एसएससी.
यह सच्ची कहानी है। 2003 का साल था और एक लंबे समय के बाद कर्मचारी चयन आयोग की स्नातक स्तरीय की वेकेंसी आई थी। और मेरा स्नातक होने के बाद स्नातक स्तरीय यह पहली वेकेंसी थी। कहना न होगा कि मैं शुरू से ही वेकेंसियों के प्रति बहुत जागरूक था, पार्ट वन के बाद से ही। जब स्नातक नहीं हुआ था तब मैट्रिक स्तरीय एलडीसी की परीक्षा में चार बार बैठ चुका था। एलडीसी कहने को तो मैट्रिक स्तरीय था पर जहाँ तक मैं समझता हूँ इसमें स्नातक से नीचे शायद ही कोई क्वालिफाई करता होगा। कारण था कि वेकेंसी ज्यादा रहती नहीं थी और स्नातक बेरोजगार ही लाखों की संख्या में थे। बहरहाल मैंने लगातार चार बार एलडीसी की प्रीलिम्स और मैन्स निकालने में सफल तो रहा लेकिन अंतिम टाइपिंग टेस्ट में छंट जाता था। दस किलो के आस-पास वजनी टाइपिंग मशीन देवघर से इलाहाबाद ले जाने में मेरे पतले हाथों की नस-नाड़ियाँ इस कदर खिंच जाती थी कि सेंटर पर मुझसे टाइप होता नहीं था।
जब स्नातक स्तरीय वेकेंसी आई तो मुहल्ले के एक मित्र के मित्र बिट्टू ने पहले ही मुझसे कह दिया कि ऐसा करो एसएससी का फार्म आ ही गया है तुम खर्चा(मिठाई) कर दो। मैंने कहा फार्म भरने के पहले? वह बोला कि तुम्हारा रिजल्ट हो जाएगा, कौन रोकेगा। उसका मुझपर विश्वास देखकर मैं चकित था।
मैं फार्म खरीद लाया और परीक्षा शुल्क के लिए आईपीओ भी। उस समय किसी स्तर की प्रतियोगिता परीक्षा में कोई भी काम ऑनलाइन नहीं होता था सिवाए रिजल्ट प्रकाशन के। फार्म तो मैंने भर दिया लेकिन तभी पता चला कि एसबीआई पीओ की भी वेकेंसी आई हुई है वह भी 700-800 पद के लिए। मैंने उसका फार्म भी लेकर भर दिया। एसबीआई पीओ की परीक्षा उस समय बहुत टफ मानी जाती थी। सालों तैयारी करते हुए जिसका स्टैन्डर्ड आ जाए उसमें से एकाध ही क्वालीफाई कर पाता था। लेकिन तैयारी क्या और स्टैन्डर्ड क्या। सब कोई सब फार्म भरता था जिसका जो हो जाए। एक दिक्कत थी कि मैं साधारण परिवार से था और कुछ अपना चलाने और कुछ घरका हाथ बंटाने के लिए आठ-आठ घंटे ट्यूशन पढ़ाता था। भागम-भाग से अपनी तैयारी कुछ उस तरह से हो नहीं पाती थी फिर भी जो पढ़ता ठोस और मन लगाकर।
जब परीक्षा के लिए एडमिट कार्ड आया तो दोनों परीक्षाओं की डेट आश्चर्यजनक रूप से एक ही थी। पहले तो फार्म साथ-साथ भराया गया अब परीक्षाएं भी एक ही डेट पर। मैं पशोपेश में था किसे दूँ, किसे नहीं। थोड़ा ध्यान दिया तो पाया कि एसबीआई की परीक्षा फर्स्ट सिटींग में थी सेंटर था राजा राममोहन राय सेमीनरी हायर सेकेंडरी स्कुल और एसएससी की परीक्षा सेकेंड सिटिंग में, साइंस कॉलेज में। एक खजांची रोड में दूसरा अशोक राजपथ पर। दोनों आस-पास थे डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर। अब उम्मीद जगी की मैं तो दोनों परीक्षाएं दे सकता हूँ।
परीक्षा के एक दिन पहले मैंने जसीडीह में सुपर पकड़ा और देर शाम तक पटना पहुँच गया। और कंकड़बाग चला गया अपने दोस्त मुन्ना के पास। रात में वहीं ठहरा और सबेरे सात-साढ़े सात बजे खजांची रोड के लिए निकल गया। वहाँ रिर्पोटिंग टाइम थी नौ बजे। परीक्षा का समय था दस से एक बजे, तीन घंटा। साइंस काॅलेज में एसएससी की परीक्षा थी दोपहर में दो से चार बजे तक।
एसबीआई पीओ की परीक्षा का मैथ तो ठीक था पर नान-भर्बल रीजनिंग माथे के ऊपर से गुजर रहा था। परीक्षा दी और तसल्ली हो गया इसमें नहीं होगा। लेकिन सर भारी हो चुका था। मैंने बैग टांगी और बुझे मन से साइंस काॅलेज के लिए निकल गया। अशोक राजपथ पर आकर मैनें एक ग्लास मैंगों सैक पिया लेकिन कुछ खाने का मन नहीं हुआ। साइंस काॅलेज में आया तो उसी बेमन से एसएससी का एडमीट कार्ड निकाला और मैन गेट के पास नोटिस बोर्ड में अपना सिटींग पोजीशन देखा। यह सामने वाले एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक में था। समय होते ही अपने रूम में जाकर बैठ गया।
