गंगा
साहेबगंज की गंगा की धार के किनारे बसे दो गरीब परिवार में जैसे भी हो आपस में बनती थी। तट से लगे बस्ती की समाप्ति के बाद बाढ़ का पानी रोकने के लिए तट बंध बना था जिससे आगे नदी की ढलान शुरू होती थी। तट बंध के उस पार वहाँ केवल इन दो परिवारों का घर था। सौमित्र अपने माता-पिता के साथ दो कमरे के घर में रहता था, जिसकी दीवारें बिना पलस्तर की थी। बंगाल की गरीबी से तंग आकर अच्छी रोजी-रोटी कमाने यह परिवार यहाँ पलायन कर गया था। पिता कारीगरी का काम करते तो माँ रोज सबेरे दियारा में मजूरी के लिए निकल जाती। गंगा के उसपार के उपजाऊ क्षेत्र को दियारा कहा जाता है और साल के एक मौसम में पानी में डूबे रहने के कारण दियारा आबाद नहीं होता केवल खेती के लिए लोग उधर जाते हैं। सौमित्र के घर के और आगे फूस और करकट के मकान में निजाम मियाँ रहकर नाविकों और मछुआरों की नाव और स्टिमर ठीक करते थे। अकरम निजाम मियाँ की चौथी संतान था।
अकरम और सौमित्र बचपन से ही मित्र थे। बस्ती से तट बंध की दूरी, अकरम और सौमित्र की दोस्ती को बढ़ाती थी। खाना-पीना, पढ़ना-लिखना, खेलना-कूदना और सिंचाई विभाग के बार्ज से गंगा में कूद कर नहाना सब साथ था। एक-दूसरे को एक पल के लिए छोड़ना भी गंवारा नहीं था उनको। शुरू में तो सबों ने हलके में लिया की बड़े हो जाएंगे तो अपनी-अपनी राह पकड़ लेंगे। लेकिन जब उम्र बढ़ी तो घरवालों को नागवार लगना शुरू हुआ। अकरम की अम्मी ने एक दिन आखिर अकरम से कह ही दिया कि ‘क्यों रे, तू सौमित्र के बगैर कभी रह क्यों नहीं सकता वो तो हिंदू है कलेजा निकाल के रख दो तो भी तुम्हारा भरोसा कभी नहीं करेगा।’ तो सौमित्र की माँ ने भी उसको चेताया कि ‘हर घड़ी यूं अकरम के साथ लटकना सही नहीं है। वो अलग धरम का है और उसके साथ रहने से धरम चला जाता है।’ भला बच्चों को क्या समझ में आती ये सब बातें, एक कान से सुनते और दूसरे से निकाल फेंकते।
स्कूल में दोनों गोरे सर के अजीज थे। कारण की दोनों ने स्कूल की डबल विकेट क्रिकेट में गोरे सर के लिए खेले थे और उन्हें ट्राफी दिलवा दी थी। गोरे सर तभी से दोनों को जय-विरू की जोड़ी कहकर बुलाते। सौमित्र टीम इंडिया के शमी की तरह गेंद में धार और रफ्तार लाने का अभ्यास करता तो अकरम विराट के कसीदे पढ़ता।
एक बार स्कूल में अकरम की साथी बच्चों से लड़ाई ठनी तो अकरम अकेला पड़ गया और पीटता ही। पर सौमित्र उसकी ढाल बनकर खड़ा हो गया। छू के भी तो देखे कोई, उसके रहते कौन उसपर हाथ डाल सकता है। अकरम की तो सिट्टी-पीट्टी गुल हो गयी थी। अगर सौमित्र समय पर नहीं उठता तो आज जबरदस्त मार पड़ती। एक पखवाड़े बाद सौमित्र सुनसान जगह में साइकिल की स्पीड बढ़ाने के चक्कर में संतुलन खोया और बुरी तरह गीर पड़ा। जगह-जगह जख्म, उसका शरीर लहूलुहान हो गया था। खुशकिस्मत था कि अकरम साथ में था। उसी ने उसे अपनी साइकिल में बिठाकर डिस्पेंसरी तक लेकर गया और मरहम-पट्टी कराई। यही कारण था कि लोग और घरवाले बोलते रहते थे पर उनका चोली-दामन का साथ नहीं छूटता था।
लेकिन उस दिन सौमित्र के घर काली पूजा था और उसके घर में बकरे की बलि दी जा रही थी। सौमित्र अकरम को भी बलि का प्रसाद खाने घर बुलाया था पर जब दिन पार करने लगा तो भी अकरम नहीं आया। अकरम के बिना सौमित्र का खाने का मन नहीं हुआ। तो सौमित्र की माँ ने उलाहना देते हुए कह कि ‘ जिसके इंतजार में तुम सामने का प्रसाद नहीं खा रहे, वह नहीं आने वाला। इसलिए कि वह हमारी बलि का प्रसाद खा ही नहीं सकता क्योंकि जिबह के अलावा किसी तरह की कुरबानी को वे लोग हराम मानते हैं, इसलिए वह नहीं आएगा।’
सौमित्र ने बालमन से कहा- “लेकिन क्यों माँ, हमलोग तो जिबह का खा लेते हैं?”
