मृत्यु लोक के प्राणी वर्ष में एक बार धरती पर आते हैं
डॉ शोभा भारद्वाज
जहाँ भी बौद्ध धर्म ( इनमें सनातन धर्म की परम्पराएं भी मिश्रित हैं )का प्रभाव है वहाँ पितरों को बहुत सम्मान दिया जाता है।
भारत की धरती से बौद्ध धर्म मंगोलिया तक पहुँचा था |मंगोल इतिहास में लिखा है कि छठी शताब्दी में भारत से दो आर्चाय ‘‘नरेन्द्र यशसँ’’ तथा ‘‘शाक्य वंश’’ मंगोलिया आये। उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया वह अपने साथ बौद्ध ग्रंथ तथा बुद्धा की मूर्तियाँ भी ले गए थे। सम्राट अशोक कलिंगा युद्ध में भयंकर नर संहार देख कर इतने व्यथित हो गए उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया उनके पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा पहले बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणी थे उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रसार दक्षिण पूर्व एशिया में किया उन दिनों यात्रायें आसान नहीं थी नावों पर बैठ कर दुर्गम यात्रायें की जाती थी | चीन सिंगापुर मलेशिया थाईलैंड हांगकांग मंगोलिया समेत कई देशों में पितरों की याद को ख़ास त्यौहार के रूप में मनाते हैं। इन दिनों को दुःख के दिन माना जाता है।
हंगरी घोस्ट की प्रचलित कहानी बुद्ध भगवान के शिष्य से जुडी है यहीं से घोस्ट फ़ेस्टिबल की शुरुआत हुई थी । बुद्ध भगवान का प्रिय शिष्य पाली भाषा में नाम मोग्गालाना( Maudgalyayana) मोंक ने ध्यान में देखा उसकी मर चुकी माँ घोस्ट बन गयी है ,भूखी है मौंक ने अपनी शक्ति से एक कटोरा चावल भूखी माँ को अर्पित किया लेकिन माँ हाथ में आते ही कटोरे के चावल कोयला बन गये । मौंक कारण जानने के लिए भगवान बुद्ध के पास गये। तथागत ने ध्यान में जाकर मौंक को बताया जीवन काल में तुम्हारी माता दुष्ट एवं लालची थी । प्रभु कैसे मेरी माँ को मुक्ति मिले तथागत ने कहा अपने समाज के बौद्ध भिक्षू एवं भिक्षुणियों को सातवें महीने की पंद्रहवीं रात्रि को एक थाली भर कर भोजन अर्पित करो और अपनी घोस्ट माँ के लिए प्रार्थना करो इसका सात पीढ़ियों को पुण्य लाभ मिलेगा ।
हंगरी घोस्ट फेस्टिवल – , घोस्ट फेस्टिवल का आयोजन सातवें महीने के 15वीं रात को होता है। इस महीने को घोस्ट मंथ कहते हैं इस दिनों नर्क के दरवाजे खुलते हैं अच्छी एवं बुरी आत्मायें धरती पर पधारती हैं अत : इस फेस्टिवल का आयोजन आत्माओं को शांत करना है। यह आत्माएं ज्यादातर रात के समय सक्रिय रहती हैं और सांप, कीट, पक्षी, लोमड़ी, भेड़िए एवं शेर का रूप लेती हैं। यहां तक कि ये सुंदर महिला या पुरुष का रूप भी ले लेती हैं और किसी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करके उसे नुकसान पहुंचाती हैं।
