए थे ।और घर का खर्चा भी बढ़ता जा रहा था ।इसी दरमियान गोपाल ने दसवीं कर ली थी। और डिग्री कॉलेज भी ज्वाइन कर लिया था ।
घर के खर्चे तथा काम करने की प्रवृत्ति ने आयल इंडिया की वैकेंसी निकली थी। और गोपाल ने आयल इंडिया और बड़े ने एसएससी के एग्जाम दिए थे ।आयल इंडिया के तो क्या एग्जाम होते थे।एग्जाम नहीं बस फोर्थ ग्रेड की भर्ती में सिर्फ बुलाकर बातचीत करते और अपॉइंटमेंट दे देते।
गोपाल की भी जॉब लग गई थी ।आयल इंडिया में।
नौकरी का आठवां महीना चल रहा था।
तब अचानक एक दुर्घटना घटित हुई । कई बच्चों को कई लड़कों को नौकरी से बर्खास्त करके घर बैठना पड़ा। यह कारस्तानी सहरा उस समय नई नई आई हुईम राजनीतिक पार्टी असम गण परिषद की वजह से थी। उन्होंने उस समय वहां काम कर रहे हैं नेपाली मूल के लोगों को और दूसरे मूल के लोगों को राज्य के लोगों को सबको यह बोलकर बिठा दिया था कि वह लोकल नहीं है विदेशी है।
और उस समय जोर पकड़ती असम गण परिषद की पकड़ को देखते हुए मैनेजमेंट ने भी यही फैसला दिया था । उसी समय असम गण परिषद की आंदोलन जोर पकड़ता जा रहा था ।और आयल इंडिया की नौकरियां जो टेंपरेरी थी उनको कई को वहां के लोकल ना होने की वजह से नौकरी से बर्खास्त की गई थी।
यह कहकर बर्खास्त की गई थी ।कि वह यहां के लोकल नहीं है ।विदेशी है ,नेपाल के मूल के हैं।
तुम्हें यहां नौकरी करने का अधिकार नहीं है। और गोपाल को आठवें महीने के बाद नौकरी से बिठा दिया गया था।
घर की जरूरत नौकरी से कमाए पैसे से ही पुरी होती थी।
फिर नौकरी ना रहेगी तो फिर खाने-पीने की भी समस्या खड़ी होने लगी थी। मगर गोपाल ने संघर्ष की ।
इस मसले के हल करने के लिए उसने दिल्ली हेड क्वार्टर तक चक्कर लगाया।इस बात को उसने दिल्ली हेड क्वार्टर तक पहुंचाया ।इन लोगों ने हमें विदेशी करार कर नौकरी से हटाया है ।कई महीने तक दिल्ली से क्रॉस पेंडेंट भी करता रहा ।
वह जमाना फोन और इंटरनेट का नहीं था। उस समय चिट्ठियों से ही कॉरस्पॉडेंट होता था। आज के जमाने में बस फोन करो फोन से ही बातें हो जाती है।और अंत में जाकर गोपाल और पराशर सोनार की जीत हुई। उसे फिर से बहाल करना पड़ा ।
उसकी जिंदगी के संघर्ष में घटनाओं में से एक अहम संघर्ष था ।जिसमें कानूनन उसकी जीत हुई ।
भारत सरकार की ओर से हरी झंडी मिली। भारत सरकार और आयल इंडिया के हेड क्वार्टर ने यह बताया-- कि इनका जन्म डिगबोई में हुआ है ।इसलिए पिता यही आयल में कार्यरत है ।कई सालों से यहां रह रहे हैं। तो यह विदेशी नहीं कहे जाएंगे ।यह नेपाली मूल के जरूर है ।मगर बाय बर्थ बाई रेजिडेंट से भारतीय हैं।
धुलिआजन ऑयल इंडिया का ऑफिस था। वहां पर आर्डर आया - इस शख्सियत को फिर से बाहर किया जाए ।उन्हें नौकरी में फिर से बहाल किया जाए।
और हेड क्वार्टर के आदेश के मुताबिक उसे फिर से नौकरी पर रखा गया ।
सच्चाई और ईमानदारी और संघर्ष को सफलता मिली। टेंपरेरी पोस्ट से उनसे परमानेंटली बहाल किया गया ।
यह तो थी उसके जुझारू प्रवृत्ति और प्राथमिक संघर्ष की कहानी ।उसके बाद जिंदगी एक आसान सी जिंदगी गुजरती रही। इसी जिंदगी में कई मोड़ आए ।कई एव आए। सबसे दो -चार होते आगे बढ़ते रहें ।आगे बढ़ते रहें।
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