मोटर.
उपेन्द्र के लिए खाली समय था और वह टीवी पर ‘मैंने गाँधी को नहीं मारा’ फिल्म देख रहा था। डिमेंशिया से जुझते वृद्ध पिता और अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर भी उसे उस स्थिति से बाहर निकालने को जद्दोजहद करती बेटी की संवेदनशील कहानी है यह फिल्म। फोन के बजते ही रिंगटोन ने उसे उस फिल्म की तंद्रा से बाहर निकाला। फोन उसकी बुढ़िया माँ का था। फोन पर माँ ने बताया कि घर में लाइट नहीं है और पिछले दो दिनों से पानी नहीं चढ़ा। एक क्षण के लिए सिनेमा के पात्रों से खुद के जीवन को मिलाने लगा। कहाँ पिता के लिए अपना जीवन दाँव पर लगाकर जद्दोजहद करती बेटी और कहाँ वह। उसे अपना ही का किरदार बेईमानी करता महसूस हो रहा था। पहले तो उसने सोचा कि वहाँ गाँव पर कोई होता जो उसका बिजली और मोटर ठीक करवा देता। लेकिन ऐसा कोई पात्र हो, उसके जेहन में नहीं आया। तो अंत में उसने वहाँ खुद जाने की सोची कि घर पहुँचकर वहाँ से लौटने तक दो घंटे में अगर कुछ नहीं भी कर पाए तो भी माँ से मिल लेगा ही।
पैतृक घर उसके ऑफिस से चालीस किलोमीटर दूर था। वही घर जहाँ माँ रहती थी और उपेन्द्र अपने पत्नी-बच्चों के साथ ऑफिस से नजदीक किराये में रहता था। ऑफिस खत्म करके वह अपने डेरे की ओर गया, फ्रेश हुआ और चल पड़ा वहाँ से अपने पैतृक घर। शाम की गोधूलि बेला थी और धीरे-धीरे धुंधलका छाने को था। वह फिल्म और अपने खुद के जीवन की तुलना करता हुआ गाड़ी चला रहा था और घर से अब दस किलोमीटर दूर था कि ‘राम-राम भैया’ इस शब्द से एक बार फिर उसका ध्यान भंग हुआ था। उसने रुककर देखा तो उसका बिजली मिस्त्री पलटू था। दिन भर की काम से फुरसत पाकर वह बिजली मिस्त्री शाम की तफरी के लिए नुक्कड़ पर था। उपेन्द्र ने भी राम-राम की और कुछ औपचारिकताओं के बाद अपनी राह निकलने ही वाला था कि उसे ख्याल आया कि क्यों न वह पलटू को भी अपने साथ ले ले। यूं खराब तो मोटर है पर पलटू भी तो ठहरा बिजली मिस्त्री, यदि कुछ राह निकाल दे। पलटू भी चलने को राजी हो गया।
पलटू आते ही काम पर लग गया और तुरंत आकर रिपोर्ट किया कि ‘एमसीबी गिरा हुआ है भैया’। पाँच केवी के स्टेबलाइजर की एमसीबी उठा दी गई और घर की लाईटें जल उठी उसे थोड़ी तसल्ली हुई पर मोटर फिर भी न चला। मोटर का स्टार्टर खटखटाता रहा। स्टार्टर को खोलकर उसने खिट-खाट भी की तारों को रिवर्स भी किया पर नतीजा वही। तो पलटू ने जुगत भिड़ाई और मोटर के एक परिचित मेकैनिक को फोन लगाया। फोन पर बात करते हुए भी वह स्टार्टर में खीट-खाट करता रहा और उसे सलाह मिला कि मैन लाइन का न्यूट्रल खराब है।
अब यह नई मुसीबत थी। पोल पर इस समय चढ़कर न्यूट्रल को दुरुस्त करना खासा मुश्किल काम था। रात हो चली थी फिर भी उपेन्द्र ने एक प्रयास के लिए लाईन मिस्त्री को कॉल लगा दिया, उसके पास लाइन मिस्त्री का नंबर था।
इससे पहले कि उसे वह फोन कनेक्ट होता कि पलटू ने उसे रोक दिया कि ‘भैया, वह मिस्त्री पियक्कड़ है इसलिए उसे बुलाना ठीक नहीं है। वह अगर पोल पर चढ़ भी जाए और खुदा-न-खस्ता कुछ हो जाये तो बड़ी मुश्किल हो सकती है। ‘उसे बुलाने तो अभी छोड़ ही दीजिए। पिछले दिनों ऐसे ही एक मिस्त्री अंधियारे पोल पर चढ़ गया तो वह बिजली के संपर्क में आ गया और खेत रहा।’ बात तो सही कही थी उसने। पीने वाले का कुछ कहा नहीं जा सकता है। अचानक उपेन्द्र को ख्याल आया कि उसका एक पूर्व विद्यार्थी भी लाइन मिस्त्री का काम करता है और पास में ही रहता है। उसने उसे फोन किया तो विद्यार्थी मिस्त्री से सकारात्मक जवाब मिला लेकिन उसने कहा कि वह किसी दूसरे साइट पर है और आधे घंटे में आ जाएगा। पलटू शांत था, मन में सोच रहा था कि कह तो दिया है लेकिन नहीं आए तब?
