कुछ कहना है तुमसे,
कहूं?
पर चुप भी क्यों रहूं?
जब सवाल,
जीवन के अहम भाग का,
अस्तित्व का,
सुहाग का ,भाग का,
तो क्यों,
तिल तिल जलूं?
क्यों सहूं?
घोर मानसिक यातना,
प्रताड़ना,प्रवंचना ।
बस चुपचाप देखती रहूं?
जड़ ,मूर्तिवत रहूं,
मैं नारी हूं आज की,
नहीं उस दूषित समाज की,
जहां औरतें हैं,नित्य
जुल्मों की शिकार,
बरबरता,पाशविकता,
सहने को विवश,लाचार,
फिर भी 'पति मेरा देवता ',
मन में बसाये मान्यता,
प्रतिक्षण सेवा को तैयार?
ना जाने क्यों?
ढोती हैं वे अपनी
जिंदा लाश का भार।
क्यों अनसुनी करती हैं,
वे अपने अंतस की पुकार।
आवश्यक है ये मान्यता बदलना,
इस सरलता से मुंह फेरना,
हो पुनर्विचार,
फिर एक बार।
हो सुधार,
मिले आधार।
मैं पर्याय हूं आस की,
पुनर्जागरण की,उस विकास की,
उस प्रभास की,
जहां,अपना जहां साथ ले,
वो छूती हैं,नित्य नव ऊंचाइयां,
उन्हें पता है अपनी सीमायें,
जीवन के मर्म,रिश्तों के मायने,
प्यार की गहराइयां।
पर,
रिश्ते मे हों यदि दिखावटें,
लालच,वैमनस्य,स्वार्थ,
वहशीपन की रुकावटें,
तो वो मार्ग छोड़ वे,
बढ़ती हैं,गढ़ती हैं,
सुखद आज,
सुरक्षित भविष्य।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '