जन्मो का संबंध.
सुरभि घर की दुलारी थी और हो भी क्यों न चार भाई-बहनों में सबसे छोटी जो थी। सभी उसपर लट्टू रहते थे। सारिका सबसे बड़ी, अभी हाल में उसकी शादी हुई थी। शादी के बाद जब से मायके आई थी तब-से ससुराल वाले जिद लगाये हुए थे कि बहु को भेजा दे। पहले तो लड़के वालों को लड़की पसंद कराने के लिए जमीन-आसमान एक करना पड़ता था, सौ-सौ एब निकाले जाते थे; लेकिन एक बार जो शादी हो जाए दुल्हन को दो-चार दिन भी मायके ठहरने देने में गैर लगता है। लेकिन दो-चार दिन करते-करते सारिका छः महीने से मायके में थी। माँ-पिताजी अब और कितना टाल-मटौल करते आखिर उन्हें बेटी को उसके ससुराल भेजने पर राजी होना पड़ा।
लेकिन सुरभि का क्या करे वह तो अपनी प्यारी दीदी जिसके साथ हर सुबह और शाम देखी थी, हर दोपहर और रात बतियाया करती थी वह दीदी को उससे दूर कहीं ओर भेजे जाने के नाम पर तुनक उठी थी। आखिर कर उसे माँ ने बड़ी दुलार से मनाया और कहा कि सब दिन के लिए थोड़े ही जा रही है और फिर जाने से पहले जीजाजी उसे शहर घुमाने ले जाएंगे और सिनेमा भी दिखाएंगे। सुरभि अब इतनी भी बच्ची नहीं थी कि न समझ पाए कि जो ससुराल चली जाए वह वहीं की होकर रह जाती है। लेकिन सिनेमा के नाम से सुरभि चहक उठी। किशोर हो रही सुरभि के मन में कब से था कि वह शहर जाकर सब के साथ सिनेमा देखे। और अभी तो शंकर टाकीज में सबसे सुपरहिट फिल्म लगी थी ‘मैंने प्यार किया’। दोनों बहनें छत पर बैठकर कबूतरों को दाना डालते हुए खुब जुगलबंदी करती- कबूतर जा-जा-जा, कबूतर जा-जा-जा, पहले प्यार की....।
बिदागरी की घड़ी आ गई थी लेकिन विदा कराने आया था प्रमोद का भाई प्रकाश। गुम-सुम प्रकाश आने के साथ भाभी के माता-पिता के चरण छुए और उसके कमरे में पलंग पर चुपचाप जाकर बैठ गया। न किसी से बोलना न बतियाना। प्रमोद जीजा को छुट्टी नहीं मिली तो उसके बदले उसके भाई को रस्म के लिए पठा दिया गया, अभी जो विदाई नहीं होती फिर शुभ दिन जल्दी नहीं था। सुरभि को न जाने क्यों अपने साथ हो रहे धोखे का अहसास हुआ। दीदी भी जा रही है और सिनेमा भी नहीं, जीजा के साथ घुमना फिरना भी नहीं। उसका किशोर मन प्रतिकार कर उठा। उसने न आव देखी न ताव। सीधा पहुँची प्रकाश के पास।
“तुम यहाँ आये हो दीदी के लिवाने न। जाओ सब के तरफ से मैं कहती हूँ कि दीदी तुम्हारे साथ नहीं जायेगी। भैया क्या बाबुल के पैर दबा रहा है जो तुमको भेज दिया।”
“प्रकाश के लिए यह बिलकुल अप्रत्याशित था। तीखे नैन नक्श के आगे उसकी जबान सटक कर रह गई।
“सुरभि क्यों बेचारे पर बरस रही है अभी तो आया है हाथ-पैर धोने के लिए पानी क्या देगी उलटे? थके-हारे बेचारा आकर अभी सुस्ताया भी नहीं है।” माँ ने पिछे से मुँहफट बेटी को झिड़की लगायी।
“माँ मैंने एक बार जो कह दिया तो कह दिया। दीदी इस अनबोले के साथ नहीं जाएगी बस।”
“दीदी नहीं वो तो तुझे लेने आया है बोलो तो तुम्हें भेज दूँ इसके साथ।”
“मैं जाऊँगी इस सुसुरमुंंहें के साथ? चेहरा भी देखा है इसने। सब मुझपर लगे पड़े हैं?” सुरभि पैर पटकते हुए जो कमरे के अंदर गई फिर बाहर न निकली। घरवाले भी उसके स्वभाव को जानते थे लिहाजा किसी ने उसे आगे कुछ नहीं कहा। सुरभि की दीदी सारिका अपने देवर के साथ ससुराल विदा हो गई। किस को पता था यह अनबन दोनों के लिए जन्मो का बंधन तय करने जा रही है?
