बड़का-छोटका.
बात उन दिनों की है जब मोबाइल ने भाईचारे को निगला नहीं था। लोग एक-दूसरे के बगैर चल नहीं पाते थे। रंज भी आपस के लोगों से, तो मनोरंजन का साधन भी वही। समाज का ताना-बाना एक-दूसरे को जोड़कर गहरा बुना हुआ था। सोशल मीडिया नहीं होने से लोग स्टेट्स और पोस्ट लगाकर समाज में अपना परचम लहराने की नहीं सोचते थे। हाट, चौपाल, पान की गुमटी, नाई का दुकान शेखी बघारने का मंच प्रदान करती थी। और एक चीज थी जिससे लोग खुद को तीस-मार-खाँ साबित करने की जुगत भिड़ाते थे और वह थी बार्जी या बाजी। आपने भी सुना होगा फलां ने सौ रसगुल्ले खाने की बार्जी लगाई, ढीमके ने एक ही सांस में एक जग पानी पीने की शर्त जीती, अमुक ने उफनती नदी को पार कर सबको दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया, वगैरह-वगैरह। एक बार ऐसे ही एक रंगरूट ने गुड़ की पूरी चक्की जो आठ-दस किलो से कम की न होती थी, खा जाने का दावा कर दिया और उसको गुड़ खाता देखने लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी। भला कोई आठ-दस किलो गुड़ खा सकता है, रंगरूट हार गया और उसकी हो-हो हो गई।
नेमान (नवान्न) का दिन था। आपको जानकारी रहे कि उत्तर-पूर्वी भारत में यह त्यौहार अगहन (नवंबर) में नए फसलों के आगमन के उपलक्ष में मनाया जाता हैं। धान की नई फसल से तैयार चूड़ा और दही, साथ में गुड़, मूली और भिगोया हुआ घंघरी नेमान में भगवान को चढ़ाने और प्रसाद के रूप में खाने का रिवाज है।
मेरे घर थोड़ी दूर आगे बड़का-छोटका दो जुड़वां भाई रहते थे। दोनों एक जैसे, देखने में कुछ खास अंतर नहीं। आस-पास के लोग तो पहचान जाते थे पर जो लोग अभी देखे तो गफलत में पड़ जाए कि किसे देखा, किससे बात किया।
बड़का-छोटका बैलगाड़ी सजाता था, नेमान का दिन दोनों की छुट्टी का दिन था। बैल को चारा-पानी दे, चौपाल पर खूंटकर बड़का की पत्नी खलिहान लिपने चली गई। पर खेत के लिए निकलने से पहले घर के मरद-मुनीस को तरकारी भात रांधकर खिला गई थी। छोटका तरकारी-भात धंसोड़कर अंदर में खटिया पार दिया और कंबल ओढ़कर सो गया। बड़का धोती-गंजी में, गले में गमछा लपेटे अपनी झोपड़ी के आगे हथेलियों पर तमाखू रगड़ रहा था। नेमान के दिन दही नहीं मिलने से उसके मुख पर मलिनता का भाव था। इतने में साइकिल पर रस्सी के सिक्के के सहारे टंगी दही की दो कोहिया (हांड़ी) लिए एक दही वाला उधर से गुजरता दिखा।
“दही दस टका सेर, टटका दही आविये।”
बड़का- “बड़ी बेरा हो।”
दहीवाला- “हाँ भयवा, बेरा तो हो गया लेकिन क्या करेंगे हमलोग ठहरे चासी आदमी, चास और जाल-माल में बेरा हो जाता है। गाय गेंठा तोड़कर भाग गई थी।”
बड़का- “डेंगाता होगा गाय-गौरू को और खाने न देता होगा तब न, तनी देखो तो हमर बरद सानी खाकर इत्मीनान से पागुर कर रहा है। दिनभर कहीं हिलेगा नहीं।”
इस बतकही और अकारण मिले ज्ञान पर दही वाला तिलमिला कर रह गया। यह बाहर था इसलिए वह गुस्से का जब्त करना उचित समझा। वरना उसका गांव रहता तो इस आदमी का नतीजा पूरा कर देता।
दहीवाला- “दही लेना हो तो लो भाई नहीं तो चलते हैं दूसरा दरवाजा देखेंगे।”
बड़का- “लेना क्यों नहीं है, कैसे सेर दिया?”
दहीवाला- “जबहि से तो बोले जा रहे हैं दस रुपया सेर। बोलो एक सेर नाप दें कि कितना लोगे।”
बड़का- “एक सेर में हमलोग का क्या होगा?“
दहीवाला- “एक सेर ले लो, दू सेर ले लो या कोहिया ले लो। भाव वही लगेगा। बाकी असली भैंस के दही है भैया छाली सहित। सेर भर से ऊपर पचा नहीं पाओगे।” इस बार दही वाले ने टिटकारी भरी।
बड़का- “कौन दुनिया में रहता है जी, लगता है आदमी से भेंट नहीं है तुमको, अकेल्ला दून्नो कोहिया खा जाएंगे और डकार भी नहीं मारेंगे।”
दहीवाला यादव जी था, इस बात पर जब्त न कर सका और आपे से बाहर हो उठा। उसने अपना एक हाथ साइकिल की हैंडल से हटाकर हाथ हवा में लहराते हुए कहा- “तुम अगर दोनों कोहिया दही खा जाओ तो मेरी हार और तुमसे एक फूटी कोड़ी नहीं लेंगे।” जब यह बात हो रही थी उसी समय दहीवाला का गाँव का बगल गीर जाता दिखा। वह भी दहीयार था और अपना दही बेचकर वापस लौट रहा था। उसने ये बात आते हुए बगल गीर को देखकर हुंकार भरकर कहा। मौके पर बगल गीर को पा उसकी हिम्मत दूनी हो उठी।
बड़का- “जो पलट गया तब?”
