शक की सूई.
राजा मोहन और निकेश अच्छे मित्र थे। दोनों ने साइंस कॉलेज में साथ-साथ पढ़ाई की और दोनों की सरकारी नौकरी भी पटना में ही लग गई। दोनों की शादी हुई, बाल-बच्चे हुए और दोनों की निभती भी गई। दोनों की कॉलेज के दिनों की नोक-झोक भी वैसी ही रही, जैसी तब थी। निकेश, राजा मोहन को ‘भेंगा’ कहता तो राजा मोहन उसे ‘कलुवा जरंत’ बुलाता। राजा मोहन आँखें टेढ़ी करके देखता था तो निकेश काला-कलूटा था।
“क्या रे रजीया, आजकल दिखाता नहीं है? कहीं गोरी मैम से तो नहीं सट गया। उसके चक्कर में नहीं रहना बाबू, नहीं तो घर में झगड़ा करवा देंगे।” निकेश ने लंगोटिया राजा मोहन से मसखरी किया।
“हम क्यों सटने लगे। तुमको सटना है तो तुम सट जाओ। और तुम्हारी बात से तो लगता है कि तुम उसको रडार पर रखे हो।”
“रडार पर रखे हैं तभी तो कह रहे हैं कि उधर देखना नहीं।”
“भाई तुम ही रखो रडार पर भी और रडार पर क्यों सीधे घर बुला लो, हम कौन होते हैं देखने वाले। लेकिन अगर वही तुमको छोड़कर किसी और को देखने लगे तो हमको नहीं कहना।”
“ऊँह भेंगा कहीं का, सीधा तो सुझाता नहीं है और तुमको देखेगी? तुम्हारे जैसों को तो वह अपने आगे पीछे नचाती है।”
“तो तुम जाओ और उसके आगे नाचो, कलुवा जरंत।”
दोनों के ऑफिस में एक मोहतरमा अभी नई-नई ज्वॉइन की थी और सामने तो दोनों सभ्य बने रहते। लेकिन पीठ पीछे उसका नाम लेकर एक-दूसरे की खिंचाई करते। टीवी के प्रचार की तरह ‘मैन वील बी मैन’।
एक दिन राजा मोहन जैसे ही ऑफिस प्रवेश किया तो सामने केबिन में देखा तो निकेश गोरी मोहतरमा से हँस-हँसकर बात कर रहा था। उसका चेहरा लटक गया।
शाम को जब दोनों ऑफिस से निकले तो राजा मोहन ने फिकरा कसने में देरी नहीं की।
“अरे मैंने तो कहा था रडार पर तुम तो सीधा अपने केबिन में ही बुला लिया। इतना हँस-हँस कर क्या बात हो रही थी।”
“उसको बता रहा था कि अपने ऑफिस में एक भेंगा रहता है, बहुत बड़ा शैतान है और महिला स्टॉफ को ताड़ते रहता है, उससे दूर रहने की जरूरत है।”
निकेश को कुसुम कुमारी से बात करते देख सच में राजा मोहन को ईर्ष्या हो रही थी। ईर्ष्या नहीं पराजय का भाव, निकेश ने जैसा दावा किया था वही तो हो रहा था। उसका ध्यान अब उसके काम पर नहीं था। कुसुम का निकेश से यूँ हँस-हँस कर उससे बात करना उसे बर्दाश्त नहीं होने लगा। वह कल्पनाओं में उतराने लगा कि किसी भी तरह कुसुम उसके टेबुल तक आ जाये और उससे बाते करते निकेश अपनी आँखों से देख ले तो उसके कलेजे को ठंढक मिले, या कुछ भी करते देख ले चंचल कुसुम के साथ तो कलुवा को अपनी जगह पता चले।
राजा मोहन का खयाली पुलाव जल्द ही पक निकला, सही में। उसके मुहल्ले के आगे ही कुसुम रहती है, यह बात खुद कुसुम के पति ने ही उसे बतायी। राजा मोहन काम के बाद शाम में निकल ही रहा था कि उसकी भेंट कुसुम के पति से हो गई। दोनों पति-पत्नी साथ में थे।
