गंगा घाट की यात्रा (पवित्र यात्रा संस्मरण).
‘सुनते हैं बाबा नहीं रहे। अभी मम्मी का फोन आया था।‘
पिछले कुछ दिनों से बाबा (मेरी पत्नी के दादा) ने खाना पीना छोड़ रखा था, वह जीवन के आखिरी पड़ाव में थे। मुझे अनायास उनकी सीख याद आ गई। शादी के बाद मैं पहली बार ससुराल गया था और मेरे चाचा ससुर सभी जवान थे सो मैं उनको उनके नाम के साथ चाचा कह कर संबोधित करता था तो उन्होंने बुलाकर कहा था कि आप सिर्फ चाचा जी कहिए, नाम मत लिजिए । इस सीख के पीछे के मूल्य का मैं अब तक आभार मानता हूँ। बाबा का नाती-नतिनी, बेटे-बहुओं, पोते-पोतियों से भरा परिवार था। उनकी अंतिम यात्रा में सभी जुट रहे थे।
हम लोग भी बच्चों और साथ के लिए कुछ जरूरी सामान लेकर चाचा जी के घर के लिए निकल पड़े। बाबा अपने अंतिम दिनों में अपने चौथे पुत्र तरूण चाचा के यहाँ थे। जब हम लोग पहुँचे तो देवघर से चलने वाला सारा परिवार जुट चुका था। बाबा को अंतिम विदाई देने की तैयारी चल रही थी। उनकी पार्थिव काया अब तक खटिया पर ही था, हम सभी ने उनके चरण छुए। बाबा कि अंतिम डोली को पोते-पोतियों ने फूलों से भर दिया था और कहना न होगा वह इस सम्मान के हकदार थे। पवित्र राम नाम के साथ बाबा की शोभायात्रा निकाली गई थी । यहाँ यह जिक्र करना जरूरी है कि बाबा का अपना घर सुईया था। उनके सात बेटों में से तीन देवघर में बस गए थे इन्हीं में से एक तरूण चाचा के यहाँ उनका अंतिम समय बिता था। सुईया कि एक परम्परा रही है वहाँ के वयोवृद्ध का अंतिम संस्कार नजदीक के सुलतानगंज के गंगाघाट में किया जाता है। बाबा के पार्थिव शरीर को पहले सुईया ले जाना था। जो कमांडर जीप इसके लिए ली गई थी वह तीनों पुत्रों के दरवाजे पर गई, वहाँ से लकड़ी आदि सामान लेते हुए रांगा मोड़ से आगे खिजुरिया पार कर रही थी। इस कमांडर जीप के ठीक आगे मेरी गाड़ी थी, उनकी शोभायात्रा को स्कॉट करना मुझे गौरवपूर्ण लग रहा था।
बाबा सुईया के नामचीन और पुराने लोगों में से थे सो उनकी ख्याति थी। उनकी गिनती मेहनती और साफगोई रखनेवाले लोगों में की जाती थी। वह सतसंगी थे और सादी धोती-कमीज उनका पहनावा हुआ करता था, उन्हें लोग महंथ जी बुलाते थे। उनकी हमेशा इच्छा रही थी कि वे आम जनों के लिए एक सतसंग भवन बनाते। उन्होंने इसकी नींव डालने के भी प्रयास किया था। उनमें अपने काम के प्रति गजब का उमंग-उत्साह था और जीवन के सतहत्तर-अठहत्तर की उम्र तक उनमें अपने काम के प्रति ईमानदारी और जीवटता कायम थी। मुझे अब भी स्मरण है कि मैंने बीते कुछ साल पहले उन्हें यात्रा के क्रम में सुलतानगंज बस स्टैंड के पास देखा था, वह व्यवसाय के सिलसिले में गए थे। वह न गिरते तो अब तक व्यवसाय में रहते, सतसंग करते, जीवन की पूर्णता की उनमें कमी न होती ।
