एक जानलेवा खेल।
पौराणिक काल में वैद्य होते थे । वी आदतन विरक्त रहते थे । उन्हें न अपनी कमाई की फिक्र होती थी ।न हीं अपने स्थिति की। वे सिर्फ इंसान की भलाई के लिए काम करते थे। इंसान की निरोगिता के लिए काम करते थे।
मगर अब जमाना बदल गया। साइंस का जमाना आ गया। प्रयोग का जमाना आ गया। बड़े-बड़े कालेज बन गए -बड़े-बड़े यूनिवर्सिटीज बन गए!
अच्छे घराने के लोग चिकित्सा क्षेत्र को अपना धर्म नहीं पेशा बनाने लगे ।चिकित्सक की डिग्री हासिल करने में दिमाग का होना तो जरूरी माना गया- मगर उसका चरित्र को नहीं देखा गया।
चरित्र को कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती। चरित्र का अर्थ ही नहीं रह गया। बड़े-बड़े विश्वविद्यालय मे जहां लाखों रुपए के डोनेशन देने के बाद एक बच्चे को एडमिशन मिलता है। या फिर किसी नेता अभिनेता या फिर किसी और की सिफारिश से प्रवेश लेकर चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन करने के बाद -उनमें मानवता जैसी चीज खत्म होती जाती है। मात्र रह जाता है-" पैसा" किस तरह लाखों का खर्चा जो किया गया है !उसे भरपाई करे ।
तब चिकित्सा, चिकित्सक न रहकर एक खिलाड़ी रह जाता है ।जो जानलेवा खेल खेलता है। उसे प्रैक्टिशनर कहा जाता है।
वह मानव शरीर को एक प्रयोग की वस्तु समझकर, दवाओं का प्रयोग करके देखता है। ठीक हुआ तो ठीक ।नहीं हुआ तो भी ठीक।
कोई अर्थ नहीं रह जाता ।डॉक्टर जानलेवा खेल के मूल खिलाड़ी होते हैं। वह परफेक्ट कभी नहीं होते । कोई डॉक्टर गारंटी के साथ यह नहीं कह सकता कि मैं परफेक्ट हूं ।मैं डॉक्टर हूं ।
इस बात से एक सवाल खड़ा होता है। डॉक्टरी पेशा की ओर उंगली उठती है ।इस पेशा की ओर ।क्योंकि, यह पेशा बना हुआ है ।धंधा बना हुआ है।
मगर अब इसमें कोई सेवा भाव नहीं है ।डॉक्टर 10 मिनट बात करने का ₹50 से लेकर 5000, 10000 तक वसूल करते हैं। यह भी देख देख कर है ।
दौलत की भूख उसकी दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है ।विमार इंसान विमार इंसान ना होकर उसके, लिए प्राइवेट अस्पताल के लिए, पैसा छापने का मशीन बन जाता है। उसके पेट चीरकर भी पेट चीरकर पैसा निकाला जाता है।
सफेदपोश काम में काला काम यू चलता है। काला धंधा है यह, सफेद मुखौटे में लिपटा। काला धंधा ।
आदमी की मजबूरी का फायदा उठाने का धंधा। आदमी को शालीनता से लाकर चीर कर पैसा उगाही का धंधा।
पैशाचिक खेल खेल है यह।
अपराध जगत में लोग सुपारी लेकर हत्या करते हैं ।पैसा कमाते हैं। लोगों का जान लेते हैं। लोगों को सरेआम या फिर किसी तरह हत्या करने के लिए सुपारी ली जाती है। वह तो किसी के साथ जब दुश्मनी होती है। किसी से खून्दस होता है ।
अपराधिक मन मस्तिष्क वाले अक्सर यू करते हैं ।या फिर किसी आर्थिक फायदे के लिए किसी की भी सुपारी लेकर हिस्ट्रीशीटर हत्या कर देते हैं ।और उस पैसे से अय्याशी करते हैं। यह तो अपराधिक जगत की बात है- जहां इंसान की कीमत सिर्फ एक गोली के बराबर होती है।
इंसानी जिंदगी के कोई मायने नहीं होते । एक इंसान सिर्फ दूसरे इंसान की सुपारी इसलिए लेता है- कि उस शख्स की जान लेने में उसे चंद रुपय मिल जाते हैं ।अपनी अय्याशी के लिए अपने और जरूरी कामों के लिए ।
और वह सुपारी किलर फिर आगे सुपारी का इंतजार करता है ।किसी और को मारने की तैयारी करता है ।ऐसा चलता रहता है ।जब तक वह सुपारी किलिंग में जेल के अंदर नहीं चला जाता।
मगर इसके उलट बिन सुपारी के किसी की हत्या करना धीरे-धीरे मरीज को या इंसान को डिसेबल बनाना ।उसे चूसना उसकी दौलत को चूसना ।सर्जरी के बहाने जिसे सर्जरी की जरूरत नहीं, ट्रांसप्लांट ऑर्गन ट्रांसप्लांट की जरूरी नहीं ।जो बगैर ट्रांसप्लांट के भी जी सकता था -उसे ट्रांसप्लांट करवा कर उसे मौत के घाट उतारना ।अब बड़े-बड़े प्राइवेट अस्पतालों का पेशा रह गया है ।
पैसे की भूख उन हिस्ट्रीशीटर से भी ज्यादा बढ़ गया है ।दौलत !दौलत! दौलत!
