भिखारी.
ऐसा नहीं था कि उसे भिखारियों से हमदर्दी नहीं रहती थी पर अपनी लाचारी को भीख मांगने के लिए इस्तेमाल करते देखकर उसे कोफ्त होता था। अकसर राह चलते या मंदिर के बाहर अपंगों को देखता तो उनपर उसे बरबस दया आती। लेकिन सबेरे जब वह ड्युटि पकड़ने के लिए स्टेशन पर आता तो मायूस चेहरा लिए इन भिखमंगों को सामने पाकर उसे खीझ होता था। यह अरविंद की पहली पोस्टिंग थी और उसे जसीडीह से विद्यासागर जाना होता था। रोज जाने-आनेवाले स्टेशन पर बनारस पकड़ने से पहले जमा हो जाते और आपस की टांग खिंचाई और कहकहों में इंतजार का समय काटते। अरविंद अपनी मोटरसाइकिल स्टैंड में लगा उस जमात में शामिल हो जाता। इतने दिनों में उसे भी साथ आनेजाने वालों से मेल जोल हो चला था। बनारस समय से होता तो आठ बजे नहीं तो साढ़े आठ तक, किसी ट्रेन के प्रायः एक डिब्बे में सवार होकर हमसफर का यह समूह रवाना हो ही जाता था।
इस सप्ताह में उसने तीसरी बार उस मलेच्छ भिखारी को देखा था....जीर्ण शरीर, फटी और मैल से काली पड़ चुकी लुंगी और विकृत चेहरा........ कुल मिलाकर उसे देखने से उबकाई आती थी ऐसा था वह। लेकिन किसी की यात्रा में खलल पड़ता हो इससे उसे क्या ही मतलब था। घिसटते हुए भी वह सबके सामने हाथ फैलाता और हअ्.....हअ्...... करता भीख मांगता। मेरे समझ से लोग उसको ज्यादा इस वजह से पैसा थमा देते थे कि चलो कम-से-कम सामने से यह दुर्गंध तो हट जाए। ट्रेन में मांगनेवालों की कमी न थी किन्नर भी आते थे.....चल रे बउआ..... निकाल ओ देवर जी....... प्रणाम सासु माँ....... इन सबसे उनका प्रणय खूब चलता था। पर किन्नरों आदि से यात्रियों को तिरस्कार नहीं था, कुछ तो इनका लुत्फ उठाते। कहाँ से प्राप्ति हो सकती है, किन्नरों को समझने में उन्हें महारत रहती है, बहुधा रोज आने-जाने वाले को वे नहीं छेड़ते थे।
अरविंद उस सोमवार को थोड़ा लेट था सो झटककर चल रहा था और गाड़ी अंत में पकड़ पाया। सोमवार रहने से आज ज्यादा भीड़ थी। दरवाजे के सामने वाली लंबी सीट के छोर पर उसे मुश्किल से जगह मिल पाई। उसके बगल में जामताड़ा के सहायक अवधेश जी बैठे थे। आपस में ट्रेन, मौसम, भागा-भागी की बातें हो ही रही थी कि अरविंद को अपने घुटने पर चपत सी महसूस हुई। उसने पलटकर देखा तो वही भिखारी हाथ फैलाए पड़ा हुआ था। अरविंद कुछ नहीं बोला पर उसका मन घृणा से भर चुका था। बगल में बैठे अवधेश जी जो यह भांप चुके थे भिखारी को फटकारते हुए उबल पड़े- “चलने बूढ़ा आदमी ने चिनाह्वे छो कि...... सांझ होतो आर बूढ़ा उठीक चले लागतो।“ फटकार खाकर, गंदगी लपेटे वह भिखारी घिसटते हुए दूसरे कम्पार्टमेंट की ओर निकल लिया। लेकिन अरविंद के मन से वह खिज खिजाता स्पर्श हट ही नहीं रहा था, उसका जी उचट चुका था। अरविंद जी उसका मनःस्तिथि समझ चुके थे और कहे जा रहे थे- बूढ़ा को घर है चार गो बेटा है इसको डांट-डपट भी करता है पर यह आदत से लाचार है।
अरविंद कार्यालय पहुंचकर भी क्षुब्ध ही था और वह घटनाक्रम और अरविंद जी की बातें उसके मन में अभी भी दौड़ रही थी। उसे अवधेश जी कि बातों पर यकीन नहीं हो रहा था कि वह भिखमंगा छलिया है और उसका घर परिवार है। और अगर वह चल सकता है तो नीचे जमीन पर घिसटने की उसे क्या जरूरत है।
उस रोज जरूरी प्रतिवेदन तैयार करने में अरविंद को सामान्य से ज्यादा विलंब हुआ। बाकि विभाग से सहयात्री स्टाफ जा चुके थे। अब तो उसे लौटने के लिए लोकल ही बचा था। यह लोकल कामगारों, वेन्डरों और रोज के डेली-पैसेंजरों से भरी रहती थी। अरविंद को उसके सहकर्मी राकेश ने बाइक से स्टेशन तक छोड़ दिया। शाम के बाद लगभग अंधेरा हो चुका था। दुकानों की लाइटें जल चुकी थी। अरविंद ने स्टेशन के बाहर ठेले वाले से चना-बादाम का गर्म भुजा लिया और लोकल में सवार हो गया। उसे खिड़की की पास वाली सीट मिल गई जिससे आती ताजी हवा से उसे शकुन दे रही थी। और गरमागरम भुजा उसकी क्षुद्धा मिटा रही थी। मधुपुर से खुलने के बाद गाड़ी पहले मथुरापुर, शंकरपुर फिर रोहिणी पार करते हुए गंतव्य तक पहुंच रही थी। ज्योंही गाड़ी जसीडीह पहुंचने लगी यात्री उतरने को अधीर हो गेट के मुहाने पर इकट्ठा होने लगी। तभी पिछे गलियारे से थोड़ा कोलाहल हुआ और भीड़ दो हिस्सों में बंट गई। भीड़ को छँटते देख अरविंद भी कौतूहल से खड़ा हो उस ओर देखने लगा। गाड़ी स्टेशन पर लग ही रही थी। वह क्या देखा कि वही भिखारी रेंगता हुआ गेट की तरफ बढ़ रहा था फिर अचानक से उठ खड़ा हुआ और सामान्य किंतु तेज कदमों से चलने लगा। दो हिस्सों में बंटी भीड़ भी उसके रूप परिवर्तन से भौंचक्की थी। ट्रेन के रुकने पर लपककर वह औरों से पहले उतर चुका था। अरविंद उसे फटी आँखों से भीड़ के बीच से ओझल होने तक देखता रहा।
-पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है)