अमीना.
लखनऊ, नवाबों का शहर। बिहार के वारसलीगंज का एक परिवार अपनी आजीविका के लिए यहाँ बस गया था। अनवर कपड़े के दुकान में काम करता और हमीदा दो कमरों वाले मकान की आगे वाली हिस्से में फूलों की दुकान चलाती थी। मियां-बीबी दिन भर अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते। व्यस्त न रहते तो क्या करते, उनकी साझा मेहनत से भी गृहस्थी की गाड़ी बमुश्किल चल पाती थी। घर में दो बच्चे और शहर की जिंदगी। और साथ में थी बूढ़ी माँ, अमीना।
दसवीं के इम्तिहान के बाद अनवर ने अपने बेटे अहमद को काॅलेज के पास कमरा लेकर पढ़ने भेज दिया। कमरा लेकर रहेगा तो पढ़ाई का ख्याल करेगा। नहीं तो दिन भर खेल और मटरगश्ती। शहर में रहकर भी न पढ़ सका तो आदमी कैसे बनेगा। पहले अहमद दोपहर का खाना अब्बा को पहुँचा जाता था। लेकिन बेटे के काॅलेज चले जाने से अनवर मियां को दिक्कत हो गई कि अब उसका खाना कौन पहुँचाए। बड़ी मिन्नतें कीं तो जुबैर लौटते वक्त उसका खाना लेे आने को मान गया। जुबैर उसके दुकान में ही काम करता था और उसका घर अनवर के डेरे से पास में ही था।
जुबैर खाना लेने जब अपनी साइकिल फूलों की दुकान पर रोकी तो हमीदा अंदर थी। वह भाभीजान-भाभीजान पुकारता हुआ परदे के अंदर झांका तो बूढ़ी अमीना को देखकर तरस खाए बगैर न रह सका। वजनी शरीर और थुलथुल काया, नीचे जमीन पर पैर फैलाकर दीवार के सहारे बैठी हुई। चलने-फिरने से लाचार जान पड़ती थी। बुढ़िया रूखे भाव से दरवाजे की ओर देखी और कराहते हुए ही कहा- “हमीदा, जुबैर आया है उसे अनवर का खाना दे दे, पुकार रहा है।
“जुबैर, तेरा घर मजार वाली गली में ही है, न?“ अमीना ने कराहते हुए ही जुबैर से पूछा।
“हाँ खाला।”
“बेटा तुम कभी वारसलीगंज गए हो। बिहार की ट्रेन कब जाती है, तुम्हें पता है?”
“नहीं खाला, मैं कभी वहाँ नहीं गया।”
“मैं कहते-कहते थक गया इन सब को, कोई मुझे घर पहुँचा दो, कोई मुझे ले ही नहीं जाता है। मेरा घर है वहाँ, कबसे कहती हूँ कि मुझको घर जाना है, मुझे कोई नहीं ले जाता है। वहाँ मुनिया और कल्लो की शादी हो गई होगी, लड़के-बच्चों की अक्ल-दाढ़ निकल रही होगी, कबसे किसी को नहीं देखी और बरसों हो गए सबसे मिले और बातें किये।” अमीना की बातों से जान पड़ा उसकी ना-उमीदी कोई दो-चार दिनों की नहीं थी।
हमीदा अनवर के लिए टिफीन दे जुबैर से कहती है- “भैया अम्मा की बातों पर ध्यान मत दो नहीं तो समय जाया करा देगी। दिन भर ऐसे ही बकते रहती है, आते-जाते सबसे कहती है कि मुझे घर पहुँचा दो। बताइए इसे कैसे घर पहुँचा दें, वहाँ कोई अपना नहीं है और उसपर यह चल-फिर नहीं पाती है। और भैया तुम तो शहर की जिंदगी जानते ही हो। यहाँ लगे न रहें तो गुजारा कितना मुश्किल है।”
जुबैर भला क्या कहता वह टिफीन लिया और दुकान के लिए निकल गया। अब ये रोज-का सा हो गया। जुबैर आता और अमीना बी शुरू हो जाती। जुबैर को बुढ़िया पर दया आती पर क्या ही करे। अनवर मियाँ की स्थिति भी कुछ वैसी नहीं थी। एक दिन के लिए अनवर कहीं चला जाए तो दुकान बंद समझो। फिर यही उसकी रोजी थी। अगर मनमानी कर अम्मा को साथ ले घर चला भी जाए तो खुदा न करे मालिक उसके जगह पर दूसरा आदमी ही रख ले, फिर तो बेचारे पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ता।
एक दिन जुबैर ऐसे ही खाना लेने के लिए पहुँचा तो हमीदा घर पर नहीं थी। स्कूल से खबर आया कि बच्ची की तबीयत नासाज है और वह उसे लेने स्कूल चली गई थी। जुबैर ने उस दिन अम्मा को पहली बार चलते देखा। थुलथुल शरीर लिए बड़ी मुश्किल से उठकर वह दीवारों के सहारे किचन तक गई फिर उतनी ही तकलीफ से दीवार पकड़ते आई और खाना जुबैर को दिया।
“बेटा जुबैर, मुझे घर की बहुत याद आती है। यहाँ आकर तो बंध गई हूँ मैं, मुझे नहीं पता खुदा के पास जाने से पहले घर जा पाऊँगी या नहीं। मेरे घर में वहाँ पर कुआं है और कुएं के पास ही मेरी सब्जियों की क्यारी लगी है, अब के सीजन में तो पालक, सरसों, चना मैं खुद से उगा लेती थी। वहाँ अहमद सारा दिन बैर के पेड़ पर चढ़ा रहता था या तो बकरियों के साथ। पर जरूरत पड़ने पर मेरी मदद भी करता था। क्यारियों को पानी देने का जिम्मा उसी का था। इतनी साग-सब्जी होती थी कि पड़ोसियों को बांट दिया करती थी। पड़ोसी भी खूब भले, जान छिड़कते हैं हमपर। लेकिन मैं अभागी अनवर के अब्बा का इंतकाल हुआ और मैं भी कुएं की फिसलन में जो गिरी की अभी तक उठ नहीं पाई हूँ। अनवर अकेली जान ने बहुत किया। मैं उसको दोष नहीं देती। लेकिन क्या करूँ, मेरा जी है कि वहीं गांव में घर के कुएं के पास लगा पड़ा है। बेटा जुबैर तु ले चलेगा मुझे मेरे घर। एक बार पड़ोसियों से जी भर बात कर लूँ, फिर जो अल्लाह की मर्जी। मुझे तो यहाँ रहने की एक जरा इच्छा नहीं होती लेकिन क्या करूँ, लाचार जो ठहरी।”
जुबैर ने पूछ लिया- “खाला वारसलीगंज चली जाएगी तो खाना क्या खाएगी।“
अमीना- “नहीं बेटा यहाँ ही पड़े-पड़े शरीर जंग खा गया है, वहाँ जाते ही बिलकुल ठीक हो जाऊंगी। अपना घर है, रूखी-सूखी भी खा लूंगी तो जायका हो जाएगा। फिर बेटा मेरे मुहल्ले वाले इतने गए-गुजरे नहीं हैं कि वे इस बुढ़िया को भूखा छोड़ देंगे।”
जुबैर को भी उस बुढ़िया के प्रति हमदर्दी-सी हो गई लेकिन दूसरे ही पल उसका दिल बैठ गया। वह भली-भांति जानता था कि अनवर मियां को यहाँ खांसने की भी फुरसत नहीं है और हमीदा पर पूरे घर का दारोमदार है। बच्चा पहले ही बाहर पढ़ने निकल गया है और उसके देखभाल का जिम्मा अलग आन पड़ा है। सबसे फुरसत हो भी जाए तो इस आधी शरीर को कैसे ढोकर ले जाया जाए। और पैसे? जितने पैसे चाहिए उतने में तो हमीदा कई महीने घर चला ले। जुबैर ने मन-ही-मन अल्लाह को याद किया और दुआएं कीं कि इस बुढ़िया की ख्वाहिश पूरी हो जाए और वह किसी तरह करके एक बार अपने घर हो आए।
जुबैर अगले दिन का खाना लेने के लिए अनवर के मकान की ओर साइकिल मोड़ना चाहा तो भी नहीं मोड़ पाया। वह अमीना के दुःख से इस कदर बोझिल हो उठा था कि बुढ़िया के सामने आने तक से तौबा कर लिया। उसने जाकर अनवर से माफी मांग ली।