बौद्ध ,टोइस्टी धर्म -चीन में मान्यता है - पूर्वजों की आत्माओं एवं घोस्ट के लिए वर्ष के सातवें महीने में स्वर्ग एवं नरक के दरवाजे खुल जाते हैं पूर्वजों की आत्माएं एवं घोस्ट चीन की धरती से आकर अन्य एशिया के देशों में बसे अपने परिजनों के यहाँ पधारती है |अनेक देश जैसे कोरिया जापान में भी इस पर्व को हंगरी घोस्ट फेस्टिबल या फेस्टिबल आफ डेथ भी कहते हैं | इसकी तैयारी एक हफ्ते पहले से ही शुरू हो जाती है घर का रास्ता दिखाने के लिए घर के बाहर रात के समय पेपर लैम्प जलाये जाते हैं | पूर्वजों का सत्कार करने के बाद उन्हें सम्मान से विदा भी किया जाता है रात के समय पूर्वजों को राह दिखाने के लिए नदी पर जा कर कागज की नावों पर मोमबत्ती जला कर प्रवाहित करते हैं अनगिनत नावें नदी पर तैरती हैं मनभावन दृश्य होता है आकाश में टिमटिमाते तारे नदी में तैरतीं नावें | मान्यता है उनके पूर्वज रास्ता न भटकें आराम से मृत्यु लोक लौट सकें |
मुख्य चीन में छींग मिंग उनका परंपरागत त्योहार हैं। भारत में हिन्दू धर्म के अनुयायी पितरों की याद में श्राद्ध पर्व मनाते हैं केवल समय का फर्क है। ठीक इसी प्रकार से चीन में छिंग मिंग पर्व के दिन भी पूर्वजों को याद किया जाता है |छींग का अर्थ ‘साफ़’ और मिंग का मतलब ‘उज्ज्वल’ होता है | त्योहार पर चीनी अपने दिवंगत लोगों की tomb (समाधि ,कब्र कब्रिस्तान ) जाकर उनकी कब्रों को साफ़ कर उन पर फूल मालायें अर्पित कर स्वादिष्ट खाना परोस कर प्रार्थना करते हैं | प्रार्थना करने के बाद परिवार का मुखिया उनके पीछे क्रम से परिवार के सदस्य समाधि के तीन चार चक्कर लगाते हैं पूर्वजों को गर्म खाना परोसा जाता है और खुद ठंडा खाना खाते हैं। इसलिए इसे ‘ठंडे भोजन’ का दिन भी कहा जाता हैं। ये त्योहार चीनी कलेंडर के अनुसार 5 अप्रैल को मनाया जाता यह पर्व को अलग –अलग नामों से जाना है |
‘चीन के प्रत्येक परिवार पितरों का तर्पण करते रहते हैं |’
प्राचीन शांग सम्राट जिन्हें देव पुत्र माना जाता था ने अपने पूर्वजों के बलिदान को याद करने के लिए वर्ष में ‘एक बार दैवीय वस्त्र पहन कर’ धरती, आकाश के देवताओं एवं पूर्वजो की स्मृति में उत्सव का आयोजन किया था। उसके बाद से यह प्रथा बन गई इस दौरान विभिन्न रंगारंग प्रस्तुतियों का आयोजन होता है सभी को इसमें भाग लेने का न्योता भेजा जाता है। नौजवान उत्साह से इन कार्यक्रमों में भाग लेते हैं | कार्यक्रम के दौरान पहली लाइन की सीटों को खाली रखा जाता है। सोच है इन सीटों पर पूर्वजों की आत्माएं बैठती हैं। दिव्य आत्मायें मृत्यू के पश्चात वायुमंडल से अपनी सन्तति की संकट से रक्षा करती हैं जबकि दुष्ट आत्माएं प्रेत के रूप में कष्ट देती हैं | इस दिन शाकाहारी भोजन बनाया जाता है |वर्तमान में यह पर्व चीन, जापान, सिंगापुर, मलेशिया, थाइलैंड, श्रीलंका, लाओस, कंबोडिया, वियतनाम, ताइवान और इंडोनेशिया समेत कई एशियाई देशों में मनाया जाता है। सिंगापुर में मैने इस आयोजन को देखा एवं उनके पूर्वजों को प्रणाम किया था |
