*दान ऐसा भी होता है*
*एक बार भगवान श्रीकृष्ण
पाँडवों के बीच बातों ही बातों में
कर्ण की दानवीरता और उदारता की
बड़ी प्रशंसा कर रहे थे.
कर्ण की प्रशंसा बार-बार सुन
अर्जुन ईर्ष्या से जलने लगा।
अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा ~
मधुसुदन ! आप जानते हैं , कि
हमारे ज्येष्ठ भ्राताश्री से बढ़कर
कोई उदार नहीं हैं.
लेकिन फिर भी आप उनके सामने
उस कर्ण की प्रशंसा कर रहे हैं.
श्रीकृष्ण बोले ~ हमारे भ्राताश्री
धर्मराज अवश्य हैं , लेकिन
आखिर कर्ण तो कर्ण है.
यह बात मैं तुम्हें
फिर कभी समझाऊँगा.
कुछ दिनों बाद .... श्रीकृष्ण
अर्जुन को लेकर
साधु का भेष बदलकर
धर्मराज युधिष्ठिर के द्वार पर पहुँचे.
उन्होंने धर्मराज से कहा कि ...
हमें यज्ञ-हवनादि करने के लिए
एक मन चन्दन की
सूखी लकड़ियाँ चाहिए.
महाराज युधिष्ठिर ने साधुओं का
स्वागत सत्कार किया, और
अतिथिगृह में
प्रतीक्षा के लिए बिठा दिया.
वर्षाकाल था, अतः सभी जगह की
लकड़ियाँ गीली हो चुकी थीं.
लेकिन फिर भी महाराज युधिष्ठिर ने
नगर में अपने सेवक भेजे, तथा
लकड़ियों की व्यवस्था करने की
कोशिश की.
सेवक सभी जगह भटक कर आ गए,
किन्तु ... एक मन चन्दन की लकड़ियाँ
नहीं जुटा सके.
जितनी थोड़ी लकड़ियाँ वह जुटा सके थे,
उन्हें लेकर महाराज युधिष्ठिर
साधुओं के भेष में आये भगवान श्रीकृष्ण
और अर्जुन के पास पहुँचे.
धर्मराज बोले ~ महात्माओं ,
आपके एक मन चन्दन की लकड़ियों की
व्यवस्था करने में मैं असमर्थ हूँ.
आप चाहें तो कुछ और माँग सकते हैं.
इस पर साधु के भेष में खड़े श्रीकृष्ण
बोले ~ चन्दन नहीं मिल सकता
तो कोई बात नहीं ,
हम कहीं और से व्यवस्था कर लेंगे.
प्रणाम ..!!
यह कहकर वह दोनों चल दिए.
वहाँ से सीधा वह दोनों
कर्ण के द्वार पर पहुँचे.
वहाँ भी उन्होंने एक मन चन्दन की
लकड़ियों की माँग की.
कर्ण ने दोनों साधुओं का
स्वागत सत्कार किया और बोले ~
आज तो चन्दन की लकड़ियाँ मिलना
संभव नहीं है. अगर आप एक दो दिन
ठहरें तो व्यवस्था हो सकती है.
इस पर साधु के भेष में श्रीकृष्ण बोले ~
नहीं .. हमें वर्षाकाल में ही यज्ञ करना है.
अतः आज ही चाहिए.
दे सको तो ठीक , अन्यथा
हम कहीं और से व्यवस्था कर लेंगे.
कर्ण बोला ~
अगर ऐसी बात है , तो ठीक है.
आपके लिए लकड़ियों की व्यवस्था
अभी किये देता हूँ.
इतना कहकर कर्ण ने अपना
धनुष-बाण उठाया और अपने महल के
किवाड़ पलंग और जो भी चन्दन था
सब तोड़ डाला और बोला ~
यह लीजिये , आपकी व्यवस्था हो गई.
श्रीकृष्ण बोले ~
तुमने हमारे यज्ञ के लिए
इतनी कीमती चीजों को
क्यों तोड़ दिया.
कर्ण बोला ~ यह चीज़े तो
फिर बनाई जा सकती हैं , लेकिन
आप मेरे द्वारे फिर नहीं आएंगे.
मैं अपने द्वार पर आये अतिथि को
खाली हाथ नहीं भेज सकता.
यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने
कर्ण को आशीर्वाद दिया, और
वहाँ से चल दिए.
★
भगवान श्रीकृष्ण बोले ~ देखा अर्जुन !
महाराज युधिष्ठिर के राज महल में भी
चन्दन की वस्तुएँ हैं. लेकिन उन्हें
उनका कोई ख्याल नहीं आया.
लेकिन कर्ण ने
सूखी लकड़ियाँ माँगने पर
बिना कोई परवाह किये
अपनी सभी कीमती वस्तुएँ
तोड़कर दे दीं.
*हे अर्जुन ..!!*
*कर्ण ...*
*स्वभाव से दानी और उदार है*
*लेकिन , महाराज युधिष्ठिर ...*
*विचार से दानी हैं*.