अगला दिन था।
सुबह नाश्ता करके मैं और भाभी भोपाल से मिलने के लिए चले गए थे। रूम सिंगल सा ले रखा था। फिर भी डॉक्टर यहां एक एक एटेन्डेन्ट से ज्यादा रहने की इजाजत नहीं देते। फिर भी हम चले गए थे ।इस वक्त हम तीन अटेंडेड थे।
भाभी मैं और विवेक।
गोपाल का हिलना डुलना भी बन्द था। बिस्तर में ही पैखाना हो रहा था ।सुबह से दूसरी बार।
श्री स्वीपर आकर बाथरूम साफ कर गया था। जब हम पहुंचे तो करीब 12:00 बज रहा था। 12:00 बजे तक दो बार पैर खाना हो चुका था।
गोपाल इस वक्त सिर्फ हाथ और गर्दन हिला सकता था। पैरों में जान बचाना था।
स्थिति बिल्कुल क्रिटिकल थी।
नाक से ही ट्यूब लगाकर न्यूट्रिशन खाना खिलाया जा रहा था। नाक से ही ऑक्सीजन की नली भी लगी हुई थी। सीने के पानी निकालने के लिए बगल में छेद किया गया था। सीने का पानी बाहर दो बोतलों में बढ़ता जा रहा था ।
कलाई और हाथ की नसे गायब सी थी। इसलिए गले से ग्लूकोज और ब्लड इन्हेल करने के लिए इंजेक्शन की सुई सी फिक्स कर रखा हुआ था।
गोपाल की आंखों में अजीब सा नीला पन छाने लगा था। जैसे कोई जहर सा अंदर से निकल रहा हो।
गोपाल की आंखों में सिर्फ प्रश्न चिन्ह थे। प्रश्न ही प्रश्न। प्रश्न ही प्रश्न।
मुझे कहता- सेना !पैर दबा दो जरा। ताकत से दबाना ।सानू दबाती है। मगर धीरे-धीरे पता ही नहीं चलता।
मैं उसके पैर दबाने लगता। न जाने उसकी आंखों में क्या था ।कभी छत को निहारने लगता। कभी आसपास खड़े लोगों को। जैसे दिल से अलविदा कह रहा हो।
जब शरीर बिल्कुल साथ ना दे -तो इंसानी आत्मविश्वास टूटने लगता है ।और गोपाल की आंखों में खौफ साफ नजर आ रहा था। कातर निगाहों से आते जाते डॉक्टर नर्स और सभी को देखता। और मन ही मन कहता, भगवान! जल्दी उठा ले मुझे !और दर्द सहा नहीं जाता। बस बहुत हो गई अब जिंदगी! बहुत हो गया अब दर्द।
मैं उसके आत्मविश्वास के बुझते दिए में तेल डालता ।
कहता -याद है।डॉक्यूमेंट्री बनानी है ।तुम और मैं मिलकर ।मुझे उसका अंजाम- डुबता हुआ स्वासो का दोर।
और पता होते भी कहता -मेरा दिल कहता कुछ नहीं होगा। मगर दूसरा दिमाग कहता नहीं अब जा तब जा वाली बात लगती है ।
मैं उस वक्त पॉकेट नोबेल के लिए लिख रहा था। मगर उसकी हालत देखकर मुझे मुड न करता।
मैं लिखता- मगर मेरा दिमाग न जाने कहां घूमता रहता ।मैं डिस्टर्ब हो गया था ।मैं अपने ठिकाने मैं रहता। फिर भी अनहोनी की आशंका में घिरा रहता।
रात की नींद उड़ी रहती ।नींद आती भी नींद में सपनों का आना जाना होता। और सपनों में गोपाल का ही आना जाना होता ।
मैं सशंकित रहता ।इस बात से कि कब सानू का फोन आता- और कहती -काका जल्दी आ जाओ।
और...!?
खेल खत्म।
नहीं ..नहीं ..?मैं अपने ही सोच से घबरा जाता। क्यों ,नकारात्मक हुई जा रही थी मेरी सोच।
गोपाल की जिंदगी को लेकर दूसरे दिन जब मैं विवेक और भाभी कमरे में ठहरे हुए थे। गोपाल के कमरे में वरिष्ठ डॉक्टरों की टोली आई हुई थी।
मैं खड़ा था ।एक डॉक्टर जो उनमें सबसे बुजुर्ग सा था। ने मुझे बाहर बुला लिया था।
वरिष्ठ ने पूछा आप कौन है ?-पराशर के!?
मैं -भाई हूं !
डॉक्टर- मरीज की प्रेजेंट स्थिति बहुत खराब है! मरीज के चेस्ट में कैंसर है!
मैं -क्या !?
डॉक्टर-- हां घबराइए नहीं !हम दवाइयों से इलाज करेंगे! 60% मरीज ठीक हो जाता है। और 40% भगवान भरोसे होता है।
मैं- कैंसर ..?मगर!?
लास्ट स्टेज ऑफ़ कैंसर!