दही वाला- “पलट कैसे जाएंगे?” फिर बगल गीर को दिखाते हुए कहा, “ये मेरा बगल गीर है लाखन, ये साखी रहेगा। और भैया तुम जो नहीं खा पाओ तो क्या हारोगे जो बोलो।”
“मोल का दूना देंगे।” दही के लोभी बड़का ने निराकरण कहा हालांकि हार जाने पर देने के लिए उसके पास एक धेला भी नहीं था। बड़का की पत्नी खेत जाते वक्त संदूक में ताला लगाते हुए गई थी, कोई भरोसा नहीं परव देखकर आदमी गाढ़ी कमाई जुए-दारू में ही लुटा दे।
“सुरेख, तो फिर उतारो दही, जवान को दू हांड़ी दही का मजा दे ही दो।" और बड़का की ओर देखकर "और एक चीज, पहले दही चख लो, टटका दही है तसदीक कर लो फिर न कहना दही खट्टा है, खा नहीं पाएंगे।” बगल गीर लाखन ने दही वाले सुरेश की पीठ ठोककर विजयी मुस्कान बिखेरते हुए कहा।
“नहीं कहेंगे।” बड़का ने आत्मविश्वास से जवाब दिया।
मौके पर दही दोनों पड़ोसियों द्वारा नजाकत से उतारी गई। इधर बड़का ने गर्दन पर से गमछा उतारा और वहीं देहरी पर बिछा दिया। दही सामने आते ही बड़का दही पर टूट पड़ा जैसे दही पर किसी जनम की बैर हुई पड़ी हो। उधर दोनों पड़ोसी खुसूर-फुसूर कर रहे थे। एक कह रहा था कि इसने पहले दही देखा है की नहीं, दूसरा कहता खाने भी दो कितना खाएगा आदमी ही तो है, दोनों हांड़ियों में दस-बारह सेर तो होगा-ही-होगा। एक हांड़ी दही देखते-देखते स्वाहा हो गई। फिर दूसरी उसकी आगे कर दी गई, उसपर बड़का फिर शुरू हुआ लेकिन इस बार खाने की गति घटकर आधी हो गई। मन तो पहले ही भर गया था अब शरीर भी जवाब दे रहा था। शरीर कितना खाता, खा तो शर्त रहा था। धीरे-धीरे उसका हाथ भी उठना बंद हो गया।
सुरेश - “रुकते क्यों हो खाकर खतम करो।” सुरेश चौकस था।
लाखन- “रुकने का मान नहीं है बंधु रुककर तो कोई भी खा लेगा।”
बड़का- “नहीं रुकेंगे काहे, ऊ लगातार खाते-खाते मुंह मरा गया है।”
सुरेश - “मुंह मरा गया है? तो हार मान लो। बहुत खाया अब कितना खाओगे। मैं तो पहले कहता था तुम मानने को तैयार नहीं थे।” इतना कहने के साथ उसकी भौहें चमक उठी। जीत सामने पाकर सुरेश ने आगे बढ़कर पड़ोसी का हाथ पकड़ लिया।
बड़का- “मुंह मराने के बाद भी पांच सेर दही खाता हूँ, घड़ी भर रुको अभी भंसा से नमक-मिर्च लेकर आता हूँ। फिर चट समझो।”
इधर बड़का घर के अंदर गया उधर दोनों पड़ोसियों की हंसी टपक पड़ी। बड़का रसोईघर से नमक-मिर्च तो लिया लेकिन उसके कदम बाहर जाने को उठ नहीं रहे थे, जैसे पैरों में वजन पड़ी हो। हार पचाने की ताकत अच्छे-अच्छों में नहीं होती है। पेट में दही के पहाड़ से बेदम बड़का की निगाह सो रहे छोटका पर पड़ी।
वह सो रहे छोटका को हिलाते हुए कहा- “छोटो दही खाओगे।”
पहले तो लगा बड़ा भाई कोई काम के लिए उसे जगा रहा है। वह अन्यमनस्क पड़ा रहा। लेकिन बड़का के मुंह से निकल रही दही की सोंधी महक के आगे उसकी निंद की चित हो गई।
“लो नमक-मिर्च और जाओ बाहर, वहीं दही यार की साइकिल लगी है। ये लो गमछा बाहर में इसी पर बैठकर दही खा लेना, केवल कुछ बोलना नहीं।”
छोटका बाहर निकल कर बचा दही मिनटों में सुड़क गया और दही यारों ने अपना सिर पीट लिया।
--पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)
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