इस बात को गुजरे कई साल हो गए। जुबैर जिस दुकान पर अनवर के साथ काम करता था वहाँ काम करना छोड़ दिया था। जुबैर अब गद्दी में काम करता था और उस समय गद्दी से लौटकर दिन भर की थकान दूर करने के लिए लेटा ही था कि अनवर मियां ने दरवाजे पर दस्तक दी।
“सलाम आलेकुम जुबैर मियां।”
“अरे अनवर भाई साहब, आलेकुम सलाम।”
“कैसे हो मियां, कहां काम हो रहा है आजकल।”
“सब खैरियत है भाई साहब मैं अभी खान साहब की गद्दी में काम कर रहा हूँ, अल्लाह का फजल है दाल रोटी चल रही है। भाभी जान और बच्चे कैसे हैं और.....” जुबैर कुछ और कहना चाहा लेकिन खुद को रोक लिया।
“वहाँ भी सब खैरियत है, सुनो मैं तुम्हें दावत देने आया हूँ अहमद की शादी है। शादी घर से कर रहा हूँ। थोड़ी दूर है पर तुमको परिवार के साथ आना है। अम्मी और हमीदा ने खासकर तुमको बुलाया है।”
“अम्मीजान की सेहत ठीक है।” जुबैर मानो चहक उठा।
“हाँ भाई बिलकुल ठीक है और अम्मी पूरे चौदह साल के बाद घर जा रही है।”
“रामजी भी चौदह साल बाद अयोध्या लौटे थे।”
“शायद यह भी खुदा की मर्जी हो। मैं मानता हूँ कि बुजुर्ग को उनके घर और माटी से दूर करना सही नहीं है, लेकिन मैं क्या करता मियां।”
“आपने तो बहुत किया भाईजान, नहीं तो अब के लोग बुजुर्गों को उसके हाल पर छोड़कर किनारा कर लेते हैं। आप अम्मीजान से कहीएगा जुबैर जरूर आएगा और सब काम छोड़कर आएगा।”
जुबैर शादी के घर में पहुँचकर दरवाजे पर बैठा ही था कि एक बुढ़िया तेज कदमों से भागती हुई उसके पास आई और आकर सामने से उसके दोनों गालों को अपनी हथेलियों से ढक दिया। वह पहचान में नहीं आती थी। पर चेहरा देखा-देखा सा मालूम होता था। बिलकुल दुबली-पतली लेकिन चाल में चंचलता भरी हुई।
“बेटा जुबैर तुम आ गए मेरी सारी आरजू पूरी हो गई। अल्लाह तुमको खूब बरकत दे, लम्बी उम्र दे। बेटा मैं यहां आ गई मेरी मुराद पूरी हो गई। लेकिन तुमने इस बुढ़िया को पहचाना नहीं, मैं अहमद की कुबड़ी दादी।”
“खाला ऐसा न कहो खाला, मैं तुमको न पहचानूं, ये भला कैसे हो सकता है। मैं जबसे यहां आया हूँ तबसे मेरी नजरें तुझे ही ढूंढ रही है। तुम बहुत दुबली हो गई लेकिन ये क्या खाला अपने घर आते ही हिरण हो गई हो तुम?”
“सब ऊपरवाले की मर्जी है बेटा। तू तो मेरे लिए अनवर की तरह है और मैं तुम्हारे लिए भी रब से दुआएं मांगती हूँ।”
जुबैर मियां की मुराद तो रब ने पहले ही पूरी कर दी थी। दूर ड्योढ़ी पर ढोल की थाप पर खवातीनें सोहर गा रही थीं- “मुझे मिल गया बहाना तेरी दीद का, कैसी खुशी लेके आया चाँद.....” और कुल्हे पर हाथ धरकर नाचती हुई अमीना बुढ़िया सही में हिरण हुए जा रही थी।
अपने घर में पोते की शादी देखकर लखनऊ लौटी अमीना बुढ़िया महीने-भर में ही अल्लाह को प्यारी हो गई। खुदा ने जैसे उसे आखिरी बार उसका घर और उसके अपनों को देखने तक का मोहलत दिया हुआ था।
-- पुरूषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)