बदल रहा था सबकुछ,
और मैं समझ न पाई कुछ
दिल की गलियों में ,
वो एक दिन आये थे,
सात फेरे लेकर मुझे,
अपने जीवन में लाये थे ।
मैं पाकर उनको,
फूली नहीं समाई थी ,
अपने भाग्य पर ,
आह!कितना इतराई थी ।
दिल की महफिल में
आये थे बनकर मेहमान,
आने वाले कष्टों से ,
थी मैं पूरी तरह अनजान।
अपने दिल की रंगीन पन्नी में,
लपेट कर दिये ,
धोखे के अनेक उपहार,
मैं अनमोल रत्न समझ ,
सब करती रही स्वीकार।
वक्त ने खोल कर रख दिये,
मेरे समक्ष वो सारे उपहार,
सब कुछ बदल गया था ,
कर न पा रही थी जो स्वीकार।
टूटे सपने, वो झूठे अपने,
सब छोड़ दिया ,अतीत की गलियों में,
फिर भी मन का मासूम बच्चा ,
खींच ले जाता है हर बीते कल में ,
जो चाहती हूं भूलना ,
वही रह रहकर आता है याद,
खिन्न कर देता है मन मेरा ,
हो जाती हूं मैं उदास ।
सोचती हूं एक बार पुनः,
सबकुछ बदल जाये ,
छूट गया जो भी मेरा
वो पुनः मुझे मिल जाय।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'