अहम.
कोटा शहर के प्रतिष्ठित इंस्टिट्यूट अंशल क्लासेस का कम्पाउंड, छात्र-छात्राओं की गहमागहमी से बेजार था। जेईई एडवांस्ड का परिणाम आया था। ढाई लाख अभ्यर्थियों में करीब चालीस हजार के हाथ सफलता लगी थी। कुछ चेहरे प्रफ्फुलित थे तो कुछ मायूस। ऐसे माहौल में दो दोस्त अनिकेश चेतन और हर्षित आनंद केंटीन के टेबुल पर डटे थे।
हर्षित- “कांग्रेट्स ड्यूड नाउ यू आर क्वालिफाइड।“
अनिकेश- “हाँ यार लेकिन आज तू बिलकुल बुझा हुआ क्यों है, होता है न यार सारे के रिजल्ट तो एक नहीं आ जाते न। यू शुड ट्रस्ट योरसेल्फ। तुम अगली बार क्रेक कर रहे हो।”
हर्षित- “नहीं ऐसा तो नहीं है, आज तुम्हारे पसंद का बड़ा पाव मंगाते हैं, और साथ में क्या लेगा बोल।”
अनिकेश- “तुम हाॅस्टल में हाउस कीपर से क्यों उलझ रहे थे, ऐसा करते तो तुम्हें नहीं देखा कभी।”
हर्षित दांत भींजते हुए- “उलझे नहीं तो सर पर बैठा लें उसको। काम तो आता नहीं उसको।”
अनिकेश चुप ही रहा। हर्षित इतनी ऊँची आवाज में उससे भी बात नहीं किया था। वह समझ रहा था कि उसके दोस्त को भीतर कुछ साल रहा है।
हर्षित हाॅस्टल की टैरेस पर था कि तभी उसकी माँ का फोन आया।
“क्या हुआ हर्षित तुम अनिकेश से उखड़कर बातें कर रहे थे। क्या हुआ बेटा तुम रिजल्ट के बारे में तो नहीं सोच रहा है, इस बार नहीं हुआ तो अगले बार हो जाएगा।“
“नहीं तो मम्मी, अनिकेश को यूं ही लगता है। तुम टेन्शन मत लो, मुझे कोई दिक्कत नहीं है। पापा ठीक है न, खाना खाए? उनका केयर करना है तुमको।“
“तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे मैं हूँ ही नहीं। पापा के लिए केयर मैं नहीं लूंगी तो कौन लेगा। मुझे टेन्शन नहीं लेने कह रहे हो, मुझे तो तुम टेन्शन में लग रहे हो।”
“नहीं मम्मी मैं अब और टेन्शन नहीं दूंगा, तुम सब को। कल से सब ठीक हो जाएगा।“
मम्मी ने उसकी आवाज में खलीश को महसूस किया। फिर भी वह बोली- “तुम्हारी बातें न, कुछ समझ में नहीं आती है। माना कि पापा की तबीयत ठीक नहीं रहती, कुछ खर्च भी बढ़ा है लेकिन हमारे साथ हमारा बेटा है न तो कल भी ठीक था और आज भी ठीक है।”
मम्मी ने हाॅस्टल फोन किया, अपने पति को कुछ समझाया और बैग लेकर स्टेशन के लिए निकल गई।
हर्षित हाॅस्टल के कमरे में सोने जा ही रहा था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। हर्षित बाहर निकला, तो सामने वार्डन और हाउस कीपर बाॅय राजू था। इससे पहले की वह कुछ बोलता कि वार्डन ने कहा- “राजू ने बताया कि सुबह उससे कुछ गलती हुई है इसलिए वह माफी मांगने आया है।“
हर्षित- “नहीं सर, गलती राजू से नहीं मुझसे हुई है। मैंने ही आपा खो दिया था और मुझे खेद है कि मैंने इसे भला-बुरा कहा। लेकिन आगे से ऐसा नहीं होगा सर अब आज के बाद से कभी गलती नहीं होगा।”
