ईश्वर.
मैं शुरू से ही ईश्वर को लेकर थोड़ा हटकर सोचता था। और मेरी छवि लगभग ऐसी थी कि मैं हार्डकोर ईश्वर समर्थक कभी नहीं माना गया। जैसे कि ईश्वर का भौतिक अस्तित्व मुझे कभी समझ में नहीं आया। मैं आज भी इस सोच से पूरी तरह उबर नहीं पाया कि ईश्वर जैसी कोई सत्ता कहीं वास्तव में भौतिक रूप से वर्तमान है और ब्रह्मांड के संचालन के केंद्र में है। या यूं कहें चीजें जो भी दुनिया में घटित हो रही है कहीं से वह नियंत्रित होती रही है। बचपन के मेरे कुछ कड़वे-मीठे अनुभव रहे लेकिन उसके आधार पर मेरे मन में ईश्वर की यह छवि बनी ऐसा नहीं है। मेरा अपना विवेक रहा और मैं उसी पर बना रहा। धर्म अपने जगह उचित भी है और यह हमारे दैनिक और सामाजिक जीवन के कार्यकलापों को अनिंद्य प्रभावित करता है।
मेरा मानना है कि एक सामान्य आदमी अपने आपको धर्म से अलग नहीं कर सकता है। आपके जन्म के बाद जन्म से जुड़े संस्कार कैसे होंगे ये आपका धर्म तय करता है, आपका नाम आपके धर्म के हिसाब से रखा जाता है, आपके विवाह की पद्धति क्या होगी यह आपका धर्म निश्चित करता है, यहां तक कि मृत्यु के उपरांत संस्कार आपके धर्म के हिसाब से संपन्न होता है। आपका गृहवास धर्म प्रारम्भ करवाता है और पुत्री की विदाई के लिये शुभ तिथि धर्म भी धर्म बताता है। ईश्वर की लिए आपकी उपासना पद्धति, आपका रहन-सहन, आपका भोजन, आपका पहनावा तक आपके धर्म से प्रभावित होता है। एक सामान्य सामाजिक आदमी धर्म से असामान्य दूरी बनाकर नहीं रह सकता है। धर्म उतनी भी बुरी चीज नहीं है जितना इसको वर्ग भेद बनाता है। अगर वर्ग भेद नहीं होता तो धर्म उतना विकृत नहीं होता। अगर वर्ग भेद न रहे तो धर्म अधिकांशतः परिष्कृत हो जाएगा।
अब मैं जो कुछ समझ पाया ईश्वर के बारे में। लोग पूजा-पाठ करते हैं और अपने ईश्वर से जिन चीजों की आकांक्षा रखते हैं वह प्रायः भौतिक होती है। लोग अभी तक नहीं समझ पाये हैं कि ईश्वर का भौतिक जगत से कोई संबंध नहीं है क्योंकि ईश्वर ही भौतिक नहीं है और कोई भी धर्म हमें यही बताता है। मैंने किसी ऐसे धर्म के बारे में जाना-सुना नहीं है जो यह बताता हो कि ईश्वर फलां है और फलां जगह पर है। ईश्वर के बारे में जो बाते अकसर कही जाती है वह यह कि ईश्वर निर्गुण और निराकार है, ईश्वर वह है जिसका न कोई आदि है और न अंत है, ईश्वर अजन्मा और अविनाशी है। इसका अर्थ तो यही हुआ न ईश्वर भौतिक अस्तित्व न होकर एक प्रभुसत्ता है। ईश्वर एक अवधारणा है जो हमारे अंतःकरण में सृजित और विकसित होती है। दूसरे शब्दों में ईश्वर होने की अनुभूति ही ईश्वर है। अतः ईश्वर को नकारना खुद को नकारने जैसा है। जिस क्षण कोई कहता है कि ईश्वर नहीं है उसी क्षण वह यह कह रहा होता है कि उसका अंतःकरण नहीं है अर्थात वह नहीं है। जिस क्षण आपको बोध हुआ और चेतना जागी उसी क्षण आपने चेतना के सर्वोच्च स्तर का मानदंड स्थापित कर लिया, जो कि ईश्वर है। यह चेतना आपको जीवन के वास्तविक लक्ष्यों की ओर ले जाती है।