मेरी गाड़ी कुछ पहले पहुँची और कमांडर थोड़ी पीछे, कमांडर कटोरिया में मोबिल लेने रुकी थी। जब कमांडर सुईया में घर के दरवाजे पर रुकी तो उसके इंतजार में लोगों का एक हुजूम खड़ा था, इस हुजूम में सिर्फ उनके परिजन नहीं थे। फिर चिर अनंत में सोए बाबा पर रामनामा चादर चढ़ाने का सिलसिला शुरू हुआ। एक के बाद एक कितनी रामनामा चादर बाबा को ओढ़ाया गया यह कहना मुश्किल है। शोकाकुल की श्रद्धा को उत्साह देने के लिए बाजेवाले ने भी अपनी पूरी शक्ति झोंक रखी थी। स्थानीय आम-खास सभी बाबा के अंतिम दर्शन पा रहे थे। सभी ने पार्थिव के चरण छुए ।
मैं काकू चा के दुकान से यह सब देख रहा ही था कि प्रतिमा चाची ने घर के अंदर बुला लिया। प्रतिमा मेरी छात्रा थी मैंने उसे और उसके भाई बहनों को पढ़ाया है लेकिन मेरी शादी की अगुआ वह और काकु चा थे इस कारण अब वे मेरे सास-ससुर हैं। चाची ने हम सभी को भींगे चने, चुड़ा सब मिलाकर दिया। उस समय कस कर भूख लगी थी लेकिन कहने का माहौल नहीं था। उस भूख में वह चुड़ा चना प्रसाद से कम नहीं था ।
अब बारी थी फूलों से सजी बाबा की डोली को उनके पैतृक स्थान उनके जन्मभूमि के परिभ्रमण कराने की। बाबा को अंतिम बार उनकी माटी से मिलाना आवश्यक था। वह कुनबा जो वहाँ था जुलूस कि शक्ल ले रहा था। सारे सुईया बाजार में खूब सारे सिक्के, अक्षत और टाफीयां भी को श्रद्धास्वरूप अर्पण किया जा रहा था। पुण्यात्मा के लिए जोश था जुनून था, यह शोक का विषय था भी नहीं।
बस जिलेबिया मोड़ के घुमावदार रास्ते को पार कर रही थी और सुईया के रणबांकुरे शिकार तलाश रहे थे। जीवन अनूठी चीज होती है और विपरीत क्षणों में भी आपको रस से भर देती है। खैर उन्हें ज्यादा समय नहीं लगा पहला शिकार हाथ लग गया- ‘छुट्टन चा‘। छुट्टन चा सनक कर उधिया पड़ रहे थे, और रणबांकुरों की हँसी टपक पड़ती थी। रणबांकुरों को इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता था कि सविता फुआ भी उसी बस में है। सविता फुआ का घर उसी रास्ते में पड़ता था दामजोर। जब बस दामजोर मोड़ पर रुकी तो फुआ उतर गई। वहीं ढेढू भैया भी न जाने कहाँ से नजर आ गए। वह यात्रियों के लिए दो जार पानी बस में चढ़ाने खड़े थे, उन्होंने मुझे देखकर परिचित अंदाज में हंसते हुए कहा “कि हाल छो मेहमान जी”।
आगे भी बस एक बार रुकी लकड़ी की दुकान पर, और मोटी कच्ची लकड़ी लदवा ली गई। लेकिन उसके आगे गाड़ी चूँ-चूँ करते और हिचकोले खाते खुद रुकी, ड्राइवर - खलासी ने जाकर देखा गाड़ी का एक्सल टूट गया था। देर पर देर हो रही थी पर उपाय क्या था, गाड़ी बनने में घंटे भर और लगने वाला था । शुरू में जब घर से निकले तो प्लानिंग थी कि दो बजे तक घाट पहुँच जाना है। लेकिन समय की अपनी गति होती है और सब उसी की गति से चलते हैं।
वहीं आगे एक घर के आगे खाली जगह सुस्ताने के लिए खोज लिया गया। सभी लोग उतर आए, बस के ही साथ लाए गए चुड़ा और भीगे चने की बोरियाँ उतार लिए गए, और एक किनारे पानी के कंटेनर लगा दिए गए। कार्यकर्ता गण जुट चुके थे बोरे में चुड़ा, चना और दालमोट को मिलाने में और अपनी कारीगरी दिखाने में। अन्य विशेषज्ञ सलाह दे रहे थे कि कितनी मात्रा में और कब क्या मिलाना है। जब रेसिपी तैयार हो गई तब उसे थर्मोकोल कि प्लेट में बारी-बारी से सभी भूखे यात्रियों को परोसा गया। अलग ही समा खाते-अघाते-रसमसाते लोग। जीवन चक्र पूरा कर चुके लोगों कि मृत्यु शोक नहीं उत्सव हो जाती है और हो भी क्यों न, इसी से पुण्यात्मा जुड़ाता भी होगा। मुझे मामा(दादी) की अंतिम यात्रा की घड़ियाँ स्मरण हो आई, लगा जैसे उन्हीं की यात्रा को रीवाइन्ड कर दिया गया हो - वही जमघट, वही खींचा तानी वही मायूस मंजय चा। रूपम सबेरे ही अपने भाई से कह रही थी “बाबा मामा पास चली गेलो।”
सुल्तानगंज ओवरब्रिज को पार करती हुई नीचे गोलचक्कर से घुमकर ब्रिज के दाएं से बस ले जाने के क्रम में ड्राइवर को ट्रैफिक पुलिस की दनदनाती गाली सुनाई दी, पुलिस की परेशानी समझी जा सकती थी, शिवरात्री का दिन था और आगे का चप्पा-चप्पा जाम था । सुल्तानगंज उत्तरवाहिनी गंगा का बहुत ही प्रसिद्ध घाट है। पवित्र माने जाने वाले सावन के महीने में देश भर से लाखों कि तादाद में श्रद्धालु गण यहाँ जल भरने आते हैं और एक सौ पांच किलोमीटर की पैदल यात्रा कर देवघर के बाबा वैद्यनाथ को अर्पण करते हैं। बड़ी तादाद में विविध प्रयोजनों को लेकर बिहार-झारखंड के लोगों का गंगा स्नान के लिए यहाँ तांता लगा रहता है। यहीं पर प्रसिद्ध अजगैवीनाथ मंदिर भी है। चूंकि दो साल के कोविड की बंदी के बाद सुल्तानगंज की चर्चित शिवबारात निकली थी सो रास्ते पुरी तरह जाम थे, जगह जगह बैरीकैडिंग लगी हुई थी। बस इसी जाम और बैरीकैडिंग के बीच से धीरे-धीरे सरक रही थी। सुल्तानगंज ओवरब्रिज से घाट तक मेन रोड में दुकानों और होटलों कि कतारें हैं, इससे भी गंगाघाट की ओर जानेवाली सड़क पर अकसर जाम लगता ही है। प्रशासन और सरकारों को इतने महत्त्वपूर्ण रास्ते को चौड़ा और आवागमन के लिए सुरक्षित रखना ही चाहिए।
घाट की ओर सड़क के आखिरी हिस्से के लगभग दोनों तरफ कई होटल हैं, इसमें से कुछ आम होटल हैं पर ज्यादातर थोक में खाना खिलाने वाले होटल हैं, इनमें जत्थे में आए लोगों के लिए थोक में सामान प्लस सर्विस चार्ज के हिसाब से खाना बनता है और इससे गंगा स्नान अथवा अंतिम संस्कार के लिए समूह में आए आम लोगों को बहुत सुविधा होती है। लोग किलो के दर से सामग्री का मूल्य देकर खाना आर्डर कर देते हैं और गंगा स्नान के उपरांत यहाँ खाना खाते हैं और सुस्ताते हैं। कई होटल तो ऐसे होते हैं जो कभी बंद ही नहीं होते हैं । होटलों के क्रम के बाद कई कच्ची लकड़ियों की बड़ी-बड़ी दुकानें हैं वहाँ इन दुकानों का मतलब समझा जा सकता है। मोक्षदायिनी गंगा अपने तट पर इन दुकानों के सहारे वर्षों से मोक्ष देती आयी