सारिका के ससुराल से खुशखबरी थी कि बहु के माता-पिता नाना-नानी बनने वाले हैं और इसी महीने उसका प्रसव है। उसकी सास की तबीयत भी कुछ खास ठीक नहीं रहती थी सो खबर भिजवाया गया कि चंद दिनों के लिए किसी को भेज दे तो काम संभल जाये।
सुरभि के पिताजी सुरभि को दीदी के ससुराल पहुँचा आए। दीदी के माँ बनने की खबर से उपजती ममता उसके खिझ पर विजय प्राप्त करने में सफल रही थी। सुरभि दीदी घर का सारा काम करती, दीदी का ख्याल रखती। और उसका हाथ बटाने को प्रकाश भी अनवरत एक पैर पर खड़ा रहता। बस दानों में कभी बात नहीं होती। सुरभि उसकी दीदी के प्रति प्रकाश की सेवा भावना से द्रवित भी थी लेकिन वह भी क्या करती जबान के तीर तो कब के उसके जबान से निकल चुके थे और वापस नहीं हो सकते थे। दोनों अपने कर्तव्य पर अडिग रहे लेकिन बिना एक-दूसरे से एक भी शब्द बात किये। दीदी ने दोनों को समझाया भी, फिकरे भी कसे लेकिन दोनों अविचल। सुरभि ग्लानि में तो प्रकाश स्वाभिमान में। सारिका ने भी प्रयास छोड़ सब भगवान पर छोड़ दिया।
प्रमोद को बालक हुआ है जच्चा और बच्चा दोनों स्वस्थ हैं। घर में उत्सव और उत्साह का माहौल है। मुहल्ले में मिठाइयां बाँटी जा रही है। सुरभि ने बच्चा जब पहली बार दीदी की गोद में बड़े मनुहार से दिया तो दीदी ने उसी मनुहार से अपनी बहन को देखा और कहा- “देखी प्रकाश बेचारा कितनी मेहनत करता है दिन भर लगा रहता मेरे पिछे। वह किसी जनम का मेरा सगा भाई होगा। भाई से भी बढ़कर। लल्ला के आने की खुशी में तुम लोग पिछली बातें भूलकर आपस में बातें करो।”
“दीदी, अच्छा पक्ष ले रही हो अपने देवर का। पर मैंने उससे बातें करने से कब मना किया। जिस पिछली बात को तुम भूल जाने को कह रही हो न वह उसे तो संदूक में भर कर रखा हुआ है। फिर भी तुम कहती हो तो मैं ही कोशिश करती हूँ लेकिन वह मान जाएगा उसको देखकर तो ऐसा नहीं लगता।”
प्रकाश तभी उधर से गुजर रहा था तो सुरभि ने लल्ला को उसके गोद में देते हुए कहा- “लल्ला के चाचा ये लो संभालो अपने भतीजे को। अब तो ताऊ हो गये अब तो मुंह भरकर बात कर लो।“
प्रकाश ने सुरभि की ओर देखा भी नहीं, अपनी भाभी की ओर देखते हुए कहा “मेरा लल्ला है ही लाखों में एक लेकिन लल्ले को बुरा नहीं लगेगा कि उसका अनबोला चाचा एक हूर परी के दिन खराब करे।” इतना कहकर प्रकाश लल्ला को गोद में ले बाहर निकल गया।
“देखी दीदी, मैं न कहती थी कि मैं मान भी जाऊँ लेकिन तुम्हारा देवर नहीं पिघलेगा।” प्रकाश के शब्दों की टीस सुरभि क्षण भर भी न बर्दाश्त कर सकी।
“सुरभि देख रही हो न बातों के घाव जल्दी नहीं भरते। इसलिए इंसान को सोच-समझकर बोलना चाहिए। लेकिन कोई नहीं दिल की बात निकलनी जरूरी थी अब उसे भी हलका महसूस हो रहा होगा और जल्द तुम लोगों के बीच भी सब ठीक हो जाएगा।”
लल्ला को हुए महीने भर से ज्यादा हो गया है। देवर और बहन की तीमारदारी से सारिका तंदुरुस्त हो चली थी और घर के कामकाज खुद सम्हालने लगी थी। सुरभि भी घर लौटने को कई बार कह चुकी थी। यूँ भी पराये घर की बेटी को अपने काम के लिए ज्यादा दिन रोकना मुनासिब नहीं था। जब सुरभि लौटने को हुई तो सारिका ने प्रकाश को उसे घर पहुँचाने के लिए कहा। सफर में दोनों अकेले रहेंगे तो जल्दी सुलह हो जाएगी सारिका ने मन-ही-मन सोच रही थी।
