पापा की प्यारी ,
परी ही थी वो,
जिसने पापा का ,
गृह उपवन
मँहकाया था ।
नन्हीं उस ,
कलिका को पाकर ,
जो फूला न समाया था।
अपनी नींदें करके हवन ,
नन्हीं आँखों में,
भर मधुर स्वप्न ,
देकर थपकियां ,
उसको,
हर रात सुलाया था।
बाहों में उसे झुलाया ,
पलकों पर उसे बैठाया ,
नन्हीं उंगलियां थामे,
उसे चलना सिखाया था ।
सही गलत का भेद बताया,
सदाचरण करना सिखाया ,
उसकी इच्छाओं के आगे,
अपनी जरूरतों को ठुकराया था।
भरी मन में उम्मीद किरण ,
देखने सिखाये ऊंचे स्वप्न ,
उनको पूरा करने का ,
नित नव उत्साह जगाया था ।
पापा की वो गुरूर ,
पर पापा भी थे मजबूर ,
सदियों से चली आ रही परंपरा,
ब्याह रचाकर उसे निभाया था ।
परी कहने को हुयी पराई,
ब्याह कर दूजे घर को आई ,
सहीं उलाहना,
शिकवे ,यातना
पापा हँसते ,जब मैं हँसती,
बताऊं उन्हें वो होंगे दुखी!!!
सह न पायेंगे वो ,
सोच ,उन्हें कभी कुछ न बताया था ।
हर प्रताड़ना अहर्निश सहती,
पर जुबान से कुछ न कहती ,
सत्य छुपा रहता कब तक !!!
वो दिन मनहूस आया था!
जब पिता को पता चला ,
बेटी की हुयी निर्मम हत्या ,
बदहवास पहुँचा जब वो ,
सब बरबाद हुआ पाया था !!!
छतविछत लाश मिली ,
कहीं कटी तो कहीं जली ,
उस पिता के दिल से पूछो,
कैसे उसने परी को अपनी,
समेटा बाहों में उठाया था !!!!
प्रभा मिश्रा 'नूतन'