वार्डन- “लेकिन इसने तो खुद डायरेक्टर सर से कहा कि गलती सरासर इसकी है। तो डायरेक्टर साहब ने इसे गलती की सजा भी सुना दी है। आज राजू तुम्हारे कमरे में सोएगा। तब न बच्चू को पता चलेगा कि प्रेशर क्या चीज होती है।“
हर्षित- “लेकिन सर.....।”
वार्डन- “लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, तुम तो जानते हो न डायरेक्टर सर को। जो कह दिया सो कह दिया।”
राजू ने दरवाजा बंद किया और अपने साथ लाए बेडिंग को फर्श पर बिछाकर सो गया। सो गया नहीं सिर्फ सोने का नाटक किया और पूरी रात आँखों में ही काटी। वह महसूस करता रहा कि हर्षित भी रात भर बैचेन रहा। एक पल के लिए भी नहीं सोया। आखिर क्या बैचेनी थी उसकी।
थोड़ी देर के लिए आँख लगने के बाद सुबह तड़के राजू जगा तो हर्षित को सोते हुए पाया। वह दरवाजा सटाकर बाहर टाॅयलेट के लिए चला गया। जब वापस आया तो हर्षित कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर चुका था। उसने दरवाजा खटखटाया तो कोई आवाज नहीं आई। उसने जोर से खटखटाया तो भी कुछ नहीं। वह भागा खिड़की की तरफ, खिड़की भी बंद थी। वह रोने लगा और रोते-रोते ही बोला- “दरवाजा खोल दो मेरे भाई, नहीं तो मेरी नौकरी चली जाएगी। भगवान के लिए दरवाजा खोल दो।”
“राजू तुम जाओ यहाँ से, अब मुझे जगा नहीं पाओगे। मैं जगने के लायक हूँ भी नहीं।”
राजू सन्न। उसके पैरों तले जैसे जमीन निकल गई। वह बेतहाशा भागा। वार्डन के कमरे तक गया और रोते हुए वार्डन से कहा-“सर जल्दी चलिए, हर्षित अपनी ईहलीला खत्म करने पर तुला है।”
वार्डन, गार्ड और राजू को लेकर हर्षित के कमरे की ओर भागा। सभी मिलकर दरवाजे को जोर-जोर से धक्का देते रहे, दरवाजे से कंधा भी टकराया पर दरवाजा टस-से-मस नहीं हुआ। लगा जैसे कोई भारी चीज जैसे अलमारी, दरवाजे के पीछे रख दी गई हो। वार्डन ने गार्ड की तरफ देखते हुए बोला- “जल्दी करो, खिड़की तोड़ दो।” गार्ड ने लोहे के एंगल से खिड़की पर दे मारा और खिड़की का एक हिस्सा टूटा। इस बार अंदर से गाढ़ी आवाज आई- “सर छोड़ दो यह सब.......... जब तक आप मुझ तक पहुँचोगे मैं बहुत दूर जा चुकूंगा।”
“वार्डन सर आप लोग छोड़ दीजिए, मैं जानता हूँ वह दरवाजा नहीं खोलेगा।” यह आवाज एक महिला की थी, हर्षित की माँ का।
हर्षित की माँ खिड़की में बने दरार के पास आई। हर्षित पंखे के नीचे झूलती रस्सी से हरकत कर रहा था। माँ की बेटे से आँखें मिली। हर्षित नजरें नीचे करते हुए ही कहा- “मम्मी तुम जाओ यहाँ से, अब बहुत देर हो चुकी है मैं अब और तुम लोगों पर बोझ नहीं बनना चाहता हूँ।“
“जाओ यहाँ से........... क्यों?? जो माँ जन्म दे सकती है वह तुम्हें जाते हुए भी देख सकती है। तुम डिगा दो अभी इतनी असहाय नहीं हुई तुम्हारी माँ। और क्या कहा तुमने बोझ। तुम दिखाना चाहते हो कि तुम अयोग्य हो और इसकी सजा तुम अपने आप को देने जा रहे हो। नहीं तुम अयोग्य नहीं अहंकारी हो तुम .................... सुना तुमसे किसी ने न कहा होगा मैं कह देती हूँ अहंकारी हो तुम। और अपने अहंकार में इतने अंधे हो चुके हो कि इसके सामने तुम्हारा जीवन छोटा पड़ गया है।“
“मम्मी..............” माँ की बात से भीतर तक दहल गया वह।
“तुम दिखाना चाहते हो कि तुम्हें मलाल है अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरने का..................... नहीं ये सच नहीं है, सच यह है कि तुमने अहंकार के सामने घुटने टेक दिए हैं। तुम हेल्पर का काम करो तो हम तुमको टिफीन तैयार करके देंगे, तुम रेहड़ी डाल लो हम तुम्हारा ठेला साफ कर लेंगे। तुम कुछ भी करो हमें तो कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत तुझमें है कि इंजीनियर नहीं बन पाओगे तो समाप्त कर लोगे खुद को। माता-पिता की अपेक्षा तो केवल यही रहती है कि उसकी संतान जिम्मेदार बने और यह कतई जरूरी नहीं कि संतान आईआईटी कॉम्पीट करेगा तभी जिम्मेदार होगा। और जिम्मेदार तुम क्या ही बनोगे, तुम तो मतलबी निकले।”
“तुम क्या बोले जा रही हो माँ, मैं तो मेरे शरीर से भी मतलब नहीं रखना चाहता।”
“मैंने तो सिर्फ मतलबी कहा पर तुमने तो सिद्ध कर दिया। ये शरीर तुम्हारा कैसे हुआ, परमात्मा ने जीवन दिया, माँ-बाप ने जन्म दिया, परिवार ने लाड़-प्यार से रखा, समाज में पला और इस देश के संसाधनों ने उसे जवान किया तो फिर ये शरीर केवल तुम्हारा कैसे हुआ?”
कुछ देर मौन रहकर फिर “कैसी बेईमानों जैसी भाषा बोल रहे हो कि ये शरीर तुम्हारा है। तुम क्या करते हो इसपर किसी का नियंत्रण नहीं है, क्योंकि तुम्हारा आचरण तुम्हारी स्वतंत्रता होगी लेकिन, जीवन परमात्मा का दिया है और वही इसका मालिक है। शरीर तो माता-पिता का होता है, नाते-रिश्तेदारों को होता है, दोस्तों का होता है, समाज का होता है और इन सबसे बढ़कर इस देश का है जिसने अपनी माटी में तुम्हें पाला-पोसा बड़ा किया। किसी को खुद के शरीर को नुकसान पहुँचाने का कोई हक उसे नहीं बनता है। इसलिए विधान भी इसकी इजाजत नहीं देता और चोरी, डकैती, हत्या जितना संगीन जुर्म है अपने शरीर को खुद नुकसान पहुँचाना।”
“रिजल्ट के बाद तो पापा भी मुझसे बुझ गए होंगे, मन-ही-मन फटकार रहे होंगे मुझे।”
“पापा डांट दे या फटकार दे तो तुम्हारे अहम को चोट लग जाती है, और जब पापा प्यार करते हैं तो क्या तुम आसमान पर ले जाते हो उन्हें। तुम्हारा अहम तुम्हारे माता-पिता से भी बड़ा हो गया है कि तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते।”
हर्षित भरभराकर रह गया। ग्लानि में उसने नजरें नीची कर ली मानो चोरी करते हुए पकड़ लिया गया हो। लेकिन उसे वह ज्ञान मिला था जो इस घड़ी न मिलता तो अनर्थ हो जाता। वह दौड़ा, वजन हटा दरवाजा खोला, और अपने गुरु, अपने माता के चरणों में गिर पड़ा। माँ की नेत्रों से भी ममता का बांध टूट कर बहने लगा था। उसने अपने बच्चे को एक ही जीवन में दूसरी बार जन्म दिया था।
-- पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)