परिवार के कुछ और सदस्य आ गए थे।
वक्त!?
गोपाल के पास न था ।बस अब तो शरीर का मिट्टी में तब्दीली का इंतजार था। कब डॉक्टर खबर करें कि अब गोपाल नहीं रहा!
ऐसा इंतजार!?
लंबा होता है ।जानलेवा ..जानलेवा होता है! भले ही सांसे चल रही है, तो तसल्ली रहता है। इंसान अभी तक जिंदा है। सासों का रुकते मिट्टी की शरीर को सड़न से बचाने और उसे मिट्टी में मिलाने की प्रक्रिया परिवार वाले ही शुरु कर देते हैं।
अपना! अपना -पराया!
तब तक होता है ।जब शरीर के अंदर आत्मा बरकरार रहती है।
जब तक जिसम में हलचल रहती है। इसके बाद कुछ नहीं रह जाता।
खौफ़ तो सबकी आंखों में था।
सभी को अजीब सी बेचैनी हो रही थी।
डर अब न जाने किस बात का ।मगर सबको पता था। क्या होने वाला है ।
अजीब सी भय ! अजीब सा दर्द जो बर्दाश्त से बाहर था।
जो न जाने आंखों में सैलाब ले आने वाला था। धड़कनों को रोक देने वाला था। दिल के मसालों में जैसे खून बर्फ बन कर जम जाने वाला था।
रात!
वह भयानक रात न जाने कैसे कटी!
विवेक होशो हवास में होते हुए भी बेहोश था। चलते हुए भी सोया सोया रोया रोया सा था। अब गिरा कि तब गिरा की स्थिति ऐसी थी।
किसी अपने की मौत का इंतजार जानलेवा था।
कभी भी किसी को भी धड़ाका पड़ सकता था।
सुबह का सूरज गमगीन था। सुबह का उजाला भी आंसू लिए हुए था। हवा में नमी थी। जैसे कुदरत ने भी जमकर आंसू बहाया हो।
वह वक्त सुबह का था। छह बजकर बीस का वक्त था।
हम अस्पताल बाउंड्री के अंदर, बाहर ही तारों की छांव में, पड़े -पड़े उजाला कर गए थे!
राजू!
इस परिवार का आखिरी बेटा।
सभी भाइयों में छोटा -एक जिंदा भाई था। बचा हुआ। गोपाल अब अलविदा कहने वाला था।
राजू ने मायूसी में मरे से कहा -भैया चलो चाय पी आते हैं।
मैं-कैंटीन की चाय सही नहीं है। अस्पताल के बाहर चाय की दुकान खुल चुकी होंगी। चलो वही पीते हैं।
हम चाय पीने के लिए अस्पताल बाउंड्री से बाहर निकल आए थे। विवेक मना कर चुका था। मैं फिर भी बोला था -चलो चाय तो पी ले।
विवेक बोला -मुझे चाय नहीं पीना !बिल्कुल मूड नहीं है!
राजू बोला- ठीक है ;हम भी आते हैं!
विवेक मायूस था उसके चेहरे में मायूसी छाई हुई थी। 2 दिन से उसने खाना खाया नहीं था। बस अंदर ही अंदर घुट रहा था। रो रहा था। वह बोला- मैं बाबा के पास पहुंचता हूं ।आप लोग चाय पी आओ।
हम बोले- ठीक हैं!
मुझ में और राजू में भी खौफ सा समाया हुआ था ।बुरी खबर अब आए या तब आए। हम चाय पी चुके थे।
अभी हम चाय पी ही चुके थे। कि विवेक का फोन आया - काका! ऊपर आ जाओ।
विवेक की आवाज में ठहराव था। कुछ घबराहट कुछ बेचैनी थी। शायद मुझे उस बात का इल्म सा हो गया था।
बस इतना कह कर डिबेट ने फोन काट दिया था।
विवेक का ऊपर आना कहना ही बस एक इशारा था।
इशारा काफी था ।उठते उठते दूसरी और तीसरी कॉल आ गई।
काका !जल्दी आओ !
हम तीसरी मंजिल की ओर भागे। मगर ऐसे वक्त में भी ऊपर जाने के लिए हमें पास बनवाना पड़ा ।जाने के लिए फिर ऊपर नर्स से बातें करनी पड़ी।
गोपाल जा चुका था। अपनी अंतिम यात्रा में। हमें छोड़कर।
वह सदा सदा के लिए हमें छोड़ कर जा चुका था ।
अब गोपाल दिवंगत हो चुका था।
और विवेक पागल सा हो गया था। रो रो कर! गुस्से में बाबा यह क्या कर दिया आपने।
राजू, अंदर जान से डर रहा था।
राजू बोला मेरे को। मैं विवेक को संभाल नहीं पाऊंगा। भैया ,आप चले जाओ।
विवेक सही में पागल सा हो गया था। पागल बाढ़ सा ।मैं अंदर गया। विवेक खाट को ठोक रहा था। उसी वक्त डॉक्टर सुधीर का फोन आया ।विवेक ने फोन काट कर जेब में डाला। फिर रोने बिलखने लगा।
मुझे लगा गोपाल, गोपाल ना रह कर लाश बन गया था ।सारी नलियां जो -नाक मुख, छाती और पेशाब के द्वार पर लगी थी। निकाल दिया था ।उसका मुंह खुला था। खुला रह गया था। जैसे जाते-जाते अपने, किसी को पास ढूंढा हो, और रो पड़ा हो..और मुंह से निकल गया हो-- पानी ..पा..!
आंखें बंद थी। हाथ मुड़ा हुआ ।
कंबल से छाती तक ढका हुआ।
एक युग का खात्मा हो चला था।
गोपाल के सांसो का उखड़ना ही एक युग का खात्मा था। खत्म हो गया था।
अब बारी बारी सबको बताना था। गोपाल की
रवानगी के बारे में।
सानू और भाभी।
और सारे रिश्तेदार और परिवार को।
देखे बहुत जलवे हमने जिंदगी में ,
अब तो हम अलविदा कर चले।
आंसू बहाना मत यह मेरे हमनवा ।
तुम्हारी दुनिया तुम्हें मुबारक ,
अब तो हम सफर को चले ।अब तो हमसफ़र को चले......….!!?
*******