उन्नीस सौ नब्बे के दशक में आरंभ हुए आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप माना जाता है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर में अभूतपूर्व तेजी आई। जबकि आजादी के बाद से 1980 तक भारत की आर्थिक वृद्धि दर औसतन सिर्फ 3.5 प्रतिशत प्रति वर्ष पर अटकी हुई थी। मजाक उड़ाते हुए इसे ही ‘हिन्दू दर’ का नाम दिया गया था। ‘हिन्दू दर’ एक ऐसी दर थी जो विनाशकारी तो नहीं थी पर जिससे देश और देशवासियों का विकास भी संभव नहीं था। इसका प्रधान कारण यह था कि जब आर्थिक वृद्धि दर औसतन 3.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी तब जनसंख्या वृद्धि दर औसतन दो प्रतिशत प्रतिवर्ष थी। अर्थात प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि दर औसतन सिर्फ डेढ़ प्रतिशत प्रतिवर्ष थी। इसीलिए देश घोर गरीबी में डूबा रहा।
इसके विपरीत 1980 और विशेषकर 1990 के बाद से आर्थिक वृद्धि दर में अभूतपूर्व तेजी देखी गई जो अब तक जारी है। यहां तक कि भारत आज विश्व की सर्वाधिक तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन गया है। बमुश्किल ढाई दशकों में भारत की अर्थव्यवस्था छः गुनी बड़ी हो गई है। क्रयक्षमता के हिसाब से अमरीका और चीन के बाद भारत आज विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
परंतु आम लोगों की बातचीत में भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर एक विडम्बनापूर्ण स्थिति हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाती है कि आखिर क्यों हमारी तेज आर्थिक वृद्धि रोजगार वृद्धि में परिवर्तित नहीं हो रही है। इससे युवाओं में रोष, क्षोभ और आक्रोश बिल्कुल स्वाभाविक है। इसलिए प्रश्न उठता है कि हमारी अर्थव्यवस्था अपेक्षित मात्रा में रोजगार का सृजन क्यों नहीं कर पा रही है? वैसे तो इसके लिए अनेक कारण गिनाए जाते हैं – जैसे तकनीक का बढ़ता प्रयोग जिससे मनुष्य की जरूरत घट जाती है, विनिर्माण क्षेत्र का न पनप पाना, कौशल का बदलता स्वरूप आदि। उदाहरण के लिए केवल तकनीक के बढ़ते प्रयोग को लेकर यह बताना उपयुक्त होगा कि मैकेंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अनुसार 2030 तक भारत में 9 प्रतिशत नौकरियों पर ऑटोमेशन का खतरा है। परंतु यहां हम एक छोटे परंतु महत्वपूर्ण कारण पर ही विचार करेंगे।
हमारे देश में औपचारिक और नियमित रोजगार के दो मुख्य स्रोत हैं- सरकारी और निजी क्षेत्र। सरकारी क्षेत्र में केन्द्र सरकार सहित सभी राज्य सरकारें शामिल हैं। देखा यह गया है कि सरकारी व निजी – दोनों क्षेत्रों में नियमित कर्मियों के वेतन में पिछले दो दशकों में कई गुना वृद्धि हुई है। इसलिए आज नियमित कर्मी बहुत महंगे साबित हो रहे हैं। संभवतः वेतन पर अब इतना अधिक धन व्यय होने लगा है कि दोनों ही क्षेत्र नियमित नौकरी देने से बचने लगे हैं। फिर भी चूंकि काम तो चलाना ही है इसलिए काम की आउटसोर्सिंग की जा रही है। इसके तहत न्यूनतम वेतन पर युवाओं को प्रशासन से लेकर शिक्षा तक के क्षेत्रों में लगाया जा रहा है। यह युवाओं का शोषित तबका है। फिर भी ये युवा बेरोजगार युवाओं से कई गुणा बेहतर स्थिति में हैं। यदि बात यहीं पर समाप्त हो जाती तो गनीमत थी। परन्तु हो यह रहा है कि अनियमित रोजगार पाने में भी युवाओं को उन सेवानिवृत्त कर्मियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है जो सेवानिवृत्त होने के बावजूद उसी दफ्तर में फिर से कार्यरत हो जाते हैं। इस प्रकार रोजगार का जो अवसर नैसर्गिक रूप से युवाओं को मिलता वह सेवानिवृत्तों के खाते में चला जाता है।
इस परंपरा ने अब गहरी जड़ें जमा ली हैं। अब तो सेवानिवृत्त होने से चार-पांच साल पहले ही कर्मी इस दिशा में कार्यरत हो जाते हैं। अपना काम ढंग से करने की जगह ये अपनी सारी ऊर्जा भविष्य में फिर से नौकरी पाने में लगाते हैं। ये पूरी तरह यथास्थितिवादी होते हैं और व्यवस्था में किसी भी तरह के परिवर्तन के घोर विरोधी भी। तात्पर्य यह कि अब सरकारी तंत्र में सेवानिवृत्त रूपी ऐसी दीमक लग गई है जो धीरे-धीरे तंत्र को ही खा रही है। परंतु इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ है कि युवाओं के सामने से रोजगार दूर होते जा रहे हैं। सेवानिवृत्त जितना वेतन लेते हैं। उससे कहीं कम वेतन पर युवा उनसे कहीं बेहतर तरीके से काम कर सकते हैं। जबकि सेवानिवृत्त वरिष्ठ होते हैं और उनसे काम लेना भी कठिन होता है। फिर भी तंत्र सेवानिवृत्तों को ही वरीयता देता है।
लेकिन सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यह रोग सरकारी क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। निजी क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में साठोत्तर लोगों को सेवारत देखा जा सकता है। इस पर रही सही कसर दूर कर दी सरकार के उस निर्णय ने जिसके द्वारा पहले शिक्षकों और बाद में डॉक्टरों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाकर पैंसठ कर दी गई। अब केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में सबसे बड़ी संख्या में प्रोफेसर देखे जा सकते हैं। उनसे कहीं कम संख्या में एसोसिएट तथा असिस्टेंट प्रोफेसर होते हैं। जबकि अपेक्षाकृत युवा होने के कारण एसोसिएट तथा असिस्टेंट प्रोफेसर ही अधिक काम करते हैं। अति तो यह है कि पैंसठ की सेवानिवृत्ति की आयु के बाद भी कई प्रोफेसर सत्तर तक सेवारत रहते हैं। इसलिए हमारे समाज में यह बात आम होने लगी है कि पिता तो साठ के बाद भी नौकरी में हैं पर घर में युवा पुत्र या पुत्री बेरोजगार है। युवाओं के लिए वैसे भी कई पेशे ऐसे हैं जिनके दरवाजे उनके लिए मुश्किल से ही खुलते हैं। उदाहरण के लिए वकालत, चार्टड एकाउटेंसी, डॉक्टरी आदि पेशे ऐसे हैं जहां व्यक्ति एक बार जम गया तो जीवनपर्यंत जमा रहता है। इसलिए इन पेशों में किसी भी युवा को अपनी जगह बनाने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। अब यही बात सामान्य क्षेत्रों में भी होने लगी है। जो सेवानिवृत्त कार्यरत हैं उनकी संख्या क्या होगी इस बारे में संभवतः आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी इस संदर्भ में विकसित देशों की आर्थिक संस्था ओइसीडी ने चौंकाने वाले आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। ओइसीडी के अनुसार दुनिया भर में 65 से 69 वर्ष के बीच के लोगों में काम करने वालों का प्रतिशत के हिसाब से भारत का स्थान सातवां है। भारत में असल में 65 से 69 वर्ष के बीच के लोगों में एक तिहाई से अधिक यानी लगभग 36 प्रतिशत लोग कार्यरत हैं। यानी भारत में हर तीसरा पैंसठोत्तर व्यक्ति कार्यरत है। यह आंकड़ा इस अर्थ में भी चौंकाने वाला है कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, यूके, फ्रांस और स्पेन में भी प्रतिशत के हिसाब से भारत की तुलना में बहुत कम पैंसठोत्तर लोग कार्यरत हैं।
भारत में इतनी बड़ी संख्या में 65 से 69 के बीच की उम्र के लोग क्यों काम कर रहे होंगे इसका अनुमान लगाना कठिन है। परंतु इतना तो स्पष्ट है कि यह बहुत विरोधाभासी स्थिति है कि जो देश सबसे युवा होने पर गर्व करता हो वहां युवाओं के स्थान पर साठोत्तर ही नहीं पैंसठोत्तर भी बड़ी संख्या में कार्यरत हैं।
साठोत्तरों का सेवारत रहना समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी अवांछनीय लगता है। कहां तो ये लोग अपने परिवार, कुटुंब और अंततः वृहत समाज से जुड़ते जिनसे वे दशकों तक दूर रहे। उनके ज्ञान, अनुभव और प्रतिभा से सामाजिक संबंध मजबूत होते। इसके उलट वे पैसे कमाने वाली मशीन बनकर समाज से सदा के लिए कट से जाते हैं। कालांतर में उनकी स्थिति ऐसी हो जाती है कि उनके लिए नौकरी करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। ये वंचित लोग अपनी जीवन भर की कमाई को खर्च करने लायक भी नहीं रहते। दूसरी ओर इससे समाज में आर्थिक असमानता की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जाती है। यह हमारे समाज के लिए शुभ लक्षण नहीं है।
फिर भी सेवानिवृत्तों का क्या होता है यह मूल विषय नही है। मूल विषय है उनके कार्यरत होने का दुष्परिणाम जो युवाओं की बेरोजगारी के रूप में हमारे सामने आता है। बेरोजगारी की समस्या की विकरालता और भयावहता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लैंसेट की 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार सारे विश्व में युवाओं द्वारा की जा रही आत्महत्या की सर्वाधिक दर भारत की थी। इस संदर्भ में विशेषज्ञों की राय है कि युवाओं द्वारा आत्महत्या किए जाने का सबसे बड़ा कारण बेरोजगारी है।
इसके बावजूद चाहे आउटसोर्सिंग या अनुबंध या सेवानिवृत्तों के द्वारा जब तक सरकार का काम चल रहा है तब तक संभवतः सरकार भी नियमित तौर पर युवाओं को रोजगार देने के विषय में सोचने पर विवश नहीं होगी। बहरहाल इतना तो आसानी से कहा जा सकता है कि यदि कोई रिटायर ही नहीं होगा तो किसी को नौकरी कहां से मिलेगी ?
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
4 सितम्बर 2018