घनी अँधेरी सड़कों पर ,
गलियों में ,चौराहों पर,
बसों और ट्रेनों के अंदर
खेतों में खींचकर ,
लूट ली जाती है ,
लड़कियों की आबरू
पूरा जन सैलाब
एकत्रित होकर ,
सड़कों पर ,
व्यक्त करता है ,
अपना आक्रोश ,
जन आंदोलन,
नारेबाजी,
तोड़फोड़,
धरना ,प्रदर्शन,
निकलता है ,
हाथों में मोमबत्तियां लेकर,
नम आँखें कर ,
दुखित होकर,
पीडि़ता को याद कर।
फिर धीरे -धीरे
ठंडा़ पड़ जाता है,
सारा आक्रोश का गुबार।
सब व्यस्त हो जाते हैं,
अपनी -अपनी दुनिया में ,
उस पीडि़ता को विस्मृत कर।
पर उसका क्या ?
जिसने ये सब सहा ,
झेला,महसूस किया ?
जो जी रही विवश होकर,
रो रही हर घडी़,
अपनी दुर्दशा पर,
कहलाती बेचारी,
रह जाती है ,
दुनिया के लिये ,
वो निर्भया बनकर।
हर कस्बे और शहर,
असंख्य बच्चियां,
लड़कियां ,औरतें ,
दुधमुही तक ,
होती जातीं ,
इन नर पिशाचों ,
की वासना का शिकार होकर ,
विवश ,लाचार,
अपनी दुर्दशा पर।
कब होगा ,
इन नर भक्षियों
का अंत ,
कब मिलेगा ?
पूर्ण सुरक्षित समां,
कब होगी हर नारी,
सुरक्षित और स्वच्छंद ।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'