है। दुकानों का सिलसिला थमते ही विशाल उत्तर वाहिनी गंगा की धाराओं के दर्शन हो जाता है। बस वहाँ तक आकर रुक गई। यहाँ लगभग एक किलोमीटर तक का गंगा घाट मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बंटा है पहले बाबा अजगैवीनाथ मंदिर, फिर फेरी घाट, इसमें कई छोटे बडे घाट शामिल है और सबसे दाएं और नीचे है शमशान घाट। स्नान वाले घाटों में कई झोंपड़ियां बनी हुई है और इसमें चौंकी लगी हुई रहती है। इन्हीं झोंपड़ियों में पूजा के लिए जरूरी सामान जैसे फूल, बेल पत्र, अगर बत्ती आदि मिल जाते हैं। यात्रिक यहाँ चौंकियों पर अपने बैग, कपड़े आदि रखते हैं और गंगा स्नान, पूजा आदि करते हैं। बीच वाले गंगा स्नान वाले घाट पर पर्वत्ता गंगा पार से आने वाली नावें और फेरीयाँ भी लगती है ।
चूंकि झांकी के कारण रास्ते बंद थे तो बिक्की, अमर, सोनू, फूरो चाचा, सिंटू मामू सब बस से उतरकर झांकी देखते हुए पैदल घाट की ओर निकल गए थे। शिव बारात के क्रम में हमें एक अतिरिक्त घंटा और लगा। जब बस तट के किनारे पहुँची तब पूरी शाम ढल चुकी थी। सभी ने मिलकर बाबा के पार्थिव को उतारा व घाट तक कंधा दिया। चूंकि लकड़ी तारापुर के पास रास्ते में ही ले ली गई थी सो परिजनों को घाट के पास से लकड़ियाँ नहीं लेनी पड़ी। बस के रुकने से शमशान घाट तक दो ढाई सौ मीटर का फासला था सो बच्चे, जवान सभी जिससे जो संभला कच्ची लकडी कंधे पर लेकर घाट के लिए निकल गया। मुखाग्नि बड़का बाबू देंगे कि छोटका चाचा इसपर लोगों के अलग-अलग विचार थे। फिर सबों के विचार से ही छोटका चाचा ने सफेद धोती जिसे उतरी कहते हैं लपेट लिया। अंधेरा गहरा रहा था और गंगा तट पर मॉस्ट लाइट से अच्छी खासी रोशनी आ रही थी और पास ही बन रहे गंगा पुल के गर्डर के बल्ब भी टिमटिमा रहे थे। ढलते शाम के साथ बाबा के पार्थिव शरीर को भी पूर्ण विराम देने जैसा विधान है लकड़ीयों को चिता में रख दिया गया ।
काकूचा के बड़े बहनोई और छोटी चाची के पिताजी दोनों जमुई से थे मैं उन्हीं के साथ गंगा किनारे के कच्ची माटी के टिल्हे पर बैठा था। दोनों जमुई के बाशिंदे अपनी घर-जमीन-दुकानों की बातों में अंदर तक गड़ गए थे कि तभी नीचे से कोलाहल सुनाई देने लगा।
‘एत्तो बोड़ो बगीचा लगैक गेल्हे फूलवाड़ी सजैलके केन्हा कम होते एकावन हजार से एक टका कम नै लेइबे आर नेत तोरन्हीं एईसें ऐग ले लिये, कुछ नै दीहे‘ । गंगा के देश में शोक का भी कारोबार होता होगा सोंचा न था पर दृश्य आँखों के सामने था । गंगा तट पर मुखाग्नि देने के लिए आग वहाँ के संस्कार करने वाले लोगों से लेने की प्रथा है, यह पवित्र मानी जाती है। शोक संतप्त को इतनी बड़ी राशि यह नागवार लगना लाजिमी था सो दोनों तरफ के लोगों के बीच बहस ऊंचे स्वर में पहुंचने लगा। दाह संस्कार में आए लोग संख्या बल में अधिक थे पर संस्कार वाले वहाँ के स्थानीय और परिपाