एक सेर धान
अगहन के दिन थे, नंदलाल साव के खेतों में जड़हन धान की कटाई चल रही थी। फसल अच्छी झर रही थी। नंदलाल की घरवाली और बच्चे बहुत खुश थे। खुशी बढ़ जाने का कारण और भी था। महुआ के पेड़ के नीचे का, उपजाऊ जमीन को लेकर नंदलाल का लाला ठाकुर से कोर्ट में मामला चल रहा था और ठीक बुआई के समय में ही कोर्ट से नंदलाल को जमीन की डिग्री मिल गई थी। लाला ठाकुर ने कागज में हेर-फेर कर जमीन हड़पने में कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी थी। पर कोर्ट ने उसकी दलील न सुनी और जमीन की डिग्री मालिक नंदलाल साव के नाम से कर दी। लाला ठाकुर की सारी तिकड़म धरी-की-धरी रह गई और वह दांत पीसता रह गया था। नंदलाल साव धान लगाने के समय में खेती करता था और बाकी समय में फसलों का धंधा करता था। इस बार तो उसको अपनी अतिरिक्त उपज का भी सौदा करना था।
नंदलाल खरा बनिया था और उसने अपना सिद्धांत बना रखा था ‘न उधो का लेना, न माधो का देना।’ सारे गांव के लोग अपना धान उसी को बेचते थे। लेकिन नंदलाल ने धान लेने का अपना ही तरीका बना रखा था; वह मन पर एक सेर धान अलग से रखवा लेता था। अलबत्ता तो लोग उससे बोलते नहीं थे लेकिन जो ना नुकूर करता तो वह झाड़ के कहता था कि मिल तक ले जाने में जो धान छिट-धुना जाता है उसे वह अपने घर से क्यों देगा। पिछले साल धान लेने में ही अपने गांव के चरीथा से उसकी कसकर झड़प हो गई थी। चरीथा सयाना था और एक सेर धान अलग से देने को राजी नहीं हो रहा था। उस समय चूंकि धान तुलवा कर ढेरी में रखा जा चुका था तो नंदलाल ने ज्यादा बहस नहीं की लेकिन उसने आगे से चरीथा की कोई उपज नहीं लेने का ठान लिया था।
नंदलाल के ओसारे पर सबेरे से ही भीड़ जमा हो रही थी, धान बेचने वाले एक-एक कर आते और कांटे पर वजन कर खाते में चढ़वा रहे थे। अपना धान बेचने चरीथा भी आया था पर नंदलाल उसकी ओर देख भी नहीं रहा था। बारी आने पर चरीथा ने भी अपना धान कांटे पर रख दिया।
नंदलाल ने चरीथा का धान कांटे पर से उतारते हुए कहा- “नहीं तुम से हम धान नहीं ले पाएंगे, तुम कोई और व्यापारी देख लो।“
चरीथा- “पूरे गांव भर का धान ले रहे हो तो मेरा क्यों नहीं लोगे। मेरा भी लेना पड़ेगा और दूसरा व्यापारी मैं कहाँ से ढूंढकर लाऊँगा?”
नंदलाल- “कहीं से लाओ या घर पर ही उसर लो, कुछ भी करो पर मैं तुम्हारा धान नहीं लूंगा।”
चरीथा- “नंदलाल इधर से देख रहा हूँ, बहुत रंगदारी बतियाए जा रहे हो। बहुत पैसा हो गया लगता है।”
नंदलाल को चरीथा का अच्छी तरह पता था, उसे पिछला झड़प याद हो आया। वह समझ रहा था कि वह चरीथा से बोलने में नहीं सकेगा। इसलिए वह चुप ही रहा और दूसरे किसान का धान तौल-तौलकर खाते में चढ़ाता रहा। पर चरीथा रुकने वालों में से नहीं था।
“कैसे नहीं लोगे मेरा धान, देखे तो जरा।” कहकर चरीथा ने धान की बोरी कांटे पर वापस चढ़ा दी। नंदलाल कांटा छोड़कर दूर खड़ा हो गया। इतने में नंदलाल की पत्नी घर से निकलकर ओसारे पर आई और चरीथा को डपटना शुरू किया।
“सीधा देखकर माथे पर चढ़ते जाते हो, एक बार में बात समझ में नहीं आती है? और नहीं लेंगे तुम्हारी फसल, क्या कर लोगे तुम?” नंदलाल की पत्नी ने धमस कर कहा।
महिला से सामना होते ही चरीथा को जवाब ढूंढते नहीं बना। वह धान की बोरी उठाकर एक ओर रख दिया और सभी को कहने लगा कि नंदलाल अन्याय कर रहा है, सारे गांव का धान ले रहा है और मेरा नहीं ले रहा है। गांव वाले चरीथा के लड़ाकू स्वभाव को भली-भांति जानते थे। वे जानते थे कि इसमें भी जरूर चरीथा की गलती होगी इसलिए चरीथा की बात सुनकर भी अनसुनी करते रहे। तभी उधर से गुजर रहे लाला ठाकुर का हाथ पकड़कर चरीथा ने कहा- “लाला, देखो नंदलाल मेरी फसल लेने से इनकार कर रहा है?”
लाला ठाकुर ने हाथों में आई उसकी उंगली को दबाकर पीड़ित का पत्ता खेलते हुए कहा- “नहीं ले रहा है तो क्या कर पाओगे। कहावत नहीं सुनी जिसकी लाठी उसकी भैंस? कमजोर को दुनिया में कोई नहीं सुनता है।”
“क्या कहा लाला? मैं कमजोर हूँ? अब यह मेरी फसल ले अथवा नहीं ले, इसको मैं मजा नहीं चखा दिया और इसकी शामत न बुलवा दूं, तो कहना?” चरीथा ने अपने धान की बोरी वापस से साइकिल में रखते हुए कहा। लाला ठाकुर ने चेहरे पर आने वाली प्रतिद्वंदी को भीतर से मात देने वाली छवि को मुख पर आने से पहले ही रोक दिया।
कल होकर नंदलाल उसके ओसारे पर रोज की तरह आए किसानों से फसल लेकर उसका हिसाब रख रहा था तभी थाने के दो सिपाही ने उसके घर पर दबिश दी। नंदलाल ने सिपाही जी को राम-राम करते हुए उनके बैठने के लिए कुरसी अपने कंधे से गमछा उतारकर पोंछने लगा। सिपाहियों में से एक ने उसे रोकते हुए कहा- “नहीं नंदलाल, हम लोग बैठने के लिए नहीं आए हैं। बड़ा साहब अभी दौरे पर बाहर हैं इसलिए शाम को चार बजे तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को तफतीश के लिए थाने पर बुलाए हैं।”
नंदलाल ने हाथ जोड़ते हुए कहा- “तफतीश के लिए, क्या बात हो गई, छोटा बाबू। दारोगा साहब किसलिए बुलाएं हैं हमलोगों को?”
दूसरे सिपाही ने ऊँची आवाज में खराशते हुए कहा- “जैसे तुम कुछ जानते ही नहीं हो। खैर नहीं जानो, हम आए हैं तो बताकर जाते हैं। चरीथा ने तुम दोनों पति-पत्नी पर हरिजन एक्ट का केस किया है। उसने कहा है कि तुमने उससे धान इसलिए नहीं लिया कि वह हरिजन है और तुम दोनों पति-पत्नी ने मिलकर जाति सूचक शब्दों के साथ उसे गाली दिया है और मार-पीट की है।”
सुनकर नंदलाल को ऐसा लगा मानो उसके पैरो तले जमीन खिसक गई हो, उसे काटो तो खून नहीं। शरीर जैसे थर-थर कांपने को होने लगा। आवाज जैसे उसके गले में अटकने से रूंध गई हो। उसने रूंधे गले से ही ऐसे कहा मानो बिलख रहा हो-
“छोटा बाबू, हम कमाने-खाने वाले लोग हैं। हमलोग किसी को कोई गाली-गलौज नहीं किये हैं और मार-पीट किये हों तो मेरे हाथ काट दीजिएगा।”
“तुमको जो भी कहना है थाने चलकर कहना। और होशियारी नहीं करना, चार बजे मतलब चार बजे। नहीं तो बड़ा बाबू बहुत सख्त आदमी है, यह ध्यान रहे।”
“नहीं बाबू कोई गलती नहीं होगी, मैं आ जाऊंगा।”
“मैं नहीं तुम-दोनों पति-पत्नी। गांव-देहात का आदमी भी तेज हो गया है अब, कांड करके ऐसी रोनी सूरत बनाएगा, जैसे कि कुछ जानता ही नहीं। शातिरपनी में शहर का भी नाक काट दिया है रे तुम लोग!” कहकर दोनों सिपाही लौटने के लिए रवाना हो गया। उनके निकलते ही नंदलाल जमीन पर ऐसे भरभराकर बैठ गया जैसे आदमी न हो, सिर-कटी लाश हो। जिसका अपने जीवन में थाना-पुलिस से पाला न पड़ा हो, पुलिसिया भाषा ऐसे ही उसे तोड़ देती है।
पुलिस की दबिश की बात थी फिर तो ये बात पूरे गाँव में मिनटों में फैल गई। लोग तरह-तरह की बात कहते, हरिजन केस बहुत खराब होता है, जेल जाना ही पड़ता है और बेल नहीं मिलता है, नंदलाल का तो घर बरबाद हो गया, बच्चे सड़क पर आ जाएंगे बेचारे और भी बहुत कुछ। जब नंदलाल के घर पुलिस आने की बात चरीथा को पता चला तो वह आसुरी आत्मविश्वास के साथ कह उठा ‘सरकार ने कानून दिया है तो उसका इस्तेमाल रक्षा के लिए करेंगे ही। बहुत शोषण कर लिया हम सब का।’ नंदलाल पर हुए वज्राघात की खबर से चरीथा द्रवित तक न हुआ।
गाँव में तो थाना-कचहरी संक्रामक रोग की तरह होता है जिसके घर लग जाए लोग-बाग, अपने-पराये उस घर की परछाईं से भी कतराने लगते है। नंदलाल बेसुध अपने घर में पड़ा था। इधर-उधर से बात करने की कोशिश की तो लोग सामने नहीं आने की शर्त पर उससे इतना ही कह पाते ‘अब भगवान का ही सहारा है, सुनते हैं कि थाना-पुलिस भी इन सब में कोई मदद नहीं करता है, तुम्हारी सुनेंगे कि नहीं, कह नहीं सकते।’ नंदलाल की पत्नी ने अपने पति से बात कर उसकी हिम्मत लौटाने के ख्याल से कहा- “ऐसे हिम्मत खोने से कोई काम होता है कि संकट आ ही गया है तो उसका सामना करना है।”
नंदलाल- “तुम्हें समझ भी है, बड़ा बाबू ने थाने पर हम दोनों को बुलाया है। हम दोनों चलें जाएं तो बच्चों को किसके भरोसे छोड़ जाएंगे। केस की बात सुनकर ही दोस्त-पड़ोसी तो पहले ही गायब हो गए हैं हमारे लिए। फिर अपना यहाँ कोई सगा भी तो नहीं। क्या होगा, यह सोचकर दिल बैठा जाता है।”
पत्नी- “लेकिन थाने पर बड़ा बाबू बुलाये हैं तो जाना तो पड़ेगा ही न।”
नंदलाल- “उन्होंने हमारा चालान कर दिया तो क्या करेंगे, तुम्ही कहो?” पत्नी ने चुपचाप सुन लिया और आगे कुछ नहीं कहा।
पति-पत्नी ने जिला के अनु सूचित जाति-जनजाति थाने में प्रवेश किया तो बुलाने गए दोनों सिपाही गेट के पास ही मिल गए और कहा कि ‘जाओ बड़ा साहब केबिन में ही हैं और तुम्हारा ही इंतजार कर रहे हैं।’ नंदलाल एक-एक भारी कदम से दारोगा की केबीन की ओर बढ़ चला। प्रौढ़ पर रौबिला दारोगा केबिन में अपनी कुरसी पर बैठा था, उसके आगे एक बड़ी-सी डेस्क और उसके आगे कई कुरसी लगे थे। नंदलाल ने केबिन में घुसते ही बड़ा बाबू को हाथ जोड़कर प्रणाम किया, पर बोला कुछ नहीं या शायद उससे बोला नहीं गया।
दारोगा- “कौन आप लोग?”
नंदलाल- “नंदलाल साव साहेब और ये हमारी पत्नी।”
दारोगा- “अच्छा नंदलाल, क्यों जी तुम धान की खरीद-बिक्री करते हो।”
नंदलाल- “जी साहेब।”
दारोगा- “गाँव में क्या धांधली मचा रखी है तुमने, कोई हरिजन है तो उससे धान नहीं लेते हो और गाली-गलौज करते हो।”
नंदलाल लाख कोशिश करता पर उसके कंठ से जैसे बोली जैसे निकल ही नहीं पा रहा था। उसकी हालत देखकर दारोगा ने दफ्तरी को आवाज देकर उसे पानी पिलाने को कहा।
पानी पिने पर भी नंदलाल का चित्त स्थिर नहीं हो पाया। पत्नी ने उसका हाथ पकड़ बोली- “नहीं हुजूर, हमलोग ने उसे कोई गाली-गलौज नहीं किया है, किसी से मार-पीट तो दूर की बात है। चरीथा झुठ बोल रहा है साहेब। हमलोग मन पर एक-सेर अधिक लेते हैं कि छिटाई-धुनाई का नुकसान हमें न भरना पड़े। चरीथा को यह पसंद नहीं पड़ता है और वह हम लोग से लड़ाई करता है इसलिए, हम उससे धान नहीं लिये।”
दारोगा- “सही कह रहे हैं और झूठ बात हुई तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा। उत्पीड़न के केस में पहले जेल जाना होगा। और इतना सा बात आपका पति भी तो बोल सकता है।”
नंदलाल ने थोड़ा संयत होकर और हाथ जोड़कर कहा-“साहेब एक बिनती है हमारी, साहेब हमारे छोटे-छोटे बच्चे हैं। मुझे जेल कर दीजिए साहेब पर मेरी पत्नी को छोड़ दीजिए।”
दारोगा ने सख्ती से पूछा- “जो मैं कह रहा हूँ पहले उसका जवाब दो। जो तुम्हारी पत्नी कह रही है वो सही है।”
नंदलाल- “मैं कुछ कहूँ तो गलत होगा साहेब, आप ही चलकर देख लिया जाएगा साहेब, फिर मुझे तो न कहिएगा कि मैं झुठ बोल रहा हूँ हुजूर।”
“ठीक है, चलो तुम्हारे गाँव चलते हैं।” ये कहकर दारोगा ने दोनों सिपाहियों को गाड़ी में बैठने का इशारा किया और ड्राइवर को गाड़ी स्टार्ट करने को कहा।
दारोगा की गाड़ी आते ही गांव में हलचल हो गई। दारोगा नंदलाल के ओसारे पर की कुरसी पर बैठ गया और सिपाहियों से चरीथा और गाँव के लोगों को बुलाने को खबर भिजवा दिया। जल्द ही नंदलाल के ओसारे के अगल-बगल भीड़ जमा हो गई। दारोगा ने एक-एक कर गाँव के लोगों घटना के संबंध में बयान लेना शुरू किया। लोगों ने धान के लिए नंदलाल और चरीथा में हुई झड़प के बारे में विस्तार से बताया पर मार-पीट या जाति सूचक गाली के बारे में सबने अनभिज्ञता जताई और दारोगा चरीथा की ओर घुमते हुए कहा-
“चरीथा लोगों के बयान तुम्हारे सामने है, इसके बारे में तुम क्या कहना चाहते हो?”
