”नेहा“
अनुमंडल से कोई बारह किलोमीटर दूर, संथाल की पठार का एक गाँव कमलपुर। गाँव नहीं देहात, भोले-भाले, खेती-किसानी करने वाले लोग। अनपढ़ों की पिछड़ी बस्ती। बस्ती पिछड़ी भली लेकिन सपने आसमान में उड़ने के; अपनी कमजोर और नन्ही ही सही, पंखों के सहारे। इसी बस्ती में गरीब परिवार में जोड़ी भर आँखों में ऐसे ही हजारों सपनों ने जन्म लिया था। नाम था ‘नेहा’। नेहा पाँच भाई बहनों में दूसरे नंबर पर थी पर जिम्मेदारी उठाने में अव्वल। घर के सारे काम देखती ही, माँ का भी हाथ बंटाती और अपनी पढ़ाई भी पूरी करती जाती। उसकी लगन ने मैट्रीक परीक्षा में उसे प्रथम स्थान दिला दिया था। सफलता ने उसके सपनों में हौसले भर दिये थे। उसने तय किया कि पढ़ाई के साथ कुछ और भी सोचा जाये। उसके नजर में पड़ी एएनएम की ट्रेनिंग। सोचा तो यही था कि इसके जरिये नए रास्ते मिलेंगे और परिवार की मदद भी हो पाएगी। उसने अपने कस्बे में रहकर ही एएनएम की ट्रेनिंग का निश्चय लिया। अपने कस्बे से बारह किलोमीटर दूरी तय करके ट्रेनिंग करना लड़कियों के लिए आसान नहीं था, तिस पर घर का काम और छोटे-भाई बहनों की देखभाल भी। लेकिन उसके सपनों के आगे ये सब असहज नहीं था।
लेकिन जैसा कि विकासशील देश के गाँवों में होता है कि लड़की के पंद्रह-सोलह पार करते ही उसके घरवालों को चिंता सताने लगती है कि कोई अच्छा लड़का मिल जाये और उसकी लड़की का निबाह हो जाये। फिर एक नहीं चार-चार लड़कियों का बोझ भी तो अभिभावकों की रात की नींद उड़ाता ही था।
लड़के वालों ने लड़की में लगनशीलता देखी और एक बार में ही रिश्ता पक्का कर लिया लेकिन साथ ही पढ़ाई या शादी दोनों में से किसी एक को चुनने की शर्त भी रख दी गई। लड़की शादी करके नए घर में आ गई। अच्छा पहलू ये था कि नेहा का होनेवाला पति भी उसके एएनएम ट्रेनिंग स्कूल के शहर में ही कहीं सेल्स का काम करता था। धीरे-धीरे उसने अपने सास-ससुर को मनाने में सफलता पा ली कि पति-पत्नी दोनों शहर में रहेंगे तो पति की देखभाल भी हो जाएगी और रोज-रोज आने-जाने का झंझट भी नहीं रहेगा। और इस तरह बचा हुआ समय एएनएम में दे पाएगी और आगे घर का सहारा भी हो जाएगा। सास-ससुर को यह विचार पसंद आया। और इस तरह लगनशील सपनों को आगे के रास्ते में रोशनी की किरण दिख पड़ी।
लगनशीलता ने ज्यादा इंतजार नहीं कराया नेहा ने न सिर्फ एएनएम की ट्रेनिंग सफलता पूर्वक पूरी की बल्कि वहीं पास के गिरगिटीया अस्पताल में उसे नर्स की नौकरी भी मिल गई। बहु की इस सफलता पर ससुराल वालों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। मायकेवाले भी फूले नहीं समा रहे थे।
सभी कुछ अच्छा ही चल रहा था पर ससुराल में घर वाले दंपति को बच्चे की खुशी देने को कहने लगे थे। शादी हो गई, लड़की की पढ़ाई हो गई, नौकरी लग गई; बस अब जल्दी गोद भर जाये। घर के बड़ों के मन में होता ही है कि वे जितनी जल्दी हो सके अपने पोते-पोतियों, नाते-नातियों को देख ले और तभी तो दुनिया खुशहाल लगती है।
नेहा जिस अस्पताल में नर्स का काम करती थी, जल्द ही अपनी मेहनत और लगन से वहाँ के मैनेजमेंट, डॉक्टर और साथी स्टॉफ का दिल जीत लिया। पेशेंट के परिवार वाले भी उसकी तिमारदारी से बहुत प्रसन्न रहते और दुआएँ देते। लेकिन इधर कुछ दिनों से खुद नेहा को पेट में लगातार अजीब किस्म का दर्द हो रहा था। जब उससे ये दर्द सहा नहीं जाने लगा तो उसने ये बात अपने पति को बताई। घरवालों ने बहु के दर्द को शुभ-संकेत ही समझा और उसे चेक कराने की सलाह दी। परन्तु जब वह अपने पति के साथ अपने ही अस्पताल में खुद का चेक-अप करायी तो बात कुछ और निकली। नेहा के पेट में ये दर्द अपेंडिक्स की वजह से हो रहा था। घर वालों की ही सलाह पर नेहा ने अपेंडिक्स का ऑपरेशन अपने ही अस्पताल में करा लिया और यह ऑपरेशन सफल रहा था। परीजनों ने ऑपरेशन की सफलता के लिए मैनेजमेंट और डॉक्टर की भूरी-भूरी प्रशंसा की, जैसा कि सीधे-साधे लोग अकसर करते हैं।
ऑपरेशन के छः महीने बीत रहे थे और घर में संतान को लेकर वधु से अपेक्षा पहले की तरह हो चली। अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुए कुछ ही दिन बीता था कि एक बार फिर नेहा के पेट में दर्द रहने लगा था और इसबार ये दर्द पहले से कहीं ज्यादा तीव्र था। जब जांच हुई तो रिपोर्ट देखकर डॉक्टरों ने नेहा को बताया कि उसके गॉल ब्लाडर में सिस्ट डेवलप हो गया है जिसे कोलोडिकल सिस्ट कहते हैं। डॉक्टरों का ये भी कहना था कि सिस्ट को जबतक रिमूव नहीं किया जाता है तबतक दर्द बना रहेगा और यह सिस्ट सिर्फ ओपेन सर्जरी के द्वारा ही निकालना संभव है, लेप्रोस्कॉपिक से नहीं। गिरगिटीया के डॉक्टरों ने घरवालों को कहा कि इस बारे में कहीं भी और सलाह चाहे तो ले सकते हैं। कम अनुभवी घरवालों ने अपने समझ का इस्तेमाल करके इधर-उधर से जानकारी जुटायी तो दूसरे जगहों के डॉक्टरों ने भी वही बात दोहरायी कि कोलोडिकल सिस्ट के केस में ओपेन सर्जरी ही एकमात्र रास्ता है। जिसके लिए उन संस्थानों ने फीस की एक मोटी रकम बतायी और इतनी बड़ी रकम सुन घरवाले पशोपेश में पड़ जाते थे।
नेहा जब अस्पताल में ड्युटि कर ही रही थी तो सहायक के रूप में डॉक्टर से रोज मुलाकात होती। डॉक्टर ने उससे कहा कि तुम ये ऑपरेशन करालो नहीं तो आगे चलकर कैंसर का खतरा है। डॉक्टर की बात पर नेहा भीतर तक डर गई और घर में बिना ज्यादा चर्चा के अपने ही अस्पताल से ओपेन सर्जरी कराने का मन बना लिया। और यही उसकी बदकिस्मती साबित हुई।
नेहा ने ही अपने घरवालों को कहा कि जब उसका ओपेन सर्जरी ही होना है तब दूसरे जगहों से अच्छा यह अपना अस्पताल है। डॉक्टर साहब कितने भले हैं, उन्होंने कहा है कि वो यह ऑपरेशन कर लेंगे, कोई दिक्कत नहीं आएगी। फिर वह तो उस हॉस्पिटल का अपना स्टॉफ है, डॉक्टर या मैनेजमेंट उसके साथ कोई गलत नहीं करेंगे। नेहा को उस वक्त कहाँ पता था कि जो बात वह अपनी सर्जरी के लिए कह रही है कल होकर उसपर आफत की तरह टूटनेवाली है।
उस वक्त तक भली-चंगी नेहा अपने भविष्य के सुनहले सपने लिए अपने ही हॉस्पिटल में भर्ती हो गई। दो घंटे का ऑपरेशन जब पांच-पांच घंटे तक चलता रहा तो घरवालों की चिंता बढ़ाने लगी। छः घंटे बीत जाने के बाद डॉक्टर पसीने से लथ-पथ, बिलकुल परेशान हालत में ऑपरेशन थियेटर से निकला और उसके निकलते ही घरवालों ने घेर लिया और जानना चाहा कि सब ठीक तो है न। डॉक्टर ने टॉवल से अपना पसीना पोछते हुए कहा कि ‘वैसे तो सब ठीक है लेकिन पेशेंट को थोड़ा ब्लीडिंग हो गया है पर स्थिति नियंत्रण में है।’ घरवालों को उस घड़ी डॉक्टर के मुंह से नेहा के लिए ‘पेशेंट’ सुनना थोड़ा अजीब लगा था लेकिन उन्होंने डॉक्टर की बातों पर विश्वास किया। कमजोर लोग सुनने के अलावा कर भी क्या सकते थे।
डॉक्टर ने उस दिन के सारे ऑपरेशन रद्द कर दिये। और रात को मैनेजमेंट से बात किया। उनकी बातों से लग रहा था कि वे अपने पर आनेवाले किसी संकट से निपटने के लिए, किसी मासूम को संकट में डालने का विकल्प चुन लिया गया हो। ऑपरेशन के बाद नेहा की हालत दिन-प्रतिदिन नाजुक होती जा रही थी। अपने जिगर के टुकड़े को खतरे से बाहर देखने को परिवार वाले व्याकुल हो चले थे। लेकिन उन्हें हर दिन वही रटा-रटाया शब्द सुना दिया जाता था ‘पेशेंट को ऑपरेशन सेट होने में कुछ और वक्त लगेगा। हमलोग स्तिथि पर नजर रखे हुए हैं। कोई बात होगी तो बता दिया जाएगा।’ गार्जियन पूछते भी कि दो-पाँच लाख खर्च करके क्या पेशेंट में सुधार हो सकता है, हमलोग घर-बार बेचकर जुगाड़ कर लेंगे। लेकिन जवाब वही था- ‘अभी वैसी जरूरत नहीं है, स्थिति मेरे कंट्रोल में है।’
लेकिन न तो कोई बात कभी बतायी जाती और न नेहा की हालत में सुधार हो रहा था। पंद्रह दिनों तक नेहा अपने ही हॉस्पिटल के आईसीयू में तबतक रही जब तक कि उसका ब्लीडिंग लगातार होते रहना बंद नहीं होने लगा। परिजनों ने भागकर डॉक्टर से संपर्क किया तो डॉक्टर ने कहा कि ‘पेशेंट का जीन अलग तरह का है जो ऑपरेशन को सेट नहीं होने दे रहा है। किसी-किसी-में ऐसा होता है। पेशेंट क्रीटिकल है और ऐसे में हम कुछ नहीं कर सकते हैं।’
माता-पिता, पति किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था, सभी आवाक और सुन्न पड़ गये थे। लेकिन एक मामा जो पढ़े-लिखे थे वह बिफर पड़े- ‘क्या मतलब कुछ नहीं कर सकते? कुछ नहीं कर सकते फिर आपने इतने दिनों तक इसे क्यों रखे रहा। आपने पहले कहा क्यों नहीं? अब हम बच्ची को कहाँ लेकर जाएं और इतने पैसे हमें कौन देगा?’
‘पैसों का इंतजाम बॉस कर देंगे। आप फिलहाल इसको लेकर बाहर चल जाइये।’ अब बाहर लेकर जाने और कुछ होने का मतलब था कि बला टली।
‘कहाँ चले जाए?’
‘कलकत्ता चले जाईये।’
जिस हॉस्पिटल में पेशेंट एम्बुलेंस में आते और नेहा की तिमारदारी से स्वस्थ होकर लौटते, उसी हॉस्पिटल से नेहा नाजुक होकर एम्बुलेंस से निकली थी। जैसे-तैसे कलकत्ता पहुंचकर एक बड़े अस्पताल में गये तो प्राथमिक जांच के बाद डॉक्टरों ने बहुत देर के बाद लाया कहकर तुरंत ऑपरेशन के लिए पाँच लाख जमा करने को कहा। साथ ही यह भी कहा कि इससे पेशेंट की जान बच जाएगी इसकी गारंटी नहीं दे सकते। वे केवल अपने तरफ से प्रयास भर कर सकते हैं। जानकर परीजनों के पैरों तले से जैसे जमीन ही निकल गई। लेकिन उन्होंने सबसे पहले अपने पिछले हॉस्पिटल से बात की जिन्होंने पैसों का इंतजाम होने का आश्वासन दिया था। पिछले हॉस्पिटल के बॉस ने दो टूक कह दिया कि कलकत्ता में का मतलब बड़ा निजी अस्पताल के बारे में उसने तो नहीं कहा था। वहाँ सरकारी अस्पताल में ले जाना चाहिए था।
पहले ही से टूट चुके परिजन फौरन कलकत्ता सदर के सरकारी अस्पताल में ले गये। लेकिन तबतक नेहा अपने सपनों सहित इस दुनिया से दूर जा चुकी थी। पेशेंट के सारे रिपोर्टस और पेपर की जाँच के बाद डॉक्टरों की टीम सन्न रह गयी। उन्होंने बताया कि ऐसा कैसे? जिस डॉक्टर ने यह ऑपरेशन किया है उसे इस तरह का ऑपरेशन करने की न तो डिग्री थी और न ही कोई अनुभव था। उसकी ओटी शीट देखकर ही पता चलता है कि इस ऑपरेशन के दौरान उसे असिस्ट करने के लिए सिर्फ एक एनस्थिसीया एक्सपर्ट और एक कंपाउंडर ही था। इस टीम के सहारे यह ऑपरेशन अंजाम दिया ही नहीं जा सकता था।’ आगे डॉक्टर ने बताया कि ‘उस डॉक्टर को यह पता तक नहीं था कि कोलोडिकल सिस्ट के नीचे आर्टरीज भी गुजरती है जो उसने सर्जरी के दौरान काट तो दी लेकिन उसे जोड़ नहीं पाया, जिससे पेशेंट की ब्लीडिंग होती रही। सबसे बड़ी बात कि अगर उससे यह गलती हो गई थी तो न तो उसने और न ही मैनेजमेंट ने तत्काल कोई कदम उठाया। अगर कदम उठाया होता तो पेशेंट की जान बच सकती थी। और मुझे तो शक है कि उसने ऐसा सिर्फ इसलिए किया कि पेशेंट के कोलैप्स होने तक उसकी गलती पर पर्दा डला रह जाय। मैं डॉक्टरी के नोबल प्रोफेशन को बदनाम नहीं करना चाहता लेकिन यह कड़वा सच है। और जिसे उजागर नहीं करने का मतलब है कि इंसानियत के साथ खिलवाड़ होते रहने देना।’
इस तरह किसी मासूम के आँखों के सपने उसके किसी अपने की लापरवाही के भेंट चढ़ गए।
--पुरुषोत्तम
(एक घटना पर आधारित मेरी यह स्वरचित और मौलिक रचना है।)