ईश्वर को मानना इसलिए जरूरी है कि जब आप ईश्वर को मानते हैं तो आप अंतःकरण के करीब रहते हैं। चेतना का सर्वोच्च मानदंड जो आपने अपने मन में प्रतिबिंबित कर रखा है उसके करीब। इसलिए ईश्वर के करीब रहते हुए आप सदाचार के करीब हो जाते हैं और व्यभिचार से दूर। आपके दुर्गुण दूर हो जाते हैं और व्यवहार में दया, करुणा, ममता, ईमानदारी और सच्चाई का संचार होता है जो ईश्वरीय गुण है। इसलिए भी मांसाहार, मद्यपान, जैसे व्यसनों में रहकर आप धार्मिक नहीं हो सकते हैं। कुछ लोग मांसाहार करते हैं और खुद को धार्मिक कहलाने का स्वांग भी भरते हैं तो यह वैसा है जैसे खुद को बेवकूफ बनाना। जबतक आपके मन में करुणा ही नहीं है आप ईश्वर को महसूस नहीं कर सकते हैं।
ईश्वर के छवि रूप को आचार्य प्रशांत ‘प्रतीक’ बताते हुए कहते हैं और इसका इतना ही महत्व है यह परमात्मा(सुपरसोल) तक पहुँचाने के माध्यम हो सकता है। बकौल आचार्य प्रशांत पूजा-पाठ, विधि-विधान, कर्मकांड और प्रथाएं भी तब तक गैर-जरूरी और अर्थहीन है जबतक इसका वास्तविक महत्व नहीं समझा जाता है।
धर्म और ईश्वर से जुड़ी एक और शब्दावली है जिससे कि निरंतर हमारा सामना होता है और वह है अध्यात्म। ईश्वर अर्थात अपने अंतःकरण के करीब रहना ही अध्यात्म है। अध्यात्म की दृष्टि बहुत ही व्यापक होती है। अध्यात्म आपको दुनियावी अर्थात भौतिक दुनिया तक से सीमित रहने से बाहर रखती है, क्योंकि हमारी भौतिक दुनिया ही बहुत सीमित है। अध्यात्म में होने से आप मन और अंतः करण में फर्क को समझ सकते हैं। मन अस्थिर और चंचल होती है; अंतःकरण स्थिर, स्वीकारवादी और गैर-प्रतिक्रियावादी होती है। मन अवसरवादी होता है जबकि अंतःकरण तटस्थ। अंतःकरण को बाहरी दुनिया से कोई लेना-देना नहीं होता है। अंतःकरण नितांत निरापद है। मन कई बार केवल अपनी सहचर इन्द्रियों की सुनता है और इसका लक्ष्य इन्द्रिय तृप्ति तक ही सिमट कर रह जाता है।
कई बार धर्म और धार्मिक ग्रंथों को लेकर टिका-टिप्पणी और आलोचना की जाती है, इन्हें काल्पनिक और अप्रचलित घोषित करने की होड़ मचायी जाती है जो कि अनावश्यक है। सत्य अथवा असत्य के चक्कर में न पड़कर धार्मिक ग्रंथों को इस रूप में देखने की जरूरत है कि इसके जरिये मानव सभ्यता को क्या देने की कोशिश की गई है। उस समय की पीढ़ी ने अपने अंतःकरण से अर्जित ज्ञान को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने का माध्यम धार्मिक ग्रंथों को बनाया है। ऐसे ग्रंथ आज भी इसलिए प्रचलित हैं क्योंकि इसके अंदर के ज्ञान और विषय आज भी प्रासंगिक बने हुई है। समय-समय पर कुत्सित विचारकों ने अपने पूर्वाग्रहों और निहित स्वार्थ साधने के लिए उसमें अपने हिसाब से परिवर्तन किये होंगे और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है और इसके आधार पर इसे नकारना अपनी संकीर्णता और लघुता को प्रदर्शित करना है।