विद्यार्थी मिस्त्री चालीस मिनट में आ गया लेकिन आते ही कहा कि पोल पर चढ़ने के लिए एक सीढ़ी और टार्च की जरूरत है। लंबी सीढ़ी पड़ोस से फिर भी मिल जाएगी लेकिन मुसीबत टार्च की थी कि उसका जुगाड़ कहाँ से करे। मोबाइल क्रांति के बाद एक जो बात हुई है कि कई सारे ग्जैट्स लील लिये गये हैं जैसे कि टार्च, कैलकुलेटर, कलैंडर आदि।
‘जिन ढूंढा तिन पाईयां’, संयोग उपेन्द्र का एक परिचित शाम के सैर-सपाटे के बाद टार्च ले नदी से लौट रहा था। उससे न सिर्फ टार्च मिल गई बल्कि वह खुद ही टार्च जलाकर विद्यार्थी मिस्त्री को दिखाने भी लगा। विद्यार्थी मिस्त्री ने ग्रिड फोन कर ‘शट डाउन’ लिया और न्यूट्रल तार का जंग साफ कर वापस लगा दिया। कुछ देर में जब वापस लाइट आयी तो लगा कि जैसे समस्या खत्म होने को है। लेकिन जब फिर से स्टार्टर ऑन किया गया तो भी मोटर नहीं चली, स्टार्टर खटखटाते रह गया तो उपेन्द्र का दिल बैठ गया। घंटे भर में उसकी आशा कितनी बार बनी और टूट चुकी थी। सोचा तो था कि आना सार्थक हो जाये लेकिन वह होता नहीं लग रहा था। उपेन्द्र को ऐसे वक्त निराशा हो रही थी कि अगर किसी तरह यह काम हो जाता तो माँ कि तकलीफ दूर हो जाती और उसे फिर अगले रोज नहीं आना पड़ता।
क़ल आकर उसे मोटर निकलवानी होगी, इसी उधेड़बुन में वह बुझे हुए मन से सड़क पर अपनी मोटर साइकिल के पास आ गया लेकिन देखा तो पलटू उसके साथ नहीं लौटा, उसने वहीं खड़े-खड़े उसे आवाज दी तो पर भी पलटू नहीं आया। उपेन्द्र लगभग खीजते हुए मोटर रूम तक आ पहुँचा तो क्या देखता है कि पलटू ने पाँच केवी के स्टेबलाइजर से मैन्स की सभी तारें काट दी है और उसे डॉइरेक् ट कर रहा है।
“ये क्या कर दिया पलटू, स्टेबलाइजर का तार क्यों काट दिया?”
“रुकिये न भैया सब बताते हैं, अब जाकर मोटर में लाइन दीजिएगा।”
उपेन्द्र ने जाकर स्टार्टर ऑन किया तो मोटर सही चलने लगा।
“अरे वाह पलटू तुम तो कलाकार आदमी निकला। स्टेबलाइजर में क्या दिक्कत हो गई थी?”
“भैया आपका मोटर और लाईन दोनों सही है। ये पाँच केवी का स्टेबलाइजर ही न्यूट्रल पास नहीं कर रहा था, इसलिए डाइरेक्ट करना पड़ा।”
पानी चढ़ने की ख़ुशी में माताराम ने सभी को शाम की चाय पिलाई।
--पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित व मौलिक रचना है।)