चरीथा- “जिसने जो देखा कहा हुजूर।”
दारोगा- “लेकिन सबने धान नहीं लेने के बारे में कहा है, लड़ाई और गाली के बारे में तो किसी ने कुछ नहीं बताया।”
चरीथा- “ये लोग उसका पक्ष ले रहे हैं हुजूर और उसे बचाना चाहते हैं।”
दारोगा- “तब तो कार्रवाई करनी पड़ेगी और दोनों पति-पत्नी का चालान करना होगा। तो कहो, चालान कर दें इनका?”
चरीथा की झूठी जबान इतने लोगों के सामने खुल नहीं पाई। दारोगा की इस बात पर वह गुम रह गया।
दारोगा ने ही आगे चरीथा से कहा- “अच्छा चरीथा, ये नंदलाल कबसे लोगों से धान खरीद रहा है?”
इस बार चरीथा ने फौरन कहा- “आठ-दस सालों से हुजूर।”
“और ये नंदलाल मन पर एक सेर धान ज्यादा लेना कबसे शुरू किया।”
“परसाल से हुजूर।”
“जरा ठीक-ठीक याद करके बताओ उससे पहले ये तुमसे एक सेर धान ज्यादा कभी लिया था क्या?”
“नहीं हुजूर।” चरीथा ने विश्वास में डुबोकर कहा।
“तो इसका मतलब हुआ परसाल के पहले नंदलाल, तुमसे हरिजन होने के नाम पर धान लेने से कभी इनकार नहीं किया था।”
दारोगा के इस सवाल पर चरीथा बंगले झांकने लगा।
दारोगा ने इसबार कड़ककर कहा- “बोलो चरीथा बोलते क्यों नहीं, काठ क्यों मार गया तुम्हें? अगर नंदलाल तुम्हारे हरिजन होने के वजह से तुमसे धान नहीं लिया तो वह पहले कैसे ले रहा था? सिपाही अगर ये कुछ नहीं बोलता है तो बिठाओ इसको गाड़ी पर, हाजत की हवा थोड़ी इसको भी चखाएं।”
चरीथा टूट गया और हाजत का नाम सुनते ही भर-भरा कर रोने लगा। तभी चरीथा की बुढ़ी माँ आई और घेरे हुए भीड़ के सामने दारोगा से कहा- “सब किसी का घर परिवार होता है हुजूर, किसी का हाय नहीं लेना चाहिए। सब सरासर मेरे बेटे की गलती है, मेरे खून में ही दोष है। नाम नहीं कहूंगा पर यह लोगों के चढ़ावे में आ गया है हुजूर, इसे माफ करियेगा।” चरीथा भरे गाँव के सामने पानी-पानी हो गया।
दारोगा- “नहीं अम्मा, मैं तो चला जाऊंगा और आप सब को यहीं रहना है। इसीलिए किसी की नादानी के चलते मैं यहाँ भाईचारा खत्म करने और आपस में जहर घोलने का पाप नहीं लूंगा। मैं किसी को नहीं हाजत में ले जा रहा हूँ। लेकिन एक बात जो चरीथा जैसों को समझनी चाहिए कि बाबा साहब के दिये महान कानून का इसने बेजा इस्तेमाल किया है और वो भी एक सेर धान के लिये। कानून बनाने वाले ने कितने कठोर प्रावधान किये हैं इसमें ताकि लोग किसी से भेदभाव या छुआछूत के बारे में सोच तक नहीं सके लेकिन हमारी ही कौम के लोग जरा-जरा-सी बात पर इस कानून का इस्तेमाल लोगों का भय दोहन और ब्लैक मेल करने के लिए करते हैं, ये कितने शर्म की बात है। मैं भी अनु सूचित जाति से हूँ और चरीथा जैसों के कारण न सिर्फ हमारी कौम बदनाम होती है बल्कि लोगों का हमारी कौम पर से भरोसा उठता जाता है।”
अम्मा ने अपनी संतान को कोसते हुए कहा- “कोई तुम्हारा धान ले अथवा न लें, ये उसकी मर्जी। ऐसे में क्या तुम उसपर उत्पीड़न का केस लगाकर उसको जेल भिजवा दोगे और इसके बाद उसकी इज्जत, उसका घर-परिवार और बच्चों का जरा भी सोचा तुमने।”
--पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)