"अभिमान".
घड़ी भर पहले जूझते बच्चे खेल में वापस मगन थे
स्नेह बंधन में बंध चुके थे अभी-अभी जो गुत्थम गुत्था थे
खिलौने जिनसे विवाद था, हाशिये पर हो चले थे
द्वेष मुक्त बच्चे अपनी घरौंदों को आकार दे रहे थे।
जुझने भी बच्चों में दूरी कहाँ होती है
लड़ाई भी तो उनकी पकड़म पकड़ाई सी होती है
लेकिन प्रौढ़ दूरी शरद रात्रि सी क्यों होती है
मन को अवसादों से सिंचती चली जाती है।
अभिमान बड़ों से अविछिन्न कैसे हो जाता है
मानव मन का अंतर्द्वंद अलग क्यों करता हैहै
मिलों सयाने लगते है टूट कर जुटते बच्चे
खिलौनों के लिए हाथापाई करते पर शीतलता देते।
वयस्क सम्मुख से असुरक्षा में बहता है
नीत कुंठाओं में समाता पाया जाता है
और जब कोई परिधि फैलने को होती है
तृष्णा क्यों आकार लेती है, क्या देकर जाती है।
-पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)