खोलती,मूंदती ,
नयन द्वार बार -बार,
इनमें बसी ज्योति राशि,
किसका तुझे इंतजा़र?
कागल की रेख खींच,
कौन अशुभ रोकतीं?
हर मिले विछोह पर,
अश्रुधार झोकतीं।
निशब्द हो मौन साध,
किस साधना को साधतीं?
कैसी ये कशिश जो,?
प्रेमपाश चाहती।
कितनी गहन गहराइयां,
भाव बिन कहे कह गयीं,
अनछुई सच्चाइयाँ,
चुपचाप सब सह गयीं।
उम्मीद की किरण बांध,
कितने ख्वाब पल गये,
वेदना की वेदी पर,
अतृप्त हो जल गये।
वंदनीय कि आस में,
प्रयास नहीं छोड़तीं,
नित्य नव प्रभात में,
कपाट निज खोलतीं।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'