मैं राजू और विवेक रात भर अस्पताल की वेटिंग रूम में रूक गये थे।विवेक ने कुछ भी नहीं खाया था। 2 दिन हो गए थे ।अब उसका चेहरा लगता था -जैसे चेहरे को अभी-अभी पानी से धो आया हो। भी गवाह आसुओं से भीगा हुआ।
विवेक के पाव भी शराबियों से लड़खड़ा रहे थे।
पूरी रात खौफ से गुजरा। कितना भयानक होता है, किसी अपने की मौत की खबर का इंतजार करना।
कितना खौफनाक कितना जानलेवा होता है!
2 दिनों से मेरा और विवेक का यही हाल था। तीसरे दिन राजू भी जुड़ गया था।
रात का वक्त था। बड़े भैया आते ही अस्पताल में गोपाल को देखा है थे।
विवेक ने अभी खाना खाया ना था।
मैं खा चुका था राजू अभी खा ही रहा था। विवेक और भैया अस्पताल से लौटे ।बोले- बस अब अंतिम अवस्था है।
भाभी!?
भाभी की हालत और बुरी होती जा रही थी। वह थोड़ी देर होश में आती। रोती फिर बेहोश हो जाती।
क्योंकि सबसे करीबी रिश्ता मियां बीवी का होता है। उसका पति था। वह शख्स जिसने जिंदगी भर साथ निभाने की कसमें लेकर अग्नि के सात फेरे लिए थे।
और जिंदगी भर उसने उसका साथ निभाया था। कभी किसी औरत की ओर आकर्षित ना हुआ था ।उसे तो शादी से पहले प्यार हो गया था ।कहता था- बस करूंगा तो इसी से शादी।
यह बात शादी तय होने के बात की थी।
शादी तय होने में ।और शादी होने में कुछ महीनों का फासला रहा ।तब हम घूमते हुए भाभी के मायके की ओर घूम आते थे ।वह कहता अब तो इसी के साथ जिंदगी बितानी है।
जोड़ी अच्छी थी। प्यारी थी ।विश्वास और प्यार के आधार पर टिकी। हंसती खेलती जोड़ी थी।
और मैं, मेरा कोई अस्तित्व नहीं था। दोनों के बीच एक छोटे भाई का किरदार निभाता हुआ। मैं।
गोपाल कहता कभी कभी पहुंचा करो। भाभी तेरी अकेली रह जाती है ।बोर हो जाती है। तुम्हारा आना जाना रहेगा तो दिल बहला रहेगा। शादी हुई थी ।टोपला बस्ती के किराए के मकान में ।टूटा फूटा सा मकान ।घर के बगल में बड़ा सा तालाब ।आज भी याद है मुझे मेरी स्मृति पटल में आंखों से दिखा हर चीज यादें बनकर रह जाती है। भाभी और गोपाल शायद भूल गए हो ।मगर मैं नहीं भूला।
दुख के दिन नहीं कहा जा सकता था। स्मृति पटल पर वे गोल्डन क्षण थे।
उनके जिंदगी के वे हसीन पल थे। जिंदगी अभी बस जोड पकड़ने वाली थी।
शादी के बाद यहीं पर बसेरा था। क्वार्टर अभी अलट नहीं हुए थे। गोपाल आयल इंडिया के क्वार्टर के लिए जद्दोजहद कर रहा था। मगर फिर भी वह पल सुखद थे। दोनों के होठों में रहने वाली वह मुस्कान मुझे आज भी याद है। भाभी भी खुश खुश थी।
दोनों के बीच कोई भी तकरार नहीं था।
प्यार था ।मोहब्बत था।
हर पल जिंदगी के खुशबू लिए हुए था।
बड़ा सा तालाब पास में ही होने के कारण, वहां पर मच्छरों का साम्राज्य था। फिर भी दृश्य प्यारा था।
उन दिनों उस वक्त डिगबोई जैसे छोटे से शहर में -किराए का मकान मिलना वह भी शहर के बीचो बीच ,कोई मामूली बात न थी ।बंगालियों ने बास और जस्ते के छत से कई ऐसे सेट बना रखा था। जो किराए पर चढ़ जाते थे।
शादी से पहले दो-चार झटके तो गोपाल को मिले थे।
जो गुजर गया सो- गुजर गया। बचपन और लड़कपन में हर कोई इंसान कुछ नादानियां करता है ।बच्चे होते है नादानियां के लिए ।
मैंने भी की। उन्हीं नादानियां को भुगत रहा हूं। खैर जो वक्त से संभल जाए तो उसे नादानी नहीं कहा जा सकता ।वह समझदारी ओं में तब्दील हो जाती है।
मैं करीब साथ 8 साल मम्मी पापा से दूर रहा इसकी वजह मेरा गुस्सा और पापा का मेरे प्रति तिरस्कार की भावना थी ।जो मेरी जिंदगी को तबाह करने के लिए काफी थी।
खैर जीवन है ।कभी किसी को दोष देने की आदत थी- अब खत्म हो चला है। लगता है मैं ही हर कदम में गलत था ।जब मैं अवलोकन करता हूं तो, क्योंकि मैं एक जिद्दी, घमंडी, नकारा इंसान था ।और इसी पर पापा की मुझ पर की गई जातियां मेरे घमंड को और प्रज्वलित करने में कामयाब रहा।
कभी-कभी तो लगता है- मैं डरपोक इंसान था। बहुत ही डरपोक। हालात से घबरा जाने वाला। सच्चाई को स्वीकार न कर सकने वाला ।आज उससे बस उल्टा हूं ।
काश !यही खूबियां मुझमें वक्त रहते हावी हो जाता तो।
मैं शायद कामयाबियों की बुलंदियों पर चढ़ जाता।
जिसने कभी किसी की गुलामी स्वीकारा नहीं। नौकरी करना मुझे यूं लगता -जैसे मैं किसी का हुक्म का गुलाम बन गया हूं ।और मैं गुलामी से आजाद हो जाता। सच में मेरे जिस्म के मसामों में आजादी का ऐसा खुमार चढ़ा- कि मैं प्राइवेट नौकरी कर ही नहीं पाया।
नौकरी जैसी चीज कभी मेरे दिमाग में घुसी ही नहीं ।सिर्फ आजादी ,आजादी ही आजादी।
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