दौलत की भूख इंसान को इंसान रहने नहीं देता ।इंसानियत को जिंदा रहने नहीं देता। प्यार को बरकरार रहने नहीं देता।
ऑर्गन ट्रांसप्लांट करना, सफल ट्रांसप्लांट करना ,और किसी की जान बचाना अहम किरदार का रोल करना डॉक्टरी पेशा है।
मगर कई बार यह पता रहता है ऑर्गन ट्रांसप्लांट के बाद भी मरीज जिंदा नहीं रहेगा। फिर भी इसलिए ट्रांसप्लांट किया जाता है- कि ट्रांसप्लांट -फिर आईसीयू- सिर्फ एक रुपए की दवा ₹100 में बेचना !महंगा हॉस्पिटैलिटी ! आईसीयू के बाद वेंटिलेशन! वेंटिलेशन के बाद मौत सिर्फ मौत।
वाजिब मौत नहीं ।ऑपरेशन के कारण मौत। ट्रांसप्लांट के कारण मौत ।
डॉक्टरों का एक टीम लाभान्वित होता है। अस्पताल फलने फूलने लगता है।
लोग सोचते हैं अपनी मौत मरा है ।
अंतिम में डॉक्टर यह बताने लगता है -हमारे हाथ में कुछ नहीं है । भगवान के हाथ में है सब कुछ ।
ऊपर बैठा सुपर नेचुरल पावर सब कुछ करता है। मगर सब कुछ भगवान के हाथ में है तो तुमने किसी की छाती क्यों चीरा। कितने लाख रुपए निकाले तुमने छाती चीरकर ।कितने लाख?
मेरी डॉक्टरों से सर्जनों से कोई दुश्मनी नहीं है। और ना ही इल्जामात लगाने के लिए मैं यह लिख रहा हूं। मैं इन अस्पतालों का जिक्र यहां करता रहा हूं ।जहां पता होता है मरीज नहीं बचेगा। डॉक्टर को पता चल जाता है जब एक इंसान का कई आर्गन एक साथ काम करना बंद कर देते हैं- तो डॉक्टर को इंडिकेशन तभी मिल जाता है। कि इस मरीज की मौत इसकी जिंदगी चंद रोजो की है ।
अगर आप्रेशन न करें तो मरीज ज्यादा जी जाएगा ।मगर ऑपरेशन व्यर्थ करते हैं ।
क्यों ...?
सिर्फ अस्पताल को चलाने के लिए? अपनी दौलत की प्यास बुझाने के लिए ?
और उनकी दौलत की प्यास इतनी भयानक होती है ।कि सुपारी किलिंग से भी ज्यादा जानलेवा ।
धीरे-धीरे मरीज की ओर बढ़ता हुआ मौत। धीरे-धीरे दौलत उनकी झोली में डाल जाता है।
और उसकी लाश भी दे जाती है कई लाख रुपए । डॉक्टर उन्हें बचाने का स्वांग रचाते हैं। उसे वेंटिलेटर में भेज देते हैं ।वेंटीलेशन में अंदर किसी को जाने की इजाजत नहीं होती। कहते हैं इंफेक्शन होगा ।दूर से चलता हुआ ऑक्सीजन के बुलबुलों उससे आदमी सोचता है। मेरा भाई जिंदा है। मेरा बाप जिंदा है। मेरी मां जिंदी है।
मगर यह उसका अंतिम पड़ाव होता है ।इसके बाद उसका सफर- मोर्चरी फिर श्मशान घाट का ही होता है।
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