वियतनाम - वियतनाम की पुरानी संस्कृति में जन्म दिन में जश्न मनाने का चलन नहीं था लेकिन अपने पूर्वजों की पुण्यतिथि मनाने का रिवाज है अपने पूर्वजों की याद में भोज का आयोजन किया जाता है इसमें परिवार के सभी सदस्य एकत्रित हो कर सामूहिक भोज करते हैं |अगरबत्ती जला कर मृतक पितरों के लिए भी भोजन निकालते हैं पर्व को ‘तेतत्रुंग न्गुयेन’ कहते हैं । वियतनाम में पूर्वज पूजा का ख़ास महत्व है इसमें महिलाओं को भाग लेने का अवसर दिया जाता है | अपने पूर्वजों को याद करते हुए पक्षियों मछलियों एवं गरीबों को भोजन कराते हैं हमारे यहाँ पंडितों को भोजन कराने से पहले कोओं एवं गाय को खीर पूरी खिलाते हैं |
जापान में वर्ष के सातवें महीने के आखिरी पन्द्रह दिन ‘चुगेन’ पर्व पर पितरों को उपहार अर्पित करते हैं अब यह उपहार अपने परिवार के बजुर्गों को देते हैं इनके यहाँ एक और भी पितरों से सम्बन्धित पर्व हैं| कुछ जापानी समुदाय बॉन पर्व मनाते हैं अपने पितरों के रहने के निवास स्थान पर जाकर श्रद्धांजली देते हैं |
कम्बोडिया लाओस म्यन्मार एवं श्री लंका में सितम्बर एवं अक्टूबर में पर्व मनाया जाता है यहाँ तीन दिन की छुट्टी की रहती हैं प्राचीन मान्यता यमराज प्रेत योनी में पड़ी आत्माओं के लिए यम द्वार खोल देते हैं अच्छे कर्म वाले मुक्त हो जाते हैं जिनके कर्म अच्छे नहीं हैं उन्हें फिर यमलोक जाना पड़ता है इस दिन चावल के पिंडों का दान कर (भारत में गया जी में पिंड दान जैसा )पूर्वजों को जलांजलि अर्पित कर बौद्ध भिक्षुओं को श्रद्धा से बिठा कर भोजन कराया जाता है उन्हें दान भी दिया जाता हैं भोजन गृहण करने से पूर्व भिक्षु सूत्रों का पाठ करते हैं इस पर्व को ‘पिक्म बेन’ कहते हैं सब जगह मनाने का तरीका एक है केवल नाम अलग-अलग हैं | यहाँ श्राद्ध की समाप्ति के बाद नवरात्र आते हैं इन दिनों शाकाहारी भोजन का विधान है | इन सभी स्थानों में बौद्ध धर्म फैला था |
जौराष्ट्रियन दस दिन तक अपने पूर्वजों को याद करते है इसे दुःख के दिन समझा और माना जाता है |
हांगकांग - एवं चीनी संस्कृति एक जैसी है इनका भी विश्वास है वर्ष में एक बार पूर्वज धरती पर आते हैं उनके सम्मान में विशेष भोजन का आयोजन किया है जिससे वह प्रसन्न होकर पूर्वज अपने लोक में प्रस्थान करें यह दिन Yulan या हंगरी घोस्ट फैस्टिवल कहलाता है इसकी शुरुआत दो हजार .