दो चींटियों का दृष्टान्त दिया है संतों ने । एक नमक के ढेले पर रहने वाली चींटी की एक मिश्री के ढेलेपर रहने वाली चींटी से मित्रता हो गयी । मित्रता के नाते वह उसे अपने नमक के ढेले पर ले गयी और कहा–‘खाओ !’ वह बोली–‘क्या खायें,यह भी कोई मीठा पदार्थ है क्या ?’ नमक के ढेले पर रहने वाली ने उससे पूछा कि ‘मीठा क्या होता है, इससे भी मीठा कोई पदार्थ है क्या ?’ तब मिश्री पर रहनेवाली चींटी ने कहा–‘यह तो मीठा है ही नहीं । मीठा तो इससे भिन्न ही जाति का होता है ।’ परीक्षा कराने के लिये मिश्री पर रहने वाली चींटी दूसरी चींटी को अपने साथ ले गयी । नमक पर रहने वाली चींटी ने यह सोचकर कि ‘मैं कहीं भूखी न रह जाऊँ’ छोटी-सी नमक की डली अपने मुँह में पकड़ ली । मिश्री पर पहुँचकर मिश्री मुँह में डालने पर भी उसे मीठी नहीं लगी । मिश्री पर रहनेवाली चींटी ने पूछा–‘मीठा लग रहा है न ?’ वह बोली–‘हाँ-में-हाँ तो कैसे मिला दूँ ?बुरा तो नहीं मानोगी ? मुझे तो कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता है, वैसा ही स्वाद आ रहा है ।’ उस मिश्री पर रहने वाली चींटी ने विचार किया–‘बात क्या है ? इसे वैसा ही–नमक का स्वाद कैसे आ रहा है !’ उसने मिश्री स्वयं चखकर देखी, मीठी थी । वह सोचने लगी–‘बात क्या है !’ उसने पूछा–‘आते समय तुमने कुछ मुँह में रख तो नहीं लिया था ?’ इस पर वह बोली–‘भूखी न रह जाऊँ,इसलिये छोटा-सा नमक का टुकड़ा मुँह में डाल लिया था ।’ उसने कहा–‘निकालो उसे ।’ जब उसने नमक की डली मुँह में से निकाल दी, तब दूसरी ने कहा–‘अब चखो इसे ।’ अबकी बार उसने चखा तो वह चिपट गयी । पूछा–‘कैसा लगता है ?’ तो वह इशारे से बोली–‘बोलो मत,बस खाने दो ।’
इसी प्रकार सत्संगी भाई-बहन सत्संग की बातें तो सुनते हैं, पर धन, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि को पकड़े-पकड़े सुनते हैं । साधन करने वाला, उसमें रस लेने वाला उनसे पूछता है–‘क्यों ! कैसा आनन्द है ?’ तब हाँ-में-हाँ तो मिला देते हैं, पर उन्हें रस कैसे आये ? नमक की डली जो मुँह में पड़ी है । मन में उद्देश्य तो है धन आदि पदार्थों के संग्रह का, भोगों का और मान-पद आदि का । अत: इनका उद्देश्य न रखकर *केवल परमात्मा की प्राप्ति का उद्देश्य बनाना चाहिये।*
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