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मेला

3 नवम्बर 2023

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मेला. 


 


इस बार का दुर्गापूजा खास होनेवाला था। मित्र मंडली के प्रायः लोग जुड़ रहे थे। यह माता रानी की असीम कृपा ही कही जा सकती थी कि उनके उत्सव पर देश के अलग-अलग कोने में रह रहे मित्र वर्षों बाद गांव में इकट्ठा हो रहे थे। वरना क्या मजाल कि साल भर में किसी और अवसर पर इतने लोग मिल जाएं।  


 


विजयादशमी के मेले में अरसे बाद सभी मित्रों के मिलने में गजब की गर्मजोशी थी। आपस में गले मिलकर पीठ थपथपाते, पुरानी यादें ताजा की जाती और बीच-बीच में कहकहे लग पड़ते। एक-एक कर सब की बात होती रही और जीवन को किसने कितना पीछे छोड़ा इसपर माहौल यदा-कदा गंभीर भी हो जाता। लेकिन केवल चर्चाओं से कसर कैसे पूरी होती, इतने दिनों के मिले हैं, महफिल भी तो जमनी चाहिए। दो काले कुत्ते(ब्लैक डॉग) का क्वार्ट्स इंतजाम हुआ। शुरू में तो क्वार्ट्स की एक ही बोतल सेक्रेटरी के द्वारा प्रस्ताव किया गया लेकिन प्रोफेसर कैसे पीछे रहता, उसने कहा कि नरक में भी ठेला-ठेली और दूसरे का भी इंतजाम कर दिया। खैर शराब-ओ-कबाब के साथ टोली नदी की कछार ओर निकल गई। महफिल जमी और और शराब का दौर चला। शराब-नोशी के शबाब पर पहुँचते ही फिजा हिन्दी से अंग्रेजी होते देर न लगी। जिन्हें अंग्रेजी ज्ञान न था काले कुत्ते ने मानो उसके लिए रेपीडैक्स इंग्‍लिश स्पीकिंग कोर्स का काम किया, टूटी-फूटी ही सही अंग्रेजी से वे भी बात-व्यवहार कर उठे। "इडियट मेरे पैग में थोड़ा-सा, लिटिल मोर वॉटर ऐड करो।”  


 


कुल जमा दर्जन भर में दो शाकाहारी भी थे तो उन्होंने चखने पर कांसनट्रेट किया। लेकिन मजा तो तब आया जब लॉयर(शायर नहीं) दोस्त ने रह-रहकर शुद्ध हिंदी में कविता पाठ करना प्रारंभ किया और बाकी ने वाह-वा के नारे लगाने शुरू किया। पुराने दोस्त पर पुरानी शराब और भी उम्दा हुई जाती थी। और यहाँ समय की किसे परवाह थी मानो वर्षों से बंधी गाय को रस्सी तोड़कर भाग निकलने का मौका हाथ लग गया हो फिर तो पूरा मैदान छाने बिना कैसे मान लिया जाए।  


 


दोपहर दो से रात बारह बजने को है और शराब भूख जगाना चाहती है। ऐसे में दोस्तनवाजी में डूबे शराबजादों की बानगी देखिए : 


 


डॉक्टर- “यार बहुत हो गया अब घर चला जाए। भूख भी लग रही है।” 


 


प्रोफेसर- “कौन-सा घर? ग्यारह बजे के बाद मेरे घर के दरवाजे अगली सुबह तक के लिए बंद हो जाते हैं।” 


 


ऑडिटर- “मेरे लिए बंद तो नहीं होते लेकिन एक बेड सोफे के पास ही जमीन पर लगा दी जाती है। यार कैसे जी रहा हूँ क्या बताऊँ। कड़ा शासन है।” 


 


कवि- “मेरी माँ ही दरवाजा खोलेगी, मैं उससे नजरें नहीं मिला पाऊँगा।” 


 


सेक्रेटरी- “वाह रे आदमी, अभी तक कविता पढ़ रहा था इसके कविता पाठ के कारण हम सब फंसे हैं।” 


 


रेलवे गार्ड- “क्यों उसको कोस रहे हो, जब वीर-रस पर ताली ठोक रहे थे उस समय सोचना चाहिए था न! मैं न कहता हूँ, यहीं कुछ मंगा लिया जाए।” 


 


मुखिया- “उतरी नहीं क्या अभी तक, हम लोग गाँव में हैं, कोई शहर का छोर नहीं कि बगल में लाइन होटल लगी हो। इतनी रात को सन्नाटे के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।” 


 


बैंकर- “मेरी मिसेस को पता तो चले तो कच्चा चबा जाएगी। बोलेगी ही कि अकेले मार लिया है मेरे लिए भी लेके आओ। इतनी रात को कहाँ से लाऊंगा।” 


 


मुखिया- “नहीं ला पाओगे तो बीच नदी में सो जाओ।” सामूहिक ठहाका पड़ता है। 


 


कस्टम ऑफिसर अलग बौखला पड़ गया- “अबे मुझको मरवा दिया तुम सब। पिछली बार पकड़ा गया था तो वह बच्चों के सर पर हाथ रखकर कसम खिलाने पर तुली थी। इस बार पता नहीं क्या हो, मैं तो घर ही नहीं जाऊँगा, यहीं पड़ा रहूँगा।” 


 


रेलवे गार्ड- “पॉजीटीव सोचो पॉजीटीव, मैडम अगर अपने सर पर हाथ रखवा ले तो तेरी लॉटरी लग जाने वाली है।” 


 


हंसी और तालियों के बीच कस्टम ऑफिसर इतना ही कह पाया- “अबे कमीनों।” 


 


ऑडिटर- “तुम सब मुखिया को कुछ क्यों नहीं कहते हो, यही इंतजाम है इसका, उसको इसी दिन के लिए मुखिया बनाया था हमने।” 


 


मुखिया- “जमानत जब्त करवाएगा क्या मेरा? संस्कारी गांव है अपना, एक भी वोट नहीं मिलेगा। और तुम क्या कलकत्ता में वोट दिया था मुझको?” 


 


भूख तो सभी को सामने से ललकार रही थी लेकिन कोई भी अपनी राज-पत्नी को इतनी रात गए कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। कहे तो किस मूँह से यहाँ तो जो हालत थी कि खुद में जूतम-पजार होने का भय था। जब तक सुरा का असर था तो बात भी बादशाहे-आजम की होती रही, असर उतरते ही कायदे की बात समझ आते देर नहीं लगी। लिहाजा कोई भी अतिरिक्त जोखिम लेने से कतरा रहा था। सब मन-ही-मन कयास लगाना जारी रखे हुए थे, कोई हो पराक्रमी जो सामने आए। खुद की हिम्मत जवाब दे तो सामने वाले का भी हाथ-पैर फुला जाता है। 


 


लेकिन डॉक्टर शबाब पर था। वह आगे बढ़कर मौके पर चौका लगा, महफिल लूटने को बेताब हो उठा- “अरे क्या यार इतने भी बुरे दिन आ गए तुम लोगों के, हटो तुम लोगों से नहीं होगा। देखो मैं कैसे चुटकी में सब चकाचक करता हूँ, किसी काम के नहीं हो तुम सब।” 


 


इतना कहकर डॉक्टर ने अपनी फैशन डिजाइनर पत्नी को फोन लगा तो दिया, लेकिन सतर्क। सब को ओठों पर उंगली रखकर चुप रहने का इशारा भी किया- 


 


“हैलो बेबो सो गई क्या।“ 


 


“तुम्हारे फोन से पहले सो ही तो रही थी, पार्टी खत्म हो गई? नीचे हो क्या?” 


 


“आया तो नहीं हूँ, पर ये बताओ कुछ है खाने को।” 


 


“और ये क्या बात हुई घर है तो खाने का रहेगा ही न? और पार्टी फास्टिंग वाली थी क्या? ” 


 


डॉक्टर ने एक हाथ की दो उँगलियों से विक्टरी साइन बनाते हुए कहा- “नहीं, नहीं वो ये मैं कह रहा था, मेरे साथ कुछ दोस्त भी है और मैंने उनको पार्टी के लिए घर पर................” 