ओ माय गॉड.. मेरा सर चकराने सा लगा था! मैं दीवार के सहारे पीठ टिकाकर बाहर ही बैठ गया था।
डॉक्टर फिर बोला- हम कीमोथेरेपी नहीं करेंगे! दवा से ही ठीक करने की कोशिश करेंगे ।
मैंने पूछा -कितने दिन ?
डॉक्टर -लंबा.. लंबा चलेगा ।लंबा चलेगा इलाज।
मुझे सन्न छोड़कर ,वरिष्ठ डॉक्टर जूते बजाता कैरी डोर से आगे निकल गया था ।
मुझे बाहर डॉक्टर से बात करता देख -विवेक आया था। जब तक डॉक्टर ने अपनी कथनी समाप्त करके आगे बढ़ चुका था।
मैंने -दीवार के सारे पिठ टिकाकर कर आंखें मुद ली थी ।और लंबी- लंबी सांसे भरने लगा था।
विवेक- क्या हुआ काका?
मैं -कुछ नहीं बाबू!
विवेक- डॉक्टर क्या कह रहा था?
आखिरकार उसे बताना था।
मैंने डॉक्टर की बात उसे दौहरा दी थी। विवेक को पहले से ही आशंका थी। वह भी दीवार से पीठ टिकाकर लंबी -लंबी सांसे भरने लगा। आजकल कैंसर का इलाज है ।ठीक हो जाता है ।डॉक्टर कहराहा था ।दवाओं से इलाज करेंगे कीमोथेरेपी से नहीं।
मगर विवेक दीवार पर पीठ टिकाए आंखें बंद किए खड़ा रहा। लंबी लंबी सांसे उसकी चल रही थी ।न जाने विवेक के दिलो-दिमाग में क्या तूफान मच गया था। सांसो से वह कंट्रोल कर रहा था।
विवेक को ऐसा लग रहा था -जैसे किसी ने उसे फांसी पर लटका दिया हो ।मौत के फंदे में झूल रहा हो।
बाबा ने मौत को करीब से देखा है ।कई तकलीफों का पहाड़ उन पे टूट पड़ा है।
विवेक की स्थिति को देखकर मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा ।जैसे किसी ने उसे फांसी पर लटका दिया हूं। मैंने विवेक के कंधे में हाथ रखा।बोला- रिलैक्स !डोंट फील डिफीट! डोंट फील !
जिंदगी और इंसान का ठीक होना ना होना उसके हाथ में है। हम कुछ नहीं कर सकते। अगर ठीक होना लिखा होगा तो डॉक्टर की दवा से ठीक हो जाएगा ।कुदरत की सत्ता को स्वीकार करो।
कुदरत ने हर चीज को सलीके से संवारा है।
हर चीज का एक एक्सपायरी डेट डाल रखा है। इंसान है कि एक एक्सपायरी को भी चलाने की कोशिश में लगा रहता है ।जब उसके फैक्ट्री का एक्सपायरी खत्म हो। समझो खत्म। अगर चलाना होगा तो- पापा तुम्हारे ठीक हो जाएंगे ।ऊपर वाले पर भरोसा रखो ऊपर वाला सब कुछ ठीक कर देगा।
सारे मजबूर! सब दुखी! सब खामोश!
ऊपर वाले क्या खेल खेल रहा है तू? गोपाल की आंखें तो पहले से ही खामोश थी। सिर्फ जुबान चल रही थी ।
उसे शक तो हो गया था ।डॉक्टर कुछ खतरा बता गया है ।मगर क्या है कोई बताने को तैयार नहीं था।
मरीज को बताना जरूरी नहीं था। ओ भी टूटा हुआ मरीज ।और खौफ़ से ही हार्ट अटैक से मर जाता।
मगर मेरे दिमाग में कुछ बातें संका सी बनकर अटक गई थी।
डॉक्टर ने पहले जब लीवर निकालकर दिखाया था। तो कहा था। कि यह पोर्शन जो है है कैंसर है। अगर हम लिवर ट्रांसप्लांट नहीं करते- यह फैलाव पराशर की जान ले लेती। यही एक चीज था जिसे हमने सफलतापूर्वक निकाल दिया है ।अब 99 परसेंट मरीज के रिकवरी के चांसेस है।
और अच्छी बात यह है -कि मरीज का शरीर अच्छा रिस्पांस कर रहा है ।और ऑपरेशन अप टू डेट हन्ड्रेड 1% सक्सेस है। सक्सेस है। डोंट बी.. डोंट बी इन फीयर।
अब डॉक्टरों का मानना था कि यह कहना था कि कैंसर फेफड़े तक फल चुका था अभी ने कैंसर का इलाज के दौर से भी गुजरना होगा मुझे कुछ
शक सा जरूर लगा था। मगर मुझे क्यों ऐसा लगने लगा था! कि डॉक्टर अपनी असफल ऑपरेशन और इलाज का ,जिम्मेदार कैंसर को बता रहे थे। अब डॉक्टर मरीज का न ठीक हो पाने की, बात का धरातल तैयार कर रहे थे।
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