मैं तेरी बेटी हूँ मां,
मुझको कोख में मत मारो ना,
मेरा भी अस्तित्व मुझको,
ऐसे नहीं नकारो ना।
वीरांगना लक्ष्मीबाई,
वो भी तो एक नारी थी।
इतने सारे अंग्रेजों पर,
एक अकेली भारी थी।
नारी थी कल्पना भी,
कल्पनाओं को आकार दिया।
अपने घर वालों के,
सपनों को साकार किया।
किरण जी की किरणें फैलीं,
किसने नहीं सलाम किया?
आई पी एस अधिकारी बनकर,
रौशन देश का नाम किया।
क्या भूले पन्ना को जिसने,
जन्म औरत का पाया था।
फर्ज की खातिर जिसने,
निज बेटे का खून बहाया था।
या भूलीं सावित्री को,
जो जिद पर अपनी अडी़ रही।
पति को वापस पाने तक,
यम चरणों में पडी़ रही।
बोलो कितने नाम गिनाऊं?
गिनते गिनते थक जाओगी।
कोई न होगा ऐसा क्षेत्र,
जहाँ बेटियों को न पाओगी।
एक पहिया हम भी हैं जो,
गृहस्थी का आधार बने।
वरना बिन नारी के सोचो,
कैसे भला परिवार बने।
हमने अपनों की रक्षा खातिर,
दुश्मनों का संहार किया।
धरती तो धरती है,
पर्वतों को भी पार किया।
बेटियाँ ना होंगी,
आँगन में दीप कौन जलायेगा?
बनी रहे घर में खुशहाली,
देवों से कौन मनायेगा?
आने दो हमको दुनिया में,
हम अपनी उडा़ने भर लेंगे।
रखते हैं इतना यकीन,
असम्भव को सम्भव कर लेंगे।
आँसू ना दूंगी माँ,
खुशियां ही फैलाऊंगी।
जीवन के अंतिम क्षण तक,
माँ मान तेरा बढा़ऊंगी।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'