इनविजीलेटर ने आंसर सीट दी और मैं रोल नंबर वगैरह भरकर क्वेश्चन पैपर के लिए बैठ गया। जब क्वेश्चन पैपर के लिए घंटी बजी तो उस समय क्या देखता हूँ कि एक लड़का बदहवासी से हॉल में घुसा और इनविजीलेटर से कुछ बातें करने लगा। उसे देखकर लगा कि कितना लापरवाह लड़का है, इतनी देर से कोई आता है। इसके बाद वह लड़का एक-एक बेंच पर रोल नंबर देखते हुए मेरे ठीक सामने आकर रुक गया। मैं अगर कुछ भूल नहीं कर रहा हूँ तो वह बातचीत कुछ इस प्रकार थीः-
लड़का- “यह सीट मेरा है।।”
मैं- “पागल है क्या जी?? मेरा सीट है देखो मेरा रोल नंबर।” मैंने टेबल पर चिपकी पर्ची उसे दिखाते हुए कहा।
लड़का- “रोल नंबर क्यों देख रहे हैं टिकट नंबर देखिए न। सिटींग तो टिकट नंबर पर होता है न!”
एसएससी की परीक्षा के एडमीट कार्ड पर दो नंबर होते थे एक था रोल नंबर जो अंत तक स्थायी बना रहता था और दूसरा टिकट नंबर जिसपर सिटींग पोजीशन निर्धारित होती थी।
अब मेरा माथा ठनका, सही तो। एक क्षण के लिए मैनें अपना रोल नंबर देखा तो वह टेबल के टिकट नंबर से मेल खा रहा था और मेरा टिकट नंबर अलग था, मतलब यह मेरा सीट था ही नहीं। फिर मेरा सीट कहाँ है? एक क्षण के लिए मुझे दिन में तारे दिख गए और मेरे सारे सपने मानो हवा हो गए। मन-ही-मन बिट्टू से कह रहा था तुम मिठाई खिलाने की बात कर रहे थे, मेरा इग्जाम तक नहीं हो पाया।
मैं- “फिर मेरा सीट कहाँ है??”
लड़का – “आप जाकर मैन गेट पर देखिए ना।”
मैन गेट मतलब बाहर............ तबतक एडमिनीस्ट्रेटीव ब्लॉक बंद कर दिया गया था जैसा कि इस तरह के इग्जाम में होता है। मैं कमरे से निकलकर बाहर की ओर भागा और बंद दरवाजे के दोनों तरफ कोई नहीं था। मैं एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे और दूसरे दरवाजे से फिर पहले दरवाजे की तरफ आया तो एक गार्ड नजर आया। मैंने उससे प्रार्थना की कि मैं गलती से इस ब्लॉक में चला आया हूँ। उसने थोड़ी निराशा से मेरी ओर देखा फिर दरवाजा खोल दिया। मैं भागा मैन गेट की ओर.... वहाँ नोटिस बोर्ड को दो बार बारीकी से देखा और अपना टिकट नंबर मिलाया। मेरा सेंटर था फिजीक्स ब्लॉक जो मैन गेट से लगभग तीन-चार सौ मीटर दूरी पर था। ये दूरी मैंने दौड़कर पूरी की। फिजीक्स ब्लॉक मेरे सामने था, मैं अपने कमरे में गया। सभी निगाहें मेरी तरफ थीं, मैं उस समय जो उस लड़के के लिए सोच रहा था वही ब्याज सहित लौटने की बारी थी। मैं दो घंटे के इग्जाम में पूरे दस मिनट लेट था।
जब परीक्षा देकर बड़ी संख्या में अभ्यर्थी प्लेट फार्म पर जमा थे तो सब अपने स्कोरिंग के बारे में बातें कर रहे थे। उनमें से अधिक-से-अधिक कोई 135 या 140 होने की कह रहा था, मेरा आंकड़े 165 बयां कर रहे थे। जब इसी परीक्षा का मैन्स लिखा तो मैंने दो घंटे का मैथ्स का पैपर एक घंटे और पांच मिनट में ही पूरा कर लिया। मैंने पहली ही प्रयास में एसएससी क्रैक कर लिया था और मेरा AIR था 53।
मैं आज जब उस घड़ी को याद करता हूँ तो सोचता हूँ, मैं गलत जगह पर बैठा था सही है, लेकिन वो लड़का उतनी देर तक कहाँ था। और क्या उससे भी वही भूल हुई थी जैसी की मुझसे। बात चाहे जो भी रही हो दोनों की गलतियों का टकराने का परिणाम सुखद रहा था।
--पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)