भोला.
जैसा नाम वैसा चरित्र, भोला सच में बहुत भोला था। खाते-पीते घर का भोला की शादी बंगाल में कर दी गई थी। लड़की भी गऊ थी इसलिए कहते हैं कि जोड़ियाँ ईश्वर बनाता है। शादी के बाद पत्नी को लेकर भोला जब ससुराल जा रहा था तो माँ ने अपने भोले को समझाकर बड़े प्यार से कहा कि बेटा ससुराल में सास-ससुर को जाकर प्रणाम करना, ज्यादा बोलना नहीं, कोई दस बात पूछे तो एक बात कहना। भोला माँ की बातों को कलेजे से लगा, बंगाल के सफर पर निकल गया। ससुराल में नए कुटुम्ब की खूब आवभगत हुई और जो चलने को हुआ तो सास ने कुछ रुपये हाथ में देते हुए कहा- “पथे किछु खेओ।” (रास्ते में कुछ खा लेना।) उसने पत्नी की ओर देखा तो पत्नी जी मुसकुरा रही थी, वह झेंप गया और झेंप के चलते कुछ पूछना भी चाहा तो नहीं पूछा।
रास्ते में उसकी मोटरर्साकिल पंचर हो गई और वह मिस्त्री को पंचर ठीक करने दे बाजार घूमने लगा। उसे भूख भी लग रही थी। वह एक किराने की दुकान देखकर उसमें गया और कहा कि उसे दस रुपये का किच्छु दे दे।
दुकानदार- “अरे दादा जिनिस टार नाम बउलो।”(अरे आदमी उस चीज का नाम तो बताओ।)
भोला ने मूल संज्ञा को कसकर पकड़ा था और कहा- “किच्छू।”
दुकानदार के पास भीड़ था- “किच्छू कि, पागोल ना कि।”(कुछ क्या बेवकुफ आदमी।)
भोला इसबार कुछ नहीं समझा और उसका मुंह देखने लगा।
दुकानदार को लगा कि यह आदमी या तो मजे ले रहा है या बुद्धू है। उसने हाथ के इशारा बताते हुए कहा- एखाने किच्छू पावा जाबे ना पोरेर बाजारे पावा जावे।(यहाँ किच्छू नहीं मिलेगा, आगे हाट पर मिलेगा।)
भोला अपना-सा मुंह लेकर आगे बढ़ गया लेकिन भीतर-भी-भीतर सख्त भी हो गया कि आज चाहे जो हो खाएगा तो किच्छू ही, नहीं तो कुछ और नहीं। वह धीरे-धीरे बढ़ता हुआ हाट पहुँच गया जो मछली खरीदने-बेचने वालों के शोर से बेजार था। उसने तय किया कि इस बार परचून की दुकान से सीधे नहीं पूछेगा, लिहाजा उसने एक खाली मछली वाले से ही पूछ लियाः
“भाई किछू किधर मिलेगा।”
“किच्छू की रोऊ।” उसने डेकची से जिंदा रोहू एक हाथ से निकालकर दिखाते हुए तसदीक के लिए पूछ लिया।
“नहीं मछली नहीं, खाने वाला किछू।”
“ओखाने जाओ।” कहकर उसने थोड़ी दूर पर एक फल वाले या यूं कहिए फल वाली के पास भेज दिया, जो जमीन पर प्लास्टिक बिछाकर कई तरह के स्थानीय फल बेच रही थी। उसमें से कुछ फल-सब्जी भोला ने देखे थे और कुछ नहीं। लेकिन उसे इस बार लगा था कि सही ठिकाना मिल गया। किछू इसी में से जरूर कोई स्वादिष्ट फल होगा; उसने मन-ही-मन में सोचा।
वह खुद को आश्वस्त दिखाते हुए कहा- “किच्छू कैसे दिये?“
जाने भोला ने क्या कहा और दुकानदार ने क्या सुना, महिला दुकानदार ने तैश से कहा- “की, तुमी कि बोलछी?” (क्या तुम क्या बोल रहे हो?)
भोला को लगा कि उससे कुछ गलत निकल गया जो नहीं निकलना चाहिए था। वह सकपका गया। और सकपकाहट में ही “कुछ नहीं, कुछ नहीं” कहते हुए वहाँ से झटक कर निकल गया। पर वह पसीने से तर-बतर हो गया। भोला उसी संशय में बाजार से बाहर निकल गया। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह किसी से कुछ और कहे या बोले। उसने थोड़ा पानी पीया और राहत की सांस ली। थोड़ी दूर चलने पर ही वह देखा कि एक महिला अपने माथे पर की डाली एक हाथ से पकड़े हुए और दूसरे हाथ से अपने बच्चे को पकड़कर बाजार से निकल रही थी। महिला जिस बच्चे का हाथ पकड़े थी वह बच्चा जोर-जोर से रो रहा था। जान पड़ता था कि बच्चे के रोने के कारण ही महिला को अपना सामान बिन बेचे बाजार से लौटना पड़ रहा है। उसे लगा कि उसकी डाली में शायद वह आखिरी उम्मीद हो, उसमें उसके पसंद का किच्छू मिल सकता हो। उसने हाथ के इशारे से महिला से पूछा कि उसकी डाली में क्या है, पर कुछ बोला नहीं।
“ओल कोचू।” महिला बोली।
नाम ने ललक लायी थी फिर भी वह तसदीक के लिए कहा- “आंय! क्या?”
परेशान महिला को लगा कि यह आदमी लेगा-वेगा कुछ नहीं बिना मतलब के पड़ताल कर रहा है। उसने उसी आवेश में पलट कर जवाब दिया- “किच्छू आछे, आपनाके केनो बोलते होबे।” (कुछ है मुझे आपको क्यों बताना है।
“तो किच्छू ही है अरे यही तो मैं खोज रहा था। रुको।” फिर बीस रुपये को नोट दिखाते हुए कहा- “बीस रुपये का किच्छू दे दो।”
“कुड़ी टाकार।”
“हाँ, हाँ।” जैसे वह सब समझ गया था।
महिला का बाजार से खाली हाथ लौटने पड़ने पर भी सारा माल बिक जा रहा था, उसने खुशी-खुशी बीस रुपये में सारा ओल गा्रहक को दे दिया। भोला ने ओल को प्यार भरी नजरों से देखा और अपनी गाड़ी की डिक्की में आगे चलकर खाने के लिए रख लिया। रास्ते में नदी मिली तो उसने ओल को अच्छी तरह धोया और नदी किनारे खाने बैठ गया। और नदी किनारे बैठकर कचर-कचर ओल खाना शुरू किया, दो-चार मुंह भर उसने खाया ही था कि ओल के रस से उसका पूरा ओंठ, जीभ, गा्रस नली सब जलने लगा। गनीमत था कि नदी का बहता पानी समीप था और उसकी ठंढे पानी से उसने जितना हो सका कुल्ला किया और कंठ भिगोए ताकि कुलकुलाहट कम हो। बाजार करके बगल से गुजर रही महिला ने उसकी हालत देखते हुए कहा- “तुमि कि बोका माँ तुमाके सेखाई नी, ई जीनीस काचा ख़ाओआ होई ना, रानना कोरे खेते होई।” (मूर्ख आदमी तुम्हें माँ ने सिखाया नहीं कि इसे कच्चा नहीं खाया जाता है पकाकर खाया जाता है।) लेकिन गंभीर कष्ट के आगे उसे कुछ पाले नहीं पड़ा।
जैसे-तैसे वह घर आया और माना कि उसमें वह बुद्धि-विवेक नहीं है जो औरों के पास होती है। लेकिन उसने तय किया कि वह इससे पार पाकर रहेगा। उसके पड़ोस में रहते थे एक बंगाली दादा, तपन मुखर्जी। लोग उसे बहुत मानते थे और प्यार से कहते थे तपन दा। सादी धोती-कुरते में तपन दा मुंह में पान की गिलौरियाँ लिए हुए अकसर दिख जाते थे। भोला को लगा कि अगर वह तपन दा कि शरण में जाएगा तो उसका दुःख अवश्य दूर होगा। तपन दा भी बंगाली और भोला कि पत्नी भी बंगाली। भोला ने तय किया कि बंगाली तपन दा से ऐसा गुर सीखेगा कि उसके ससुराल वाले उसका लोहा मान जाएंगे। तपन दा बंगाली जरूर थे पर हिंदी भाषी जगह में रहकर धारा प्रवाह हिंदी बोल और समझ पाते थे। भोला आया और तपन दा के शरणागत हो गया। उसे अपनी सारी व्यथा बताई। दादा को बताया कि उसे बुद्धि है ही नहीं, उसे कुछ नहीं आता। दरियादिल तपन दा ने भी उसके लिए दिल के दरवाजे खोल दिए। बोले-
“भोला, एक चीज करने होगा तुमको भी बुद्धि हो जाएगा। घबराने का कोई बात नहीं।”
“दादा आप कहें तो आपके लिए जान भी हाजिर कर दूँ। लेकिन किसी तरह यह कलंक मिटे। अब और बर्दाश्त नहीं होता।”
“नहीं-नहीं जान नहीं देने होगा, मामूली काम है। जे कहेगा से तुमको करना होगा।”
“हाँ, हाँ दादा। आप तो मेरे भले के लिए कर रहे हैं। क्यों नहीं।” अंधे को क्या चाहिए दो आँखें उस पर तो भोला का नरक जीवन उद्धार हो रहा था।
“भोला माछ खाने होगा, एक किलो से ऊपर कातला माछ का माथा। रोज एक पाव। जानता है भोला बंगाली बोद्धिमान कैसे होता है कारोण एकटू ही सही, वह माछ रोज खाता है। कातला के माथा में होता है बोद्धिमत्ता।”
“लेकिन दादा केवल मछली का मुंडी कहाँ मिलता है बाजार में? पूरा मछली मिलता है।”
“उसके लिए हम हैं ना, तोम गोटा मछली खरीदो और माथा खाओ तोमार जोन्नो बाकि माछ आमि खाबो।(तुम्हारे खातिर बाकी मछली मैं खा लूंगा।”
“हाँ दादा, भालो।” भोला ने शायद यह एक मात्र बांग्ला शब्द जो वह जानता था बोलकर अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।
उसके बाद यह रोज का क्रम चला। भोला किलो-डेढ़ किलो मछली रोज खरीदता और उसका मुंडा खुद के लिए रख लेता और बाकी बची मछली पहुंचा देता तपन बनर्जी को। रोज-रोज मछली का मुंडा खाते-खाते भोला एकदम से ओकता गया। मछली के मुंडे में कुछ निकलता नहीं था, थोड़ा बहुत जो लगा हुआ रहता बाकी केवल कांटा। जब भोला से रहा न गया तो वह तपन दा के पास गया औरः
“दादा मछली का मुंडी खाते-खाते मैं पक गया हूँ, केवल हड्डी रहता है इसमें और माल तो आपके पास चला जाता है।”
“ देखओ ज्ञान ओर्जोन होएछे ना।” (देखा भोला बुद्धि हुआ न।) दादा ने ठंढी सांस भरते हुए कहा।
--पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)