रिक्तताएँ.
तुमसे कई मुलाकातें अकसर की राह चलते की
टुकड़ों में ही सही बातें रोज की थी अपनी तुम्हारी
तुम्हारे लिए बेहद सामान्य रहा होगा ये सब
मेरे लिए भी इसके कोई खास मायने नहीं रखे थे
रोज की ये भेंट तुमसे बिना कोई छाप छोड़ती
यूं ही बिसर जाती आधी कही आधी सुनी बातें
ऐसा भी नहीं हुआ कि तुमने कुछ दिया हमको
न ही मैंने तुम्हें कुछ देने की ख्वाहिश रखी कभी
लेकिन आज जो तुम चले गए हो पहाड़ सी रिक्तताएँ देकर
मुलाकातों का सिलसिला नहीं दोहराने का पक्का वादा निभाकर
इन रिक्तताओं का क्या करूँ मैं इस शून्य को कैसे भरूँ मैं
तुमसे पूरी बात कैसे कहूँ मैं तुम्हारी पूरी कैसे सुनूँ मैं
सच कहूँ अब जब तुम नहीं हो बहुत कुछ नहीं बदला
पर तुम्हारी कमी खली है जो स्थायी रह जाने वाली है
रोशनी में डूबे घर का एक कोना स्याह पड़ गया है
राह भी है, सफर भी है, कोई हमसफ़र है जो छूट चला है
(स्मृति वश)
-पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है)
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