माँ- “बताया न वे हमारी बलि को अपने धरम में हराम मानते हैं।”
अगले दिन दोनों स्कूल में मिले तो उसमें अपनापन और पहले वाला प्यार गायब था। एक नहीं दिखाई देनेवाली दीवार दोनों के बीच तैरने लगी थी। अकरम उस दिन जालीदार सफेद टोपी पहनकर और आँखों में कोई चमकदार सी चीज लगा कर आया था।
सौमित्र ने पूछ लिया- “ये तुमने क्या पहन रखी है और आँखों में क्या लगा रखा है?”
अनवर ने उसकी हाथों की ओर इशारा करते हुए और सवाल का जवाब सवाल से देते हुए कहा- “ वैसे ही जैसे तुमने ये कलेवा हाथों में बंधा रखा हैै और सर पर तिलक लगा लेते हो। और ये हमारी नमाजी टोपी है और इसे पहनकर हम जुम्मे की नमाज अदा करते हैं।”
सौमित्र- “बस-बस मैं समझ गया और ये नमाजी टोपी, लेकिन पहले तो तुम्हें इस तरह की टोपी पहने नहीं देखा। और कल तुम हमारे घर क्यों नहीं आए थे?”
अनवर ने साफ लफ्जों में कहा- “क्योंकि हमारे धरम में झटके का मीट खाना मना है।”
सौमित्र ने इसपर बिना रुके कहता चला गया- “लेकिन हम तो तुम्हारी ईद की सेवईयाँ खा लेते हैं।”
इसके जवाब में ना अकरम ने कुछ कहा न ही सौमित्र ने बात बढ़ाई पर वह दोस्त के रूखे पन से बुझा-सा हो गया।
अब वे दोनों मिलते तो खामोश हो जाते। पहले की जिंदा दिली थी कि लौट के आ नहीं रही थी। दोनों एक दूसरे के ही नहीं, एक दूसरे के धर्म के प्रतीकों, चिन्हों, तौर-तरीकों आदि को गौर से देखने लगे और एक-दूसरे से दूर होने लगे। सौमित्र इधर अकरम को देखता तो वह दाढ़ी वाले मौलवियों की संगत में अधिक रहने लगा था। सौमित्र देखा-देखी उसको छोड़ हिंदू मित्रों के बीच जा बैठता। और नजर मिलने पर भी दोनों एक-दूसरे से कटने की कोशिश करते। गोरे सर ने तो एकाध बार फिकरे
भी कसे कि ‘जय-विरू की शोले अलग कैसे बन रही है।’ लेकिन दोनों मौन साधकर गोरे सर की क्लास पार कर जाते। गोरे सर को लगा कि ये बच्चों की रोज की अनबन है और कुछ दिन में फिर एक ही थाली के चट्टे-बट्टे रह जाएंगे। लेकिन दिन महीने होने लगे।
दोनों की दोस्ती के चर्चे थे तो दोनों के दुराव में भी लोगों की दिलचस्पी थी। अकरम के परिचित मुसलमान उसे समझाते कि 'किसी हिंदू के लिए वे लोग सगा हो ही नहीं सकते, वे उन्हें बाहरी समझते हैं और उनका बस चले तो वे हम मुसलमानों को पाकिस्तान भेज दे। वे खाली रहते हुए भी मुसलमानों को किराये का मकान तक नहीं देते, काम रहने पर भी काम नहीं देते हैं। उनका चूहा भी मर जाए तो हमें शक की नजर से देखते हैं और हमें जिहादी और गद्दार कहते हैं। जैसे इनके राजे-रजवाड़ों ने अपनी अय्याशी के चलते मुगलों और अंग्रेजों को हिंदुस्तान की गद्दी पर बैठा कर अपने वतन से खूब वफ़ादारी दिखाई थी। ये जातियों में इस कदर बंटे हैं की अपने लोगों के साथ मिलकर रह नहीं पाते तो हमसे खाक हो मिलेंगे।'
इधर सौमित्र के पड़ोसी हिंदू उससे कहते कि 'अच्छा हुआ कि मुसलमान को छोड़ दिया, ये भारत में रहेंगे और पाकिस्तान की हिमायत करेंगे। और इनका चले तो हिंदूस्तान को इस्लामिक स्टेट कर दे इसलिए, गजवा-ए-हिंद का नारा लगाते हैं। देखते नहीं कितनी आबादी बढ़ा रखी है इन्होंने।' सौमित्र इन बातों में इस कदर तक डूबा कि गजवा-ए-हिंद का क्या मतलब होता है यह जानना भी नहीं चाहा। उसकी तो भौहैं तन गई जब लोगों ने कहा कि 'उन मुहल्लों में कोई जाकर तो देखे जहाँ मुस्लिमों की संख्याबल है; देखे तो कैसा खौफ छाया रहता है। धरम के नाम पर काट-मार तक कर दे। अब तो बांग्लादेशी घुसपैठियों को भी पनाह देना शुरू कर दिया है उन्होंने।'
दोस्ती रंजिशें लेने लगी। दोनों चाहते कि कैसे दूसरे के नजर में आए बगैर उसका नुकसान कर दे। किशोरों का तनाव उनके कोमल जीवन को ही न कुचल डाले इसलिए गोरे सर ने दोनों से बात करना शुरू किया। जब मामला उनकी समझ में आ गया तो उन्होंने दोनों भटके किशोरों को अपने घर पर बुला लिया। किशोरों ने देखा कि गोरे सर के साथ हामिद उल्ला सर भी उनके घर पर पहले से आए हुए हैं।
गोरे सर- “मैं पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ तुम दोनों एक-दूसरे से कटते जा रहे हो जो कि अच्छी बात नहीं। मैंने इसकी वजह जानने की कोशिश की तो लगा तुम दोनों से अकेले मैं बात करने की जरूरत है, इसलिए तुम दोनों को यहाँ बुला लिया। मैं यहाँ किसी का कोई पक्ष लेने की बात नहीं कह रहा पर मुझे जो लगता है कि तुम दोनों नदी के दो किनारों पर खड़े हो और एक-दूसरे को उलटा कह रहे हो। लेकिन तुम्हें खुद का किनारा नहीं दिखता है। मुझे मालूम है तुम दोनों को ही यह बात इतनी जल्दी पल्ले नहीं पड़ेगी लेकिन कभी जरूर पड़ जाएगी। तुम्हें पता भी है कि धर्म का ईजाद किस लिए हुआ?“
दोनों नजरें जमीन पर गड़ाए हुए रह जाते हैं। इस बार उल्ला सर ने से कहना शुरू किया- “दरअसल किसी धर्म का ईजाद लोगों को जोड़े रखने के लिए हुआ। और सिर्फ इसलिए की किसी का धर्म अलग है, धर्म के उद्देश्य का अंत नहीं हो जाता है। तुम्हें याद है जब तुम साथ रहते और खेलते थे तब भी तो अपने-अपने धर्म में थे। तब बताओ फिर कैसे साथ रह जाते थे। कोई भी धर्म मनुष्य के लिए जिस परमात्मा की वकालत करता है वह दरअसल एक है। इसलिए हमें एक-दूसरे के धर्म का और धार्मिक भावनाओं का आदर करना चाहिए होता है। यही तो हमारी अनेकता में एकता है, गंगा-जमुनी तहजीब है।”
गोरे सर- “और तुम लोग तो अभी सीखने की उम्र में हो, अच्छी बातें सिखो न कि एक-दूसरे के प्रति दुर्भावना पालो और खुद को कमजोर करते जाओ। मैं बाॅयलाॅजी पढ़ाता हूँ और हामिद सर केमिस्ट्री पढ़ाते हैं। पर हम दोनों का साइंस से इस कदर प्यार है कि कभी मैं नहीं रहता हूँ तो हामिद सर बाॅयलाॅजी की क्लास ले लेते हैं और जब कभी हामिद सर घर चले जाते हैं तो मैं तुम सब को केमिस्ट्री पढ़ा कर अपनी चाह पूरा कर लेता हूँ। यहाँ तक कि जिस अख्तर साहब के सोहबत में आजकल अकरम रहता है और जो पंकज चैधरी सौमित्र को हिंदू-मुसलमान करना सिखा रहा है, दरअसल वो एक-दूसरे के बिजनेस पार्टनर हैं।” दोनों विद्यार्थियों की धुंध छंट रही थी।
और जाते-जाते हामिद सर ने उनदोनों से कहा- “और ये भी याद रखना चाहे जिबह से हो या झटके से, जान तो किसी मासूम बेजुबान की ही जाती है।”