पति- “आपने दरअसल पहचाना नहीं मैं आपके कुलिग कुसुम जी का पति। मैं डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में हूँ। मोहन जी आप भी गुलाब बाग में ही रहते है न मैं आपके अगले चौक पर फ्लैट में रहता हूँ। कुसुम ने बताया कि आप भी गुलाब बाग अंदर में रहते हैं। एक गुजारिश थी आपसे।”
राजा मोहन- “जी कहिये।”
पति- “आपको एक कष्ट देना चाह रहा था। मैं कुसुम को ऑफिस ले जाता और ले आता हूँ लेकिन मैं दस दिन के लिए घर जा रहा हूँ तो आपसे कहना था कि आप उधर से आते हैं तो कुसुम को भी साथ ले लेते तो बड़ी कृपा होती। उस चौक से रिक्शा रेगुलर मिलता नहीं है और इतनी जल्दी मैं कोई अन्य व्यवस्था नहीं कर पाया। मुझे अर्जेंट है कल सबेरे ही निकलना है।” इतना सुनना कि राजामोहन की बाँछे खिल गई। वह तो ऐसे मौके को हाथों-हाथ लपकने के लिए तैयार था ही।
राजा मोहन- “अरे, नहीं-नहीं कोई बात नहीं। मेरी तरफ से आप निश्चिंत रहिये, मैं मैडम को लेता आऊँगा।”
पति- “मुझे आपसे कहने में संकोच हो रहा था लेकिन आप कितने भले आदमी हैं।”
राजा मोहन- “आप हमें नहीं कहिएगा तो किसे कहिएगा।”
अगले दिन राजा मोहन पूरी तरह से तैल-फुलैल लगा, बन-ठन तैयार हो निकला। चाल में अलग रवानी। राजा की पत्नी भी अपने पति की इस कायाकल्प से हैरान थी। कहाँ ये आदमी, धकेलने पर भी संवरना तो दूर अच्छे कपड़े या घड़ी पर नजर तक फेरी हो।
राजा मोजन जब चौक पर पहुँचा तो कुसुम कुमारी ऑफिस पर्श ले वहीं खड़ी मिली। राजा ने इत्मीनान से गाड़ी रोकी और मैडम को पीछे बिठा लिया। रास्ते भर में यही अरमान कि निकेश एक नजर देख भर ले मैडम को उसके साथ बाइक की सवारी करते हुए। उसकी ये इच्छा भी पूरी हुई; निकेश अपनी गाड़ी लगाकर ऑफिस घुस ही रहा था कि उसके मुंह से निकल पड़ा ‘तेरी भूत की!’ उसने दोनों की युगल सवारी और राजा मोहन के बदले रूप को देखा तो दाँतों तले उँगली दबा ली।
जब फुरसत में निकेश राजा मोहन से मिला तो यह पूछने में देरी नहीं किया कि माजरा क्या है? और राजा मोहन ने सधे राजनीतिज्ञ की तरह जवाब दिया कि ‘जो तुम्हारे रडार पर थी उसने अपना दल बदल लिया है।’ इस बात पर निकेश कुह कर रह गया।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन रोज-रोज कुसुम को उसके साथ आते-जाते देख निकेश के सीने पर जैसे साँप लौटने लगा।
हार-पार कर उसने राजा मोहन से कहा- “राजी, मेरी बाइक खराब हो रखी है। कल मैं तुम्हारे साथ आऊँगा।”
राजा मोहन- “नहीं मेरी बाइक खाली नहीं है तुम ऑटो ले लेना।”
निकेश- “अरे भेंगा, साफ-साफ बोलो न तुम गोरी मैडम को बिठाओगे, मुझे नहीं।”
राजा मोहन- “जब जानते हो तो पूछते क्यों हो?”