मुझे गोड्डा पोस्टिंग के दौरान बुद्ध शरण हंस को पढ़ने का अवसर हाथ लगा, वह अनु सूचित जाति से आते थे और आईएएस बनने तक के अनुभवों को उन्होंने प्रकाशित किया है; उनका अनुभव द्रवित करने वाला है। उनकी रचनायें ऐसी जान पड़ी जैसा मैं सोचता था। उन्हें कदम-कदम पर किस तरह धर्म और ईश्वर के नाम पर उत्पीड़न झेलना पड़ा वह व्यथित करने वाला है। उनकी रचनाओं का लब्बोलुबाब भी लगभग वही था कि कोई भी रीति-रिवाज तब तक त्याज्य है जबतक कि उससे, उसे करने वालों की बेहतरी नहीं होती हो। जबकि किसी रीति-रिवाज से, किसी प्रथा से, किसी परंपरा से किनकी बेहतरी होती है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। बहरहाल मैं उनकी रचनाओं से इस कदर प्रभावित हुआ कि खुद को नास्तिक कहने और कहलाने में गर्व महसूस होने लगा था। मैं कई बार लोगों से तर्क तक कर लेता था कि इस दुनिया में न तो भूत हैं और न भगवान।
एक बार मैं इंजीनियरों के दल के साथ कहीं जा रहा था उस गाड़ी में मेरे कार्यपालक अभियंता भी बैठे थे। मैंने ऐसे-ऐसे तर्क गढ़े कि एक कट्टर धार्मिक सहायक अभियंता को यहाँ तक कहना पड़ा कि आप तो ऐसा न कहते हैं कि मुझे पूजा करने छुड़वा दीजिएगा। मेरे तर्क आप भी जानिए जो मैं इस्तेमाल किया करता था:
1. सिर्फ वैसे ही जगहों पर भगवान क्यों पाए जाते हैं जहाँ मनुष्य गए होते हैं।
2. भगवान होने के कोई साक्ष्य वहाँ क्यों नहीं मिलते जहाँ मनुष्य नहीं पहुंचे होते हैं।
3. सिर्फ मनुष्यों के ईश्वर होते हैं कि अन्य जीवों जैसे जानवरों के भी ईश्वर होते हैं। और अगर होते हैं तो वह अपने ईश्वर के लिए कहाँ परेशान रहते हैं।
4. प्रायः आस्तिकता सुख और ऐश्वर्य से ही क्यों जुड़ा हुआ होता है। गरीबों, वंचितों, शोषितों के ईश्वर उन्हें हाशिये से क्यों बाहर नहीं निकाल पाते हैं।
5. मनुष्य जब सभ्य हो रहा था और संघर्ष के दौर में था, जद्दोजहद कर रहा था उस समय ईश्वरीय शक्तियाँ कहाँ रह गई थी।
6. जब लोग सभ्य नहीं बने थे और उनकी भाषा भी विकसित नहीं हुई थी तो धर्म और धर्मग्रंथ कहाँ से आ गये। वगैरह-वगैरह।
7. पूजा-पाठ से अगर पुण्य मिलता है और उससे हमारा भविष्य ठीक होता है तो हमारे पूर्वजों के पुण्य का लाभ हमें क्यों नहीं मिलता है।
कुल मिलाकर अनर्गल तर्क और प्रलाप मुझे आकंठ दबाये हुए था। हालांकि यह पूरी तरह से अतार्किक नहीं कहा जा सकता है पर लोग-बाग और घरवाले भी धीरे-धीरे मानने लगे थे कि मेरा कुछ नहीं हो सकता है। एक बार ऐसे ही व्हाट्सअप में ग्रुप में तर्क करते-करते कुछ लोग जब धर्म का दंभ भरकर खुद को इसका स्वयंभु प्रतिनिधि घोषित करने पर तुले थे तो मैंने दहाड़ कर कह दिया कि मैं अखंड नास्तिक हूँ, इससे उस ग्रुप में भयानक भूचाल आ गया। न रहेगा ईश्वर न कोई उसके नाम का दंभ भरेगा। धर्म और ईश्वर की आड़ में किसी को अपना निहित स्वार्थ साधते देखना मुझे अस्वीकार्य था। कहना न होगा कि वे धर्म पर अपने पकड़ और प्रभाव की आड़ लेकर अपनी श्रेष्ठता बघारने की फिराक में रहते थे। धर्म की आड़ में कुछ दंभी तो अपनी विचारधारा का रायता फैलाने की भारी-भरकम मंशा रखते हैं, जो अंततः धर्म का नुकसान कर रहे होते हैं। मेरे जीवन में ऐसे अनुभवों की फेहरिस्त लंबी रही है।