 


डॉक्टर की मिसेस को उसका नब्ज टटोलने में जरा भी देर नहीं लगा कि माजरा क्या है, उसने बीच में ही रोकते हुए कहा- “सुनो ऐसा करो तुम लोग बाहर ही कुछ खाते आओ और ये भी कोई वक्त है? कभी तो समझ आएगा तुमको कि यहाँ कितना काम रहता होगा। मैं सो रही हूँ, अब डिस्टर्ब नहीं करना।”  


 


डॉक्टर मोबाइल का वॉल्युम कम करता रह गया लेकिन फोन की बात सबने तरीके से सुनी। और डॉक्टर का चेहरा झटके में पीला पड़ गया। कहना न होगा इससे बाकीयों की भी संभावित रिस्क एप्पीटाइट को गहरा धक्का लगा। अपराध बोध में सभी ने नजरें तो नीचे कर लीं, पर कहा किसी ने कुछ भी नहीं। डॉक्टर को किस तरह सांत्वना दे सब यह सोच ही रहे थे कि अचानक उसका फोन फिर से बज उठा।  


 


“घर में माँ के रहते हुए भी तुम लोग क्या सोच रहे हो, चले आओ सब-के-सब। देर नहीं लगेगा, मैं झटपट कुछ बना देती हूँ।” माँ का फोन था। 


 


थके हारे मित्रों की टोली जब घर पहुँची तो माँ ने ही दरवाजा खोला और कहा- “तुम सब हाथ-मुंह धो कर फ्रेश हो जाओ, सब्जी बन पड़ी है, गरमागरम पूरी निकालती हूँ फिर सब कोई बैठ जाना।” 


 


सभी फ्रेश हुए और डॉक्टर अपने दोस्तों को हालिया बैंकाक टूर का फोटो दिखाने में मशगूल रहा। उधर माँ सब्जी उतारकर खीर चला रही थी, अगले पल आटा गुथती फिर सलाद काटती। उसकी फुर्ती देखते ही बनती थी, इतनी चपलता तो माँ में ही हो सकती है। पूरियाँ तलते हुए माँ ने सब को आवाज दिया- “सब आ जाओ, खाना तैयार है।” 


 


इधर सब हाथ धोकर बैठते, उधर एक-एक की थाली लगती जाती। गरमागरम पूरी, सलाद, खीर और सब्जी। दिन भर के भूखे के लिए यह माता रानी का महा प्रसाद था। और माँ थी कि थकने या उबने का नाम नहीं ले रही थी, थाली खाली होने को भी नहीं पाती और गरम पूरी परोस दी जाती, फिर सब्जी और जिसे चाहिए खीर भी। जाने क्यों सबको नव रात्रि की दुर्गा का बरबस ध्यान हो उठा। अष्ट भुजाओं वाली माता, अपने पुत्रों के प्रति वात्सल्य से भरी हुई, हर परिस्थिति में शरण देने के लिए तत्पर और कोई संकट भांपते ही सर्वस्व न्योछावर कर देने ने के लिए तैयार। 


 


“मेरी आँख लग ही रही थी कि बहु को तुमसे बात करते सुनी। सारा दिन करते-करते वो बहुत थक गई थी। फिर अभी पूजा है तो तुम सब आए हो इसलिए थोड़ा-बहुत कर-धर ली, नहीं तो तुम सबसे से कब भेंट होती है।” माँ खाना परोसते हुए सफाई भी दे रही थी। 


 


-- पुरुषोत्तम 


(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।) 



 


  

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रचनाएँ
यथार्थ की कहानियाँ
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मैं एक सरकारी अधिकारी हूँ। साहित्य मेरी पसंदीदा विधा है और फुरसत के क्षणों में लिखना-पढ़ना मुझे भाता है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, फनिश्वर नाथ रेणु, हरिशंकर परसाई की लेखनी का मैं मुरीद हूँ। मैं मुंशी प्रेमचंद की तरह लिखना चाहता हूँ। मैं इस उच्चतम मंच पर अपनी कहानी संग्रह के माध्यम से अपनी लेखनी को आपके बीच रखता हूँ। कहानियों के साथ-साथ मैंने कुछ कविताएं भी पिरोई है। मैं वास्विक और जिवंत कहानियाँ व कविताएं लिखना चाहता हूँ जो हमारे और आपके जीवन को प्रतिबिम्बित करें। इसमें कपोल कल्पनाओं और फंतासी की नाममात्र भी झलक नहीं हो। लोग किरदारों के साथ खुद को जिए और महसूस करे। और यह मानवीय जीवन में मूल्यों की बढ़ोतरी करे। मेरे समझ से बाजारवादिता संकिर्णता है और साहित्य को इससे दूरी बनाकर रखनी ही चाहिए। धन्यवाद।
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