तकती रही राह,
रात भर,
तेरी प्रतीक्षा कर,
उस समुंदर किनारे पर,
जहाँ मिले थे,
हम प्रथम बार।
उठी थीं प्रेम हिलोरें,
भिगो गयी थीं जो,
हम दोनों के ही,
मन के हर कोने,द्वार।
भरे थे आंचल में,
तुमने कितने ही स्वप्न मोती।
आशाओं के धागे में,
जिन्हें एक एक कर मैं,
बडे़ चाव से थी पिरोती।
वो मिलन,वो पुलकन,
वो वादे ,वो उमंग,
क्या सिर्फ जगे थे,
मेरे ही ह्रदय में?
तुम्हारी कोई चाह न थी?
चले जिस पर सदा साथ,
क्या वो मेरी राह न थी?
सुना दिया फैसला,
कैसे एक ही पल में
नहीं चाहिए मुझे तुम,
मेरे अपने जीवन में?
न किया कानों पर विश्वास,
दिल ने किया पूरे दिवस,
बस तुझको ही याद।
आकर तेरी राह देखती,
देख रही हूं मैं समुंदर,
जो उतर गया धीरे-धीरे,
मेरे भीतर।
तेरे बेवफाई के,
खारेपन का करा रहा आभास।
बरस रहा है आंखों से,
करा रहा अहसास,
कि तुझसे दिल लगाना,
जीवन की ,
सबसे बडी़ भूल थी मेरी।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'