आसमान छूने की चाहत,
भला किसे नहीं होती?
पर हर लड़की,
उड़न परी, कल्पना चावला,
मीराबाई चानू,या
लवलीना तो नहीं होती।
हर लड़की की आंखें,
कुछ स्वप्न संजोती हैं,
जिन्हे वह पलकों में,
बडे़ प्यार से पिरोती है।
पर आज भी लड़कियां,
सीमित देहरी तक रह जाती हैं।
और कुछ लड़कियों को,
मायके में पिता देता है जो,
उम्मीदों के सुनहरे पंख,
वे ससुराल में काट दिये जाते हैं।
लम्बे से घूंघट की घुटन बीच,
उसके अधिकार क्षेत्र ,
छांट दिये जाते हैं।
याद करती हैं वो,
मायके की हौंसलों की उडा़नें,
रोती है सुन सुन कर,
ससुराली जनों के कर्कश तानें।
पति की हिटलरशाही,
ननदों की नवाबी,
सब सहना होता है।
कोई कितने भी कहे अपशब्द,
अपमान घूंट पीना,और
चुप रहना होता है।
आँखों के सँजोये स्वप्न,
आँखों में ही मर जाते हैं।
छू लूं आसमान,
ये अरमान,अरमान
ही रह जाते हैं।
लड़के व लड़की की असमानता,
का दंश,वो झेलती रह जाती हैं।
लड़के स्वतंत्र पंक्षी से,
जिनके पैर घर में न टिकते,
और वह 'लड़की हो' कहकर,
घरों में जैसे कैदी बन जाती हैं।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'