अव्यक्त.
मैं प्रायः सवेरे जग जाता हूँ या डीएसओ साहब की रींग तड़के मेरे फोन पर गूंज उठती है। मेरे देवघर शिफ्ट करने के बाद एक अच्छी बात यह रही है कि मुझे डीएसओ साहब जो अभी हाल में ही रिटायर हुए हैं, उनकी कंपनी मिल गई। हम दोनों साथ में मॉर्निंग वॉक के लिए निकलते हैं। पहले तो अकसर भेंट हो ही जाती थी कारण कि ड्यूटी के लिए हम साथ में सफर करते। डीएसओ साहब, बिलकुल सरल और सहज आदमी।
रास्ते में पास से जाते, काले प्रौढ़ होते बछड़े को मैंने रोका। आवाज सुनते ही वो ठिठक गया। दोनों हाथों से मैंने उसकी गर्दन को प्यार से सहलाया और उसके मांसल थूथनों पर चपत लगाई। गऊएँ मुझे बेहद प्यारी लगती हैं और मुझे उसके प्रति अपना प्रेम को प्रकट करने में कोई झिझक नहीं होती बल्कि मैं इस प्रेम को खुलकर इजहार करता हूँ। उस बछड़े से मुझे खटाल के दोनों बछड़े याद पड़ गए। जब मैं दूध का कंटेनर लिए खटाल में पहुंचूं तो दोनों मारे खुशी के अपने गर्दन हिलाने लगते कारण कि मेरे पास उनके लिए रात की रोटी जो रहती है। कितना निर्दोषपन.... उसे सहलाकर या बतियाकर मेरा दिन बन जाता है।
डीएसओ साहब बोले छोड़िए नंदन पहाड़, चलिए आपको एक नया जगह ले चलते हैं बुद्धा पहाड़, ज्यादा दूर नहीं है। बुद्धा पहाड़, प्रकृति की नेमत है यह जगह। काले चट्टानों से बनी छोटी सी पहाड़ीनुमा जगह नंदन पहाड़ के बगल में। इसकी उँचाई से विहंगम दृश्य दिखाई देता है- पसरे हुए धानी खेत, जसीडीह से लगती बीआईटी मेसरा की बिल्डिंग, दुमका रूट का रेलवे पूल, बाबा मंदिर के तर्ज पर बना बैद्यनाथधाम रेलवे स्टेशन, सत्संग की मेस बिल्डिंग, जटाही की तरफ हरे पेड़ों का झुरमुट और चिल्ड्रेन पार्क लिए अकड़ के खड़ा नंदन पहाड़ सब कुछ।
पहाड़ पर दो सपाट पत्थर चुनकर हम दोनों सुबह की वरजिश के लिए जम गए। अभी लेटकर नीले आसमान की ओर देख ही रहा था कि दो सुर्ख रंग की तितलियां एक-के-पीछे मेरे ऊपर से गुजरी जैसे हमारी आवभगत कर रही हो। बुद्धा पहाड़ और भी अलहदा खूबसूरत होती अगर रसीकों ने रसपान कर सोमरस की पा़त्रों(बोतल) को चूर कर काली चट्टानों पर बिखेर न दिया होता तो। बुद्धा पहाड़ को पार्क बनाने के लिए विकसित किया जा रहा है, हो सकता है इसका दिन बहुरे।
डीएसओ साहब बीच में बोल उठे- “देखिए हम लोग के ऊपर चील आ रही है।”
मैं आकाश में चील की बादशाहत देखने पलटा, क्या उड़ान थी। दोनों डैनों को सम्पूर्ण फैलाकर आसमान को चीरते हुए............. वाह। मैंने आकाश के विजेता को आवाज दी- “हैलो.....हाय.........हाव आर यू।“ वह बेतरतीब उड़ता रहा। डीएसओ साहब से रहा नहीं गया, बोले- “आप तो ऐसा न करते हैं कि। जानते हैं मेरे घर के ऊपर एक चील बैठ गया था और जिस महिला ने देखी, वह बोल रही थी कि घर पर चील का बैठना अशुभ होता है। और जो देख ले और गृहस्वामी को न बताए तो दोष देखने वाले को लग जाता है। इसलिए वह महिला हमारे घर में आकर चील बैठने के बारे में बोल के गई।” फिर कुछ रुककर “वह अपना दोष तो मिटा ली, और दोष हमपर चढ़वा दिया। हम लोग फिर पंडितजी से पूछे तो पंडितजी ने कहा कि चील छत पर नहीं बैठेगा तो कहाँ बैठेगा, ऊंचाई है बैठ गया।”
