*कोई भी मनुष्य किस बात को,*
*किस प्रकार से समझता है।*
*यह उसकी मानसिकता तय करती है।*
*कोई दूसरों की थाली में से भी,*
*छीन कर खाने में अपनी शान समझता है।*
*तो कोई अपनी थाली में से दूसरों को,*
*निवाले खिला कर संतुष्ट होता है।*
*सारा खेल संस्कारों, समझ,*
*और मानसिकता का है।*
*लेकिन एक बात तो तयशुदा है कि छीन कर,*
*खाने वालों का कभी पेट नहीं भरता।*
*और बाँट कर खाने वाले,*
*कभी भी भूखे नहीं रहते।*