बिरादरी का आदमी.
चंद्रचुड़ कल ही कालू साव के यहाँ निमंत्रण खाकर लौटा था और चौक पर आठ-दस जनों के सामने भोज की किरकिरी कर रहा था। गाँव में चुगली ज्यादा होने का भी कारण है कि गाँव में चुगली का पूरा-का-पूरा इकोसिस्टम तैयार होता है, वहाँ लोगों के पास समय-ही-समय है और जबतक एक मुश्त चुगली की या सुनी नहीं जाती है तबतक तो पेट का पानी भी नहीं पचता है। पीठ पीछे चुगली तो गाँव की सलाम नमस्ते है। गाँव में जब दो लोग मिलते हैं तो तीसरे की चुगली ही करते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता होता है कि कहीं ओर दो मिलकर उसकी चुगली करते होंगे। इसके अलावे चुगली वह टूल भी है जिससे किसी की प्रगति पर धूल डाली जा सकती है। जिसने प्रगति नहीं की हो उसकी चुगली नहीं की जाती, सीधे गाली दी जाती है।
“अरे कालू क्या खिलाएगा, बनिया तो एकदम बनिया ही ठहरा। मांस तो खिलाया ही नहीं, बिना मांस के भोज कैसा!! पूड़ी सूखी थी और कच्ची भी। रसगुल्ला गंध कर रहा था। मुझसे तो खाया ही नहीं गया कुरसी के नीचे फेंक दिया। कोई टेर लेनेवाला नहीं, दस बार बोलो तो कोई चीज मिलेगा। पुलाव दिया तो तड़का नहीं। एक हमलोग के यहाँ देखो दस आदमी आता है तो आह-वाह करके जाता है।”
नेपाली जैसे उसके बात को लपकने के लिए कबसे तैयार था- “और क्या लदा-ऊपर भीड़ था.... भेडी़याधसान। एक टेबुल पर आठ-आठ, दस-दस आदमी बैठ रहा था।”
चंद्रचुड़- “खाया नहीं-खाया सब बराबर हो गया। आदमी कहलाने लायक नहीं है वह। हम लोग का निमंत्रण देखकर भी नहीं सीखा तो क्या सीखा?”
“लेकिन चंद्रु तुम इधर पाँच-सात साल में किसी को कब निमंत्रण दिया है।” महेन्द्र ने चुटकी ली तो चंद्रचुड़ की बोलती बंद हुई। चंद्रचुड़ की आदत थी पहले खा लेना फिर उलाहना शुरू करना। लोग-बाग भी बखूबी जानते थे उसकी इस हरकत को, लेकिन क्या कहते इस बिना पेंदे के लोटे को, चुपचाप सुन लेते थे।
पिछले दिनों गरीब रामस्वरूप के बेटी की शादी थी। उसे लगा कि चंद्रचुड़ सभी जगह आता-जाता है और उसकी पूछ भी है तो अगर वो उसकी बेटी की शादी में सहारा बन जाये तो ही उसकी नैया पार पा जाये। रामस्वरूप ठहरा गरीब बेसहारा आदमी और उसपर भी चंद्रचुड़ के बिरादरी का भी।
रामस्वरूप ने चंद्रचुड़ को चौक पर देखा तो उसे अपनी बात रखने का सही अवसर मालूम हुआ। उसने चंद्रचुड़ की ओर पान बढ़ाते हुए कहा- “चंद्रचुड़ भाई, पहली चैत को बेटी की शादी है। हम लोग तो ठहरे कमाने-खाने वाले आदमी, यज्ञ-प्रयोजन में क्या-कैसे होता है, हमको तो कोई मर्म नहीं है। तुम ब्याह घर में रहकर मेरा काम संभाल दो। तुम्हारी तो जान-पहचान अच्छी है, तुम पीठ पर रहोगे तो सहारा हो जाएगा।”
चंद्रचुड़ ने उसे इस तरह देखा जैसे कि कोई आसामी हो। लेकिन मुँह में पान रखते हुए बस इतना ही कहा कि ‘सब हो जाएगा। चिंता क्यों करते हो?’ पानवाला चंद्रचुड़ को ज्यादा करीब से जानता था। लेकिन चंद्रचुड़ की ओर देखकर भरोसा किया कि अपने समाज के आदमी के साथ वह बेमुरव्वत नहीं करेगा। लेकिन समाज का आदमी होने से सियार गाय थोड़े हो जाता है!
अगले दिन जब रामस्वरूप किराने की दुकान पर भंडारे का सौदा ले रहा था तो दुकानदार से वह खोज-खोजकर सामानों का भाव ले रहा था।
“भाई रामस्वरूप तुम क्यों सामानों के दाम में इतना मोल-भाव कर रहे हो, जब खर्च चंद्रचुड़ वहन कर रहा है। दूसरे का पैसा है, लगने दो जो लगता है और तुमसे गैरवाजिब थोड़े लेंगे।” दुकानदार ने कहा।
सुनकर रामस्वरूप की आँखें फटी-की-फटी रह गई। वह बोला- “खर्च चंद्रचुड़ क्यों वहन करने लगा? मेरी बेटी की शादी है तो खर्च मैं करूँगा कि वह करेगा?“
दुकानदार- “लेकिन वह तो सब को कहकर सुना रहा है कि तुम उसके पैर पड़ने लगे इसलिए सब कुछ वही कर रहा है।”
“नहीं तो वह जाति-समाज का आदमी है तो मैंने उससे कहा है कि शादी में मेरे पीठ खड़ा रहे; मेरा सहारा हो जाएगा। बाकी उससे एक पैसा भी लेने की बात नहीं।”
दुकानदार को समझते देर न लगी कि माजरा क्या है। वह बोला- “कैसे बोलते हो तुम कि सामने वाला कुछ और समझ जाता है। समझकर बोलो। नहीं तो केवल किसी के पैरो में जाने से तुम्हारा काम होने से रहा।”
रामस्वरूप राशन का सामान लेकर लौट रहा था तो रास्ते में सब्जीवाले के पास रुका तो सब्जीवाले ने भी उसे टोकते हुए कहा- “सब काम तुम्हीं दौड़कर करते रहोगे तो चंद्रचुड़ क्या करेगा।”
“चंद्रचुड़ क्या करेगा मतलब?”
“चंद्रचुड़ डेकोरेटर वाले के पास कह रहा था कि तुम्हारी बेटी की शादी का सारा जिम्मा तुमने उसी को दे रखा है।” सब्जीवाले ने जो वाकया सुना, उसे बता दिया।
“चंद्रचुड़ मेरे बिरादरी का है इसलिए उसे बारात में गाइड करने के लिए कहा है, लेकिन इसका मतलब यह थोड़े है कि मेरी बेटी की शादी का सारा काम किसी और के भरोसे छोड़ निश्चिंत हो जाऊँ? फिर वह तो एकबारगी हुलकी मारने भी मेरे यहाँ नहीं आया है।”
“एँ ऐसा है, चंद्रचुड़ है ही सयाना लेकिन उसे ऐसा नहीं कहना चाहिए था। फिर वह डेकोरेटर के यहाँ कहा तो और जगह भी कह रहा होगा।”
“करे तो कहे तो कोई बात नहीं, पर ऐसे मेरी हेठी करने से उसे क्या मिलेगा। मैं आदमी गरीब जरूर हूँ पर मेरी खुद्दारी औरों से कम नहीं। वह मिले तो कहता हूँ।”
संयोग से चंद्रचुड़ उसी समय कहीं जा रहा था तो रामस्वरूप ने उसे राम-राम कहते हुए रोक लिया।
“राम-राम भैया चंद्रचुड़।”
“हूँ।” रामस्वरूप के राम-राम के जवाब में चंद्रचुड़ ने बस आधा शब्द कहा।
“भैया कभी घर की तरफ आते नहीं हो।”
“जाने का तो मैं कबसे सोच रहा हूँ लेकिन घर का काम ही खत्म नहीं होता है।”
“भैया मेरे भाग जागे आप मेरे घर पधारे। लेकिन भैया एक बात कहनी थी आपको समय मिले तो जरूर आवो नहीं तो नहीं लेकिन भैया मेरे घर की शादी के बारे में जहाँ-तहाँ नहीं बोलो, बड़ी कृपा होगी।”
“क्या बोला रे, कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। बहुत पैसा हो गया है तुमको, फिर आओगे मेरे ही पैरो में गिरोगे।” इस बात पर चंद्रचुड़ उसपर यों आग बबूला हो गया जैसे कि उसने अनर्थ कह दिया हो।
“नहीं भैया, मेरी क्या औकात कि आपसे बराबरी करें, मुझसे कोई गलती हो गई हो तो क्षमा प्रार्थी...”
“चोप्प!”
चंद्रचुड़ उसे धमकाते हुए ही आगे बढ़ गया।
आज रामस्वरूप के लड़की की शादी है। शादी के घर में बहुत लट्ट-लहर है। प्रीतिभोज में सरातियों को बिजय कराने में विलंब हुआ है और होता ही है। गाँव-घर के लोग आ रहे हैं लेकिन चंद्रचुड़ का कहीं कोई दर्शन नहीं है उसके घर से भी निमंत्रण में कोई नहीं आया है। रामस्वरूप की पत्नी उलटे रामस्वरूप पर बिगड़ रही है- ‘बड़ा लोग है, कुछ कह दिया तो कह दिया। कुछ किये अथवा नहीं किये ईश्वर की कृपा से हमारा कौन-सा काम रुक रहा था। कोई करे, नहीं करे उसका मन है; झुकना हमारा फर्ज है और इनको तो यह आता ही नहीं। जाइये हाथ-पैर जोड़ के बुला के लाइये उनको। बिरादरी का आदमी है, कम-से-कम साथ में खड़ा तो है।”
रामस्वरूप को भी अपराध बोध होने लगा। वह लपककर चंद्रचुड़ के घर के तरफ बढ़ता है।
“चंद्रचुड़ भाई, कोई भूल हो गई होगी हमसे तभी से समाज का आदमी मेरे दरवाजे पर हाथ जूठा करने नहीं आ रहा है।”
“तुम्हारे दरवाजे पर हाथ जूठा करने जाए? सो काहे, मेरे घर खाना नहीं बनता है क्या? या कि तुम भीख मंगा बुझ लिये हो हमको।“
“कैसी बात कर रहे हो चंद्रचुड़ भैया, भीख मांगे आपके दुश्मन। मेरी गलती तो मुझे चार जूता मारो लेकिन मेरे यहाँ चलकर पानी ग्रहण करो, नहीं तो हमारा उद्धार नहीं होगा। इसकी माँ मुझपर बड़ा गुस्सा कर रही है; इतने बड़े जलसे में समाज का आदमी ही नहीं चढ़े तो इसका क्या लाभ?”
“समाज का आदमी चढ़ेगा कैसे? तुमको तो पैसे का घमंड हो गया है बहुत पैसा हो गया है तुम्हारे पास।”
“नहीं भैया, बारात दरवाजे पर आ रही होगी भैया। ऐसा न कहो भैया मैं अपनी पगड़ी तुम्हारे पैरो में रखता हूँ।” रामस्वरूप गिड़गिड़ा रहा था।
“पगड़ी रखो चाहे नाक रगड़ो मैं कहीं नहीं जाने वाला।”
“भैया बेटी का ब्याह है निभा दो। ब्याह से उठते ही तुमको देवानी (बकरे की मांस का भोज) देंगे। जितना बड़ा बकरा कहोगे काट देंगे।” हार खा रहे रामस्वरूप ने तरकस के आखिरी तीर इस्तेमाल कर ही लिया।
बकरे का भोज सुनकर चंद्रचुड़ के भी तेवर बदल गए। “तुमसे हम लोगों का जी उचट गया था लेकिन बेटी की शादी न होती तो कभी-भी नहीं जाता। देवानी देने की कहकर तुमने हार मान ली इसलिए चलता हूँ।” रामस्वरूप की तरकीब काम की थी।
प्रीतिभोज में एक अलग पंगत में चंद्रचूड़ और उसके परिवार को बैठाया गया है। चंद्रचुड़ और उसके परिवार की आवभगत के लिये रामस्वरूप का भाई-भतीजा-साला, पूरा कुनबा ही लग जाता है। सभी हाथ जोड़ रहे हैं। कोई पत्तल बिछा रहा है, कोई पानी लाता है, कोई पूरी और सलाद परोसता है। यहाँ भी चंद्रचुड़ की आन-बान-शान है। उसके परिवार के लिए सिर्फ इमरती एक के बजाय दो बार चलाई जाती है।
पूरा खाना खिलाने के बाद दही चलाने का समय है। चंद्रचुड़ को दही परोसी जाती है।
दही खाते ही चंद्रचुड़- “बाप-रे-बाप कितना खट्टा दही है। मुंह खराब हो गया।”
रामस्वरूप- “चंद्रचुड़ भैया, चीनी लगेगी क्या?”
चंद्रचुड़- “चीनी नहीं, रसगुल्ला मंगाओ।”
परोसनेवाला रसगुल्ला लेकर आता है।
चंद्रचुड़- “रे परोसने वाला, देते रहो तबतक जबतक कि मैं रुकने न कहूँ।”
परोसनेवाला- “भैया सबको दो ही रसगुल्ला देने को कहा है।”
चंद्रचुड़ रामस्वरूप की ओर देखते हुए- “लोग को काहे बुलाता है जी जब खिलाने का औकात नहीं है तो?”
सामने पंगत से महेन्द्र यह सब घटित होते हुए देर से देख रहा था, जब उससे और रहा नहीं गया तो उसने वहीं से चंद्रचुड़ को दो टूक कहना शुरू किया- “चंद्रु नींबू उतना ही निचोड़ना चाहिए कि कड़वी न हो जाए। और तुम्हारा कितना औकात है जी, तुम आज तक अपने घर से किसी को भर पेट तरकारी-भात भी खिला के भेज सका है। किसी गरीब की बेटी की शादी में आए हो, इस बात का भी भान नहीं है तुमको। अपने समाज के भले आदमी के साथ नहीं है जी तुम तो बाकी समाज का क्या होगा। और तुम्हारा पेट है कि धसान और धसान भी है तो सब उसी में धंसा नहीं देगा न। और लोगों को क्या तुम्हारे जैसा बिन खिलाए लौटा देगा। और क्या बोला औकात, सब कोई सुन लो इसके घर के भोज में लोग-बाग केवल खाना पूर्ति करने जाता है ताकि इसकी इज्जत बची रह सके। मैं खुद गवाही हूँ मुझे इसके यहाँ से बिन खाये लौटना पड़ा है।”
महेन्द्र ने जो कहा, उसके बाद चंद्रचुड़ ने जो नजरें नीची कि अंत तक नहीं उठी, जबान जो बंद हुई महीनों नहीं खुली, तेवर यूँ ठंढाया जैसे गरम लोहा पानी में डालने से ठंढा हो जाता है।
.--पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)