कहते हैं न कि देश-दुनिया जुड़ी हुई है, एक-दूसरे से बंधी हुई। उत्तर भारत में पिछले तीन दिनों जारी भयंकर बारिश ने झारखंड की गंगा में उफान ला दिया था। नदी की विपुल जलराशि तटों को निगल रही थी। जिस तट बंध के पार दोनों पड़ोसियों का आश्रय था वहाँ भी हाहाकार था। अकरम के करकट की झोपड़ी तट के एकदम करीब था जिसकी तली को नदी धीरे-धीरे खोखली करती जा रही थी। अकरम के अब्बा को अपने परिवार से झुग्गी खाली करा एहतियातन तटबंध पर ले आना पड़ा था। लोग-बाग आते-जाते गंगा की प्रलयकारी धारा को देखते और वापस लौट पड़ते। देखते-देखते अकरम की पूरी झुग्गी गंगा में समा गई। अपना आशियाना पानी में समाते देख अकरम का रोना जैसे फूट पड़ा। वह फफकने लगा। सर से छत निकलते ही उसे महसूस होने लगा कि कितना अभागा है वह और उस घड़ी उसके परिवार से इतर कोई होता जो उसे दिलासा देता। बारिश अभी भी हो ही रही थी और एकमात्र तिरपाल जो उनलोगों के पास थी से उन्होंने घर का जरूरी समान ढक रखा था। लेकिन सबके शरीर भीग रहे थे। दुख तो सभी कोई व्यक्त करते पर छत के आसरे का हाथ कोई नहीं बढ़ा रहा था। न हिंदू न मुसलमान। सौमित्र कोलाहल सुनकर बाहर निकला तो तट बंध पर मायूस अकरम और उसके घरवालों को देखा और उसकी और दौड़ लगा दी। अपने हर दिल अजीज को इस हालत में देखकर वह भी भरभरा कर रह गया।
अकरम के आँसू बारिश के पानी के साथ मिलकर उसकी दृष्टि को ढक दिया था और तभी उसने अपने पीठ पर किसी का नरम हाथ महसूस किया, यह सौमित्र था। उसने अकरम के आँसू पोंछे और कहा- “नहीं अकरम मत रोओ। मेरे रहते तुम्हें रोने की कोई जरूरत नहीं है और मुझे माफ कर दो। मैंने तुम्हारे बारे में भला-बुरा सोचा। मैंने बाबू से बात कर लिया है जबतक तुम्हारा आसरा नहीं हो जाता तबतक चलकर मेरे घर रहो।”
अकरम ने आँसू पोछते हुए कहा- “तुम्हारे घर में, और तुम्हारा धर्म?”
“तुमने सुना नहीं गोरे सर ने क्या कहा था कि धर्म कोई भी हो एकजुट करने के लिए होता है और मेरा और तुम्हारा धर्म भी हमें एकजुट कर दिखाएगा।” सौमित्र ने विश्वास भरकर कहा।
“लेकिन दोस्त गलती दरअसल तुमसे नहीं मुझसे हुई है। आज जब हम मुसीबत में हैं तो दोस्त ही मेरे काम आया नहीं तो कोई भी हमारे साथ खड़ा नहीं हुआ।”
अकरम सामान सहित सौमित्र के घर चला आया तो सौमित्र की माँ को नहीं देखकर अचरज भरे स्वर में कहा- “और तुम्हारी अम्मी कहाँ है, दिखाई नहीं दे रही है, इतने खराब मौसम में क्या गंगा पार दियारा से नहीं लौटी है?”
“पता नहीं क्या हुआ कहीं माँ जिस स्टिमर में थी कहीं वह बारिश में खराब हो अटक तो नहीं गई। इतनी देर तो पहले कभी नहीं होती थी। बाबू ने कई सारे मछुआरों और स्टिमर वाले को कहा पर इस घड़ी कोई हमारी मदद करने को तैयार नहीं है। इस बारिश-पानी में उस पार जाने का नाम तक नहीं लेना चाहते। बाबू और मुझे उसकी बहुत चिंता हो रही है।”
“अच्छा हुआ जो तुमने मुझे बता दिया। अभी सिंचाई विभाग का बार्ज जिसपर से हमलोग गंगा में डुबकी लगाते थे उसका इंजीनियर स्टिमर से आया है बाढ़ का लेवल जांचने और वह उस पार तक जाएगा। बार्ज के इंजीनियर ने अब्बा को बुलाया था कुछ मरम्मत के लिए, इसलिए कह रहा हूँ। घर में जो खाने का सामान है ले लो और पानी भी, चाची सवेरे की भूखी-प्यासी होगी। चल हम और तुम उसपार चलते है चाची को लाने।“ अकरम ने कहा।
“तू चलेगा मेरे साथ?” सौमित्र ने रूंधे गले से कहा।
“अब तक जब हम साथ-साथ चले तो अभी तुझे अकेला कैसे छोड़ दूंगा। और फिक्र मत करो वह स्टिमर सरकारी बाबूओं को ले जा रही है, हमें डूबाएगी नहीं।” माँ स्टिमर से सकुशल घर लौट आई और सुबह के भूले दोनों साथी शाम में फिर से साथ हो गए थे।
--पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)