ये वर्तमान के समुद्र की लहरें,
मुझे भयभीत कर जाती हैं,
पूरे वेग से मेरी तरफ आती हैं,
बहा ले जातीं मेरा मन ,अपने संग
ले जातीं हैं अतीत के दूसरे छोर पर,
पुनः वहां से अपने उसी वेग से,
लौटती हुयी ,मेरे मन का शीश ,
टकरा कर नयनों के किनारे ,
पुनः वापसी कर जाती हैं।
कटु स्मृतियों के खारे जल से,
सराबोर हो जाती हूं मैं
कैसे वर्तमान का ये अतीत का भंवर?
जो घसीट ले जाता है ,
मेरा मन अपने भीतर,
रह जाती हूं मैं उसमें फंसकर,
हंसता है वो मेरा उपहास कर ।
देखती हूं अपनी रिक्त हथेलियां,
जिसमें रह जाते हैं बस ,
उनके फरेबी प्रेम के सिकता कण,
बंद कर मुट्ठियां समेटना चाहती
मैं उन्हें तत्क्षण।
पर वो भी चुपके से निकल जाती हैं,
ये देख नियति जमकर,ठहाके लगाती है।
मैं देखती हूं जब नज़रें उठाकर,
तो देखती हूं ,खडा़ है पूरा समाज,
देख रहा है मुझे विस्मय से,
पढ़ रहा है मेरे चेहरे के भाव,
कुरेदना चाहता है मेरे घाव।
स्थिति का होते ही भान
उठता है भयंकर मेरे अंदर क्रोध का उफान।
सारा कटु स्मृतियों के समुद्र का गरल
अगस्त्य मुनि बन कर लेती हूं पान।
स्वयं को सामान्य दिखाती हूं मैं,
अधरों के तट पर झूठी मुस्कानों के,
सीपी,मोती,शंख सजाती हूं मैं।
शिव की भांति ,गरल मन कंठ में,
धारण कर ,करने लगती तांडव नृत्य,
खोजने लगती हूं प्रतिपल,
अनसुलझे प्रश्नों का हल ।
पर हाथ कुछ न आता है
मन तनहा ,तनहा ही रह जाता है।
कटु स्मृतियों के घूंट पीकर,
होंठें बेचारी मुस्कुराती हैं,
कोई बेचारी समझ ,
न खाये मुझ पर तरस,
ये सोच आंखें सच छुपाती हैं
ये वर्तमान के समुद्र की लहरें,
मुझे भयभीत कर जाती हैं।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'