वर्ष पहले हुई थी यह हांगकांग की प्राचीन संस्कृति की पहचान है हांगकांग का Chiu Chow समाज इसे विशेष रूप से मनाता है। अनेक मान्यताओं के अनुसार यहाँ का समाज काले एवं लाल रंग के कपड़े नहीं पहनते है यह रंग घोस्ट को आकर्षित करते हैं शीशे के सामने भी नहीं सोना चाहिए क्योकि बुरी आत्माएं इससे आकर्षित होती हैं . मुख्य रूप से हंगरी घोस्ट फ़ेस्टिबल उन आत्माओं को संतुष्ट करने के लिए हैं जिनकी मृत्यु का कारण हत्या या आत्महत्या थी या जिनकी अंतिम क्रिया अथवा सही से दफन नहीं किया गया गया था कई अजनबी रोजगार के लिए थे किसी कारण वश उनकी मृत्यु हो गयी ऐसी अतृप्त आत्माओं का भी सम्मान किया जाता है उनको भोजन पैसा तरह - तरह के आयोजनों द्वारा संतुष्ट करते हैं संतुष्ट आत्माएं किसी तरह का नुक्सान नहीं पहुंचाती। इन दिनों को सख्त दिन माना जाता है न नया काम शुरू करते हैं शादी विवाह के लिए यह दिन उचित नहीं हैं .हांगकांग में कुछ लोग अपना व्यवसायिक संस्थान जल्दी बंद कर देते हैं जिससे घोस्ट आराम से आ जा सकें उन्हें परेशानी न हो। सिंगा पुर में घोस्ट फ़ेस्टिबल के लिये शानदान स्टेज सजाई जाती है इनमें आधुनिक वाद्य यंत्रों द्वारा रंगारंग प्रोग्राम युवक युवतियाँ मिल कर प्रस्तुत करते हैं । शानदार रौशनी से पंडाल जगमगाते हैं तरह -तरह के पकवान फल घोस्ट को अर्पित करते हैं पंडाल में पहली पंक्ति की घोस्ट के लिए छोड़ी जाती उनके पीछे कुर्सियों पर बैठ कर लोग रंगा रंगा कार्यक्रम का आनंद लेते हैं। सैलानी ख़ास कर इन दिनों सिंगापूर घूमने जाते हैं ।
1904 में प्रथम विश्व युद्ध जर्मन के ताना शाह विलियम कौसर की महत्वकांक्षा का परिणाम था प्रथम विश्व युद्ध के 100 वर्ष पूरे होने पर सेना और युद्ध में सभी मरने वाले लाखों लोगों के सम्मान में पहली अगस्त को पूरे विश्व में रौशनी कम की गई यह उन अंजान आत्माओं के लिए श्रद्धांजलि थी जो समय से पूर्व मृत्यु की गोद में सो गये ।
हमारे पूर्वजों को कुछ नहीं चाहिए हम तो एक जलांजलि उसकी याद में दे दें बहुत है| श्राद्ध के दिन पुरखों को याद किया जाता है सन्तान उनके बारे में सुनती है समझती है वह समझ जाती है ऐसे ही उन्हें भी एक दिन श्राद्ध करना है क्या यह ढकोसला होगा ?नहीं हमारी संस्कृति का हिस्सा है | आज जो पूर्वजों की याद में श्राद्ध कर रहें हैं उन्होंने अपने जीवित वृद्धों की सेवा भी की होगी।
हम अपने पितरों को याद करते है उनकी तिथि पर पंडितों को भोजन कराते हैं साथ में मिष्ठान परोसते हैं यही नही पंडित जी के चरण स्पर्श कर उन्हें दक्षिणा दे कर विदा करते हैं |अपने पुरखों की याद में पुराने लोग बहुत भावुक हो जाते हैं उन्हें लगता है वाकई उनके पूर्वज घर पधारे हैं इस लिए घर की महिलाये घर की देहरी को पानी से धो कर अल्पना बनती हैं | अमावस्या के दिन साँझ को पितरों को सम्मान के साथ विदा भी किया जाता है घर का बेटा अर्थात मालिक एक दिया जला कर उसके साथ कुछ मीठा उत्तर दिशा में रखता है कुछ दूर तक लोटे से जल भी अर्पित करते हैं | पुरखों को जाते समय कोई कष्ट न हो उनका मार्ग रोशन रहे उनके कुल दीपक ने दिया जलाया है राह के लिए जल और कुछ मीठा भी है |