ट्रेन सरपट दौड़ रही थी लेकिन दोनों मौन थे और ख्यालों का समुंदर उनके मन में लहरें उठा रही थी। सुरभि उस शख्स के साथ थी जो दो-तीन महीनों से उसके साथ हमसाये की तरह था, कभी कुछ नहीं बोला लेकिन उसकी छोटी-से-छोटी बात को बिना अभिव्यक्ति के न केवल समझता रहा बल्कि पूरी जिम्मेदारी के साथ कंधे-से-कंधा मिला उसके साथ खड़ा रहा। क्या मजाल कि उसने कोई चीज सोची हो और अगले पल उसके सामने लाकर न रख दी गई हो। लड़का है कि छठी इंद्रिय की खान। उसे लग रहा था कि सौम्य चेहरे वाले इस मजबूत शख्स के साथ अन्याय कर दिया गया हो। उसके मन में करुणा युक्त लावण्य हिंडौले मार उठी। इधर प्रकाश भी यह सोचकर मायूस हो रहा था कि पराये घर की बेटी उसके घर के काम संभालने में शिद्दत से लगी रही और वह कितना निष्ठुर निकला उसकी एक छोटी-सी गलती को बिसार न सका और सीधे मुंह उससे बात तक नहीं की। क्या उसका गुनाह वाकई इतना बड़ा था।
प्रकाश और सुरभि घर पहुंचे तो माँ ने सुरभि से कहा कि कल सुबह प्रकाश को बड़ी हाट के ठाकुर मंदिर में पूजा करवा लाए। प्रकाश दूसरी-तीसरी बार आया है और अभी तक कहीं निकलने का अवसर नहीं मिला है। कल सुरभि को देखने लड़के वाले भी आ रहे हैं। प्रकाश कल मेहमानों की परिचर्या कर परसों घर जा सकता है।
दोनों अपने-अपने कमरों में पड़े हुए हैं और ख्यालों में बेसुध भी। सब कुछ ठीक रहा तो अगले एक-दो महीनों में शादी उसके बाद दोनों अगली बार कब मिले कौन जाने। सहसा सुरभि को आभास हुआ कि यह दो-तीन महीनों का साथ अनायास नहीं था। उसने कुछ निश्चय किया और कागज पर दिल के उद्गार उकेर दिए और मोड़कर अपने पास रख लिया। अभी नहीं तो कभी और यह जताने का अवसर नहीं आएगा।
इधर प्रकाश को भी जान पड़ रहा था कि सुरभि से बात नहीं करने का जो पाप उसने किया है यही उसके प्रायश्चित का अवसर है। जाने फिर कब मुलाकात हो। हो भी तो फिर किस पराये घर की बनकर। लेकिन सुरभि के सामने से तो उसकी अपराधी जबान खुल न पायेगी। लिहाजा उसने भी कागज पर अपना अपराध बोध लिख कर रख दिया। अगली सुबह प्रेमियों की चाल में अलग चपलता थी, दोनों नहा-धो, तैयार हो देवी की मंदिर की ओर चल दिये। सुरभि ने सज्जा में पूजा के फूलों से एक कागज को ढक रखा था तो प्रकाश कुर्ते की जेब में। सुरभि जब देवी माँ को फूल अर्पित कर रही थी तो उसके चेहरे पर एक गजब आत्मविश्वास था, दृढ़ता थी। सभी मंदिरों की पूजा के बाद वह कुएँ के पास खड़ी थी और प्रकाश अब भी भगवान के दर पर अपनी पूजा में मगन था। सुरभि ने पड़ोस के बच्चे डुग्गू को मंदिर में देखा तो उसे बुलाकर एक कागज थमाते हुए कहा- “जाओ और मेरे साथ जो प्रकाश अंकल पूजा करने के लिए आए हैं उसे दे आ।” बालक आज्ञाकारी था वह मंदिर के दरवाजे से निकला तो उसके हाथ में भी कागज था।
“क्या हुआ डुग्गू, अंकल को कागज देने को कहा था।?”
“हाँ बुआ वो तो दे दिया, ये तो अंकल ने दूसरा कागज दिया है तुम्हें देने को कहा है।“
“मुझे??”
“हाँ, बुआ। और चाॅकलेट खाने के लिए पैसे भी दिये, मैं नहीं ले रहा था लेकिन अंकल ने जिद करके दे ही दिए।”
“और अंकल क्या कर रहे थे।”
“बुआ बताऊँगा तो तुम विश्वास नहीं करोगी वह शिवलिंग पकड़कर रो रहा था और शिवलिंग पर उसका आँसू टप-टप गिर रहा था, भला शिवलिंग पकड़कर कोई रोता है?”
“ठीक है डुग्गू तुम जाओ चाॅकलेट ले लो।”
“डुग्गू चहकता हुआ चाॅकलेट की दूकान की ओर भागा। सुरभि सोच रही थी भगवान भी न नहीं आते हैं तो किसी को अपना दूत बनाकर भेज देते हैं। और उसके लिए यह दूत बनकर आया था डुग्गू। सुरभि कुएँ के पीछे बड़े से बरगद के झुरमुट के पीछे जा कागज खोलकर पढ़ने लगी।
“सुरभि, मैं बहुत गंदा लड़का हूँ, बहुत घमंडी हूँ। मैं जानता हूँ मेरा यह अपराध क्षमा के काबिल नहीं है मैं कितना गुजरा हुआ हूँ, तुम इतने दिन मेरे लल्ला के लिए भाभी की सेवा की, माँ-बाबूजी की सेवा की और मैं मुंह में मेढ़क दबाये रहा। मैं इतना भी न समझ सका कि कोई अपनी बड़ी बहन के विछोह में कुछ बोल दे तो उसे दिल से लगाकर नहीं रखना चाहिए। लेकिन ईश्वर जानता है कि मैं तुम्हें कभी भूल नहीं पाऊँगा, हो सके तो मुझे क्षमा कर देना। मुझे तुमसे नजर मिलाने का भी हक नहीं। तुम्हारा प्रकाश।” सुरभि ने एक बार फिर पढ़ा- 'तुम्हारा प्रकाश'। फिर होंठों से बुदबुदायी “अनाड़ी कहीं का।”
थोड़ी देर में उसने किशोरवय प्रकाश को मंदिर से निकलते हुए देखा, उसे देखकर ही लग रहा था कि यह आदमी कहीं से बहुत रोकर, थक हार कर, अपना सब कुछ लुट-पिटाकर आ रहा है। होंठ सूखे हुए बाल खड़े और रूआंसा चेहरा। उसकी रोनी सुरत देखकर सुरभि ने मन-ही-मन में सोचा अब मुझे ही कुछ करना होगा।
सुरभि के घर में मेहमान आ गये हैं, मेहमानों ने चाय नाश्ता कर लिया है अब लड़की देखने की बारी है। तभी मेहमानों में से किसी न मगही पान की फरमाइश कर दी। सारिका के पिताजी को मेहमानों में व्यस्त देखकर माँ ने पड़ोसी को आवाज देते हुए कहा- “अरे छोटकी, डुग्गू को जरा भेजना तो, मेहमानों के लिए पान मंगवाना है।” इतना कहकर वह सुरभि को तैयार कराने के लिए चल दी। और जैसे ही सुरभि के कमरे में दाखिल हुई तो सुरभि ने माँ के पैरो को कसकर पकड़ लिया और पैरो से लगके बिलख कर रोने लगी। उसके आँसू उसकी ही माँ के पैरों को भिगोने लगे। माँ ने पूछा- “क्या हुआ बेटी अब तक तैयार नहीं हुई। और रो क्यों रही है कोई बात हो गई क्या?”
डुग्गू तभी दाखिल हुआ- “बड़ी मम्मी, जल्दी बताओ क्या लाना है, मुझे खेलने जाना है। और ये दीदी क्यों रो रही है, पहले तो प्रकाश अंकल मंदिर में रो रहे थे और अब ये दीदी रो रही है।”
ममता चौकन्नी हुई। प्रेम अंधा होता है लेकिन ममता चौकस। प्रेम में आदमी अपने को नुकसान पहुँचा ले सकता है लेकिन जिससे ममता हो जाये उसे किसी भी नुकसान पहुँचने की संभावना से भी दूर रखने की कुव्वत आ जाती है।
“क्या कहा, प्रकाश मंदिर में रो रहा था मगर क्यों?”
“मैं क्या जानूँ बड़ी मम्मी, दीदी से ही पूछ लो।” डुग्गू ने मासूमियत से जवाब दिया।
माँ ने तेवर सख्त करते हुए बेटी से पूछा- “सुरभि क्या डुग्गू सही कह रहा है, प्रकाश को तुमने फिर कुछ भला-बुरा कहा? और वह मंदिर में क्यों रो रहा था, उसकी तो रोने की उमर नहीं है। तुम बताती हो कि मैं प्रकाश से ही पूछ लूँ।”
सुरभि रोते-रोते ही जवाब देती है- “नहीं मम्मी प्रकाश तो मुझसे बात तक नहीं करता है और न मैं उससे बात करती हूँ। और मम्मी मुझे जो चाहे वह सजा दे दो लेकिन मुझे लड़की दिखाने मत भेजो मम्मी, मैं ये शादी नहीं कर सकती।”
“शादी नहीं कर सकती, अच्छा भला लड़का है खानदानी है। क्या किसी ने कुछ कर तो नहीं दिया तुम्हें, कहीं प्रकाश ने तो नहीं।”
“कैसी बात करती हो मम्मी वह तो अनबोला का अनबोला है बिलकुल, और उसमें तो कुछ बोलने तक कि तो हिम्मत बहुत है? अगर वह बोल पाता तो मुझे तेरे पैरो में गिरकर रोने की जरूरत क्यों पड़ती।”
“इसका मतलब तुम्हारे और प्रकाश के बीच में कुछ है जो तुम मुझे नहीं बताना चाहती हो!”
सुरभि कुछ कहती नहीं है सिर्फ माँ से लिपटकर रोते रहती है। माँ सुरभि के चेहरे को अपने हाथों से उठाकर देखती है, सहमी-सी हिरण की आँखें।” बेटी के आँसू देखकर माँ का दिल पिघल गया।
“भले तुम कुछ न बताओ पर माँ कि आँखों से कुछ छिपी नहीं रह सकती है। हमें प्रकाश से कोई आपत्ति नहीं बेटा वह तो गऊ है बिलकुल। लेकिन आज हमें न पता चलता तो अनर्थ हो जाता। तभी मैं जानूँ हमेशा सिंहनी की तरह दहाड़ने वाली शेरनी आज हिरण कैसे हो चली है। कोई नहीं बेटा हम तुम्हारे और तुम्हारे प्रेम के विरोधी नहीं हैं। और हाँ तुम्हें लड़की दिखाने जाने की भी जरूरत नहीं, मैं तुम्हारे पिताजी से कहे देती हूँ कि वह मेहमानों को लौटाये कि अभी लड़की शादी के लिये तैयार नहीं है।”
पिता ने जब जाना कि दोनों के बीच अब तक बात भी नहीं हुई और दोनों एक दूसरे के लिए रो रहे थे तो उन्होंने दोनों के अव्यक्त प्रेम पर इतना ही कहा कि इनके बीच जरूर किसी जनम का संबंध रहा होगा। सुरभि की प्रेम की अर्जी स्वीकार कर ली गई थी।
--पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)