निकेश- “अच्छा मैं भी कल गुलाब बाग चौक पर रहूँगा और देखता मैं जाता हूँ या कोई और।”
अगले दिन निकेश चौक पर खड़ा था और राजामोहन चश्मे को आगे नाक पर सरका और उसके ऊपर से देखते हुए हल्की मुस्कान बिखेरी और गोरी मैम को ले चलता बना।
उसी दोपहर राजामोहन की पत्नी अनामिका को एक अनाम नंबर से रहस्यमय कॉल आयी।
कॉलर- “हैलो, आप राजा मोहन की पत्नी बोल रही हैं।”
अनामिका- “हाँ, आप कौन बोल रहे हैं?”
कॉलर ने उसके सवाल का जवाब दिये बगैर ही कहा- “आप लोग सब ठीक हैं या कुछ मसला हो रखा है?”
अनामिका- “हाँ, ठीक हूँ लेकिन आप बोल कौन रहे हैं?”
कॉलर- “मैं जो भी हूँ, आप ये बताइये आपके पति के साथ सब कुछ ठीक है या कि आपने कुछ परिवर्तन नोटिस किया है उसमें?”
अनामिका- “मेरे पति तो ठीक हैं लेकिन आप कहना क्या चाहते हैं? कोई बात हो गई क्या?”
कॉलर- “मुझे पहले ही पता है कि आप बहुत सीधी, बहुत भद्र महिला हैं। लेकिन एक शुभचिंतक होने के नाते मैं आपको बता दूँ कि अब आपके पति के जीवन में केवल आप नहीं हैं और धीरे-धीरे यह जगह कोई और ले रही है। यकीन न हो तो आज शाम गुलाब बाग चौक पर जाकर अपने पति को देख लीजिएगा उसके नये होने वाली हमसफर के साथ।”
अनामिका- “ये आप क्या कह रहे हैं?”
कॉलर- “सही कह रहा हूँ। ऐसी गौ जैसी महिला के रहते, उसके पीठ पीछे जो खेल वह खेल रहा है, उसे आप नहीं जान सकती हैं केवल मैं जान सकता हूँ। मेरी बात से अगर आपका भला होता हो तो इस कॉल के बारे में किसी को कहिएगा नहीं।”
अनामिका- “आप निश्चिन्त रहें।”
अनामिका के आँखों पर बीते कुछ दिन चलचित्र की भाँति चलने लगे। तभी मैं सोचूँ ये आदमी इतना बदल कैसे गया। एक कमीज में पूरा सप्ताह निकालने वाला रोज नई-नई कमीज कैसे बदल रहा है। बिना कुछ बात के अपने-आप हँसता है। और गाड़ी जो सालभर में धुलती थी कैसे उसकी रोज पोछा-पाछी हो रही है।
अगले दिन अनामिका नियत समय पर चौक पर खड़ी रही और कुछ देर में ही राजा मोहन की मोटर साइकिल पर से सवारी चौक पर उतर रही थी। और सवारी भी आधुनिक, मैरून रंग के प्लाजो और कुरती में, टसटस लाल लिपिस्टिक से रंगे होंठ, मसकरा और आई लाईनर युक्त मैक-अप। मन तो हुआ उसी वक्त सवारी को गाड़ी से धक्का दे और अपने पति का मुंह नोच ले, लेकिन आस-पास देखकर कदम ठिठक गये। छलिया इतना मगन था कि अपनी पत्नी पर भी उसकी निगाहें नहीं पड़ी या तो उसका दिन खराब होनेवाला था।
राजा मोहन पान की गिलौरी चबाते और गाना गुनगुनाते हुए घर पहुँचा तो घर में अजीब संदेह पसरा हुआ था। घर में बच्चे थे पर उसकी मम्मी नहीं थी।
आते ही उसने बड़ी बेटी से पूछा- “मम्मी कहाँ है, बेटा?”
बेटी ने जो कहा सुनकर राजा मोहन के पैरो के नीचे से जमीन ही निकल गई- “मम्मी आप के लिये ही गयी है पापा। मम्मी को सब पता चल गया है पापा।”
राजा मोहन- “मेरे पीछे? और मम्मी को क्या पता चल गया है?”
“आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था पापा!”
इसके बाद विवरण लोमहर्षक है। मम्मी प्रचंड अवस्था में घर में प्रवेश करती है, उसके हाथों में तेल का कनस्तर है, चेहरा सूजा हुआ है। राजा मोहन उसके कंधे पर हाथ रखना चाहता है जिसे अनामिका झटक कर हटा देती है- “मुझसे दूर हटो पहले।” राजा मोहन अपना हाथ हटाकर, जहाँ था वहीं अपराधी की भाँति खड़ा हो जाता है। अब बोलने की कोई जगह नहीं केवल दंड की प्रतीक्षा है।
“कौन है वह?”
“क्.....क.......... कौन, कौन?”
“कौन-कौन, वही जिसके लिये मेरी आँखों पर धूल झोंक रहे हो जैसे मुझे कुछ पता ही नहीं चल सकता है। सब देखकर आ रही हूँ मैं। इतनी भी अंधी नहीं हूँ कि मेरे पीठ पीछे तुम्हारी रासलीला चलती रहे और मैं हाथ-पर-हाथ धरे बैठी रहूँगी।”
“नहीं अनु, तुम जैसा सोच रही...........”
“कब से चल रहा है ये सब?” अनामिका उसकी बात पूरी हुए बिना ही बीच में चीख पड़ती है।
राजा मोहन क्या बोले, उसकी तो मानो घिग्घी बँध गई।
“अच्छा तो तुम मुझे नहीं बताओगे। अब मैं समझी, मैं गाँव वाली हूँ इसलिये। लो ये गाँव वाली तुम्हारा रास्ता साफ कर देती है............ळळ!!” इतना कहकर वह कनस्तर का ढक्कन खोल तेल शरीर पर उड़ेनले लगती है। राजा मोहन ने इस दृश्य की कल्पना तक नहीं थी। वह दौड़ता है और बच्चे भी। सभी दौड़कर अनामिका का हाथ पकड़ते हैं। अनामिका मूर्छित हो रही है।
“बताता हूँ, बताता हूँ............. तुम जिसे देखकर आ रही हो न वह मेरे ही ऑफिस में काम करती है और उसके पति ने ही कहा था मुझे उसे छोड़ने के लिए, इसीलिए। और कोई बात नहीं, बच्चों की कशम।”
“बच्चों की कशम, बेहया आदमी? ये बात तुमने मुझे पहले बताई थी। लोग-बाग क्या कहेंगे इसको जरा भी शऊर है।”
“अनु, इस बार मुझे माफ कर दो, हाथ जोड़ता हूँ............नहीं-नहीं पैर पड़ता हूँ.........ळळ”
“फिर किसी कलमुंही को अपनी मोटर साइकिल के पीछे बैठाओगे??”
“नहीं अनु, जीते-जी कभी नहीं”
अगले दिन जब वह ऑफिस के लिए निकला तो गुलाब बाग चौक पर निकेश और कुसुम मैडम के साथ वहीं खड़ा था। कुसुम ऑफिस जाने के लिए उसका इंतजार कर रही थी। उसे देखते ही निकेश सहसा बोल उठा- “लीजिए मोहन जी आ ही गए हैं। आप मोहन जी के साथ निकलिये, मेरी मोटर साइकिल खराब है इसलिए ऑटो से आऊँगा।”
राजा मोहन ने मोटर साइकिल खड़ी की और उसकी चाभी निकाली, फिर निकेश की ओर चाभी बढ़ाते हुए कहा- “निकेश, ये लो मोटर साइकिल और ये रही उसकी चाभी, आज तुम मैडम को अपने साथ ऑफिस ले जाओ। मैं ऑटो से जाऊँगा, मेरी कमर में दर्द रह रहा है।”
निकेश गोरी मैडम को पीछे बैठाकर भूर्रऱ से बाइक स्टार्ट कर उड़ान भरते हुए, मन-ही-मन कह रहा था- ‘और वो दर्द कल शाम से शुरू हुई है।”
--पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)