अरवी के पत्ते.
ट्रेन से उतरकर मैं सीधा स्टेशन के आगे के बाजार में चला गया। घर में सब्जियां थी नहीं और सुबह ही श्रीमती जी ने ताकीद कर दी थी कि लौटते सब्जियां लेता आऊँ नहीं तो कल टिफिन में आलू मिलने वाली है। आलू मुझे पसंद नहीं पड़ती। शाम थी पर, सब्जी मार्केट ताजा और हरी सब्जियों से भरा था। भिंडी, परवल, नेनुआ, खक्सा से मेरा थैला भी भर गया। तभी मेरी नजर अरवी की पत्तों के बंडल पर गयी, पत्तियाँ बिलकुल ताजी और खिच्चा। थोड़ी मोल-भाव के बाद मैंने तीन बंडल पत्ते ले लिए। मोल-भाव के बहाने से सब्जीवाले से हाल-चाल, बात-चीत हो जाती है और सब्जीवालों को भी मोल-भाव करना अपना सा ही लगता है। इसलिए मोल-भाव करने को मैं बुरा नहीं मानता। अलबत्ता उसी के दाम पर बिना कुछ बोले सब्जी ले लेने से उन्हें रूखा लग सकता होगा। मैंने पत्तियों को थैले में ऊपर डाला और गंतव्य की ओर चल पड़ा। पाठकों को बता दूँ कि हिन्दी भाषी क्षेत्र में जिसे अरवी कहते हैं उसे हमारे यहाँ झारखण्ड में अलती कहा जाता है।
सड़क पर गाड़ी के पहिये दौड़ रहे थे और मन में अरवी के पत्तों की स्मृतियाँ। किशोरावस्था तक जिस खपड़े के घर में रहता था उससे लगा हुआ गौहाल था और उसके पीछे बाड़ी। पहली बरसात के बाद माँ अरवी की मुन्दियों को बाड़ी में गाड़ देती और जैसे-जैसे बरसात होती उन मुन्दियों से अरवी की बेलनाकार नन्ही पत्तियाँ निकलती और जल्दी ही पूरा बाड़ी अरवी की बड़ी-बड़ी हृदयाकार पत्तियों से लहलहा उठता। माँ उन पत्तियों को तोड़ती और उसके पास जो थोड़े पैसे होते, उससे बेसन-तेल वगैरह मंगाती। और फिर शुरू होता उसका व्यंजन बनाने की प्रक्रिया। व्यंजन का नाम तो साफ नहीं पता लेकिन हम लोग इसे गिरमच कहते थे। यह व्यंजन हम लोगों के लिए बहुत खास होता खीर, पूड़ी, पनीर की तरह। गुरबत के दिन थे वह। महीने में एकाध अच्छा व्यंजन बन जाता तो हम लोगों की पार्टी हो जाती थी।
माँ पत्तों को अच्छी तरह धोकर इसमें से एक को उल्टे सूप(बाँस का) पर उलटकर रख देती और उस पत्ती पर बेसन का घोल या पेस्ट जा भी कहें, लगाया जाता। बेसन को अच्छी तरह से पत्ते पर फैलाकर उसपर दूसरा पत्ता और फिर वही बेसन। जब तहें बन जाती तो उसे रोल किया जाता और पहले से कड़ाहे में उबल रहे पानी में डाल दिया जाता था। रोल को बाँधा जाता धान के डंठल से जिसे पुआल या बिचाली कहते हैं। जब रोल सिद्ध हो जाता तो उसे उतारकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता फिर इसे फ्राई किया जाता। हम लोग को इन टुकड़ों को फ्राई होने का बेसब्री से इंतजार रहता। पाँच भाई और तीन बहनों का बड़ा परिवार किसको कितने पीस मिले, इसपर पैनी निगाह रहती।
मैं अपने घर के पोर्टरिको में रुका और थैले से पत्तियाँ निकाली। मिसेस वहीं पौधों को पानी दे रही थी, बोली- “क्या उठा लाए। बहुत झंझट है इसको बनाने में और इसमें तीन घंटा से कम नहीं लगेगा।”
तो फिर झंझट का काम अगले रोज शुरू हुआ। 'टाटा संपन्न' का बेसन और 'अडाणी विल्मर' की कच्ची घानी तेल। पर घर में तो सूप है नहीं तो बड़ी-सी थाली को उलटकर उसपर अरवी की पत्तियों पर बेसन का पेस्ट डालकर तहें तैयार की गई। अब उसके रोल को लपेटने के लिए धागे चाहिए। मुझे याद आया मेरे नए घर के ले-आउट के लिए लाए गए मोटे धागे रखे हैं। मैंने श्रीमती जी को धागे लाकर दी और उन धागों से रोल को लपेटा गया। कितना नाॅस्टैल्जिीया है न अरवी के पत्तों ने एक साथ गुरबत और बरकत दोनों की यादें चस्पां कर दी थी।
फ्राई पैन में रोल के टुकड़े सीं-सीं करके पक रहे थे। मैं और मेरे बच्चे श्रीमती जी को घेरकर इस नए व्यंजन की प्रिपरेशन देख रहे थे। जब रोल फ्राई हो गई तो सभी को मिला। लेकिन वसु (मेरी बेटी) खाकर आह-ऊह करने लगी। और मम्मी को बोली- “क्या सब तुम बनाती हो मम्मी, मेरा मुंह, गला कितना कुलकुला रहा है, तुम्हें पता है।” मैं थोड़ा असंयत हो गया और बेटी को डांट लगा दी - “अभी पूरा बनने तो दो वसु, ग्रेवी बनने पर सब ठीक हो जाएगा।” मिसेज मुझे असहज देखकर बोल उठी- “आप क्यों परेशान होते हैं, उसे कुलकुला रहा है तो क्या बोलेगी। आप कुछ लिखते हैं तो उसकी आलोचना नहीं होती है।” अब मुझे ऐसा जान पड़ा कि अरवी की पत्तियों के साथ तो पूरा काव्य रचा जा रहा है।
जब इन अरवी की पत्तियों का गिरमच, रस के साथ गरमागरम चावल पर परोसा गया तो मेरी बेटी सहसा कह उठी- “मम्मी ये तो बहुत टेस्टी है, बिल्कुल मछली की तरह लग रही है।”
-पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)
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