मैं बोला-“इस बार पंडितजी बढ़िया मिले आपको। जानते हैं दोष तो लगेगा और केवल आपको, हमको और उस महिला को नहीं, पूरी मानवता को। हमारे चलते यह जीव उन्मूलन के कगार पर है। हमने उन्हें उजाड़ा, गोरैया को भी नहीं छोड़ा, गिद्ध नजर नहीं आते। तो अगले बार ऐसा कोई जीव आपके छत पर दिखे न तो उन्हें दाना-पानी दीजिएगा और मुहल्ले में लड्डू बँटवाइएगा क्या पता अपने बचे अस्तित्व का पुण्य देने वह सीधा आपके घर तक आ पहुँचा हो।”
बोलते-बोलते कुत्ते की करुणा भरी काँय-काँय की आवाज आने लगी। मैंने भी वहीं बैठे-बैठे उसे आवाज लगाई- “क्या हुआ रे, काहे हल्ला?” वह कुत्ता एक पैर से लंगड़ाते-लंगड़ाते हमारे करीब आकर बैठ गया। डीएसओ साहब बोल उठे- “लगता है इसे कोई मारा है।” हम लोगों ने ऊपर देखा किशोरों का एक झुण्ड पहाड़ी पर सक्रिय था, उनके हाथों में पत्थर थे। उफ्फ! फिर बेजबान को। कैसी विडंबना है हर जगह केवल मनुष्य ही रहे वो भी अपने टनों वजनी मानसिक कचरे के साथ।
“आपने आवाज दिया तो कुत्ता पास आकर बैठ गया। हम लोग को देखकर ही समझ गया यहां इसे कोई नहीं मारेगा।” मैंने बोला- “इतना समझता है ये सब।” “तो समझता नहीं है।” इस बार डीएसओ साहब ने मुझे आश्वस्त किया।
मेरा ध्यान बरबस खींच गया। मेरी सबसे बड़ी दीदी कल ही आई थी और जाने की जिद कर रही थी। हमने उसे बोला कि इतने दिन बाद तो आई हो, रुक जाओ। वह बोली कि नहीं उसकी गैया खोजने लगती है। एक बार वह चार दिन के लिए यहाँ रह गई थी तो उसके घर से फोन आ गया था कि उसकी गाय रो रही है उसके आँख से आँसू झर रहे हैं। ठीक से चारा भी नहीं खा रही है। जब वह लौट के गई तो गाय चिपकने लगी उससे जैसे उसे उलाहना दे रही हो कि मुझे छोड़कर चली गई थी न बोलो कहाँ चली गई थी।
हम लोग ऊँची आवाज में गाना गाते हुए पहाड़ सेे लौट रहे थे और रास्ते में रेल की पटरियों पर बकरियों का एक झुण्ड मिल गया, उजली, काली, चितकबरी। उनमें कुछ बच्चे भी थे और अपनी माँ के पास फुदक रहे थे। सफेद बकरी का बच्चा उसके शरीर पर कुछ ब्लैक स्पाॅट भी था। मैंने उसे टारगेट किया, वह छिटका पर मैंने एक पैर से उसे धर लिया। जब उसे गोद में लिया तो उसने समर्पण कर दिया। कितने मुलायम रोएँ थे उसके। बिलकुल फर की तरह। मैंने जब उसे छोड़ा तो वह वापस फुदकते हुए अपनी माँ के पास चला गया। यह सब देखकर बगल में खड़ी बकरियों की मालकिन मुस्करा उठी।
जब हम सड़क से गली में आए तो एक भूरी आँखों वाली सुंदर बिल्ली को देखा, वह इठलाते हुए गली के एक तरफ के मकान से उतरकर दूसरी ओर के मकान में चली गई। उसे रास्ता काटते देख समानांतर चल रहा बालू लदा ट्रैक्टर ब्रेक लगाया झट से। मैंने ट्रैक्टर को आवाज दी लो तुरंत तुम्हारा जात्रा ठीक किए देते हैं। और हम लोग झटककर ट्रैक्टर से आगे निकल लिए। डीएसओ साहब ने हमारी तरफ देखा और हम दोनों ही हंस पड़े।
यह है हम सब के आसपास की दुनिया..........अभिन्न और अव्यक्त।
-पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)