मेरे घर में लक्ष्मी पूजा होती थी पंडित जी आकर लक्ष्मी पूजा कराते थे। एक बार पंडित जी ने सिर्फ नीचा दिखाने के लिए हमसे खुब खुशामद करवाया और पूजा कराने अंत तक नहीं आया, पूजा कराने के लिए मेरे बड़े भाई उपवास किये हुए थे। थक हारकर उसने खुद से पूजा कर ली और भोजन ग्रहण किया। मैंने आगे पंडित जी से लक्ष्मी पूजा करवानी ही बंद करवा दी और खुद से ही पूजा करने लगा। 2012 की बात है मेरे पिता का श्राद्ध था और भोज के दौरान कुछ अभिजात्य कहलाने वालों ने भोजन परोसने वाले के छोटी जाति के होने के नाम पर उँगली उठानी चाही और बवाल काटा। मैंने दो टूक कह दिया जिसे समझ में आता हो वह भोजन करें अथवा हमें माफ करें, लेकिन जाति प्रमाण पत्र लेकर हम किसी को खाना बनाने या परोसने नहीं कह सकते हैं। मैंने कुछ ऐसे पूजा और कार्यक्रम देखे जिसमें प्रसाद वितरण के नाम पर सिर्फ एक समुदाय विशेष के लोगों को भोजन कराया जाता था। इन सब बातों से पहले मैं बहुत आहत रहता था और इसके लिए मेरे द्वारा धर्म और ईश्वर को दोषी ठहराया जाता था। लेकिन यह सब के पीछे मेरी प्रतिरोधी भावना काम कर रही हो सकती थी।
फिर एक समय आया जब मैं सोशल मीडिया जैसे अन्य प्लेट फार्म की वजह से आचार्य प्रशांत, स्वामी प्रेमानंद महाराज और इस्कॉन के अमोघ लीला प्रभु के विचारों से सामना हुआ। और मुझे धर्म, ईश्वर और अध्यात्म पर अधिक विस्तार से जानने और समझने का अवसर मिला और इनको लेकर मेरी सोच बदल गई। धर्म को एक तरफ रखिये फिर भी आप देखेंगे कि इस्कॉन जैसी संस्था कितनी अनुकरणीय है, समाज और दुनिया को कितना योगदान कर रही है। इस्कॉन को आप केवल समझ पाएं तो आपका जीवन व्यभिचार मुक्त हो जाएगा। इस्कॉन जैसी संस्थाएं आपके जीवन में मूल्यों का संचार कर सकती है। इस्कॉन क्या नहीं सिखाता है, नशा, मांसाहार और व्यभिचार से मुक्ति, अंधविश्वास और भेदभाव से मुक्ति, प्रसादम, आनंदम, सदाचारी जीवन और ईश्वर का सुमिरन। इसी को तो जीवन की शांति कहते हैं। विषय और वासना तो मन को कमजोर करती है उसमें शांति नहीं मिल सकती है।
अब रामलला विराजमान पर। आज का दिन बहुत शुभ है अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हो गई है। यह शुभ संकेत है। मैं मानता हूँ कि आज का दिन हमारी दुनिया की आध्यात्मिक प्रगति का दिन है। आपने जो अंतःकरण में आदर्श पुरुष की जो छवि बना रखी है वह कैसा होगी- त्यागी, आज्ञाकारी, शीलवान, पराक्रमी, न्यायप्रिय, सर्वमान्य, मूल्यों से पूर्ण वही तो राम हैं।।
-पुरुषोत्तम (तिथि 22 जनवरी 2024)
(यह लेख मेरे निजी विचारों को प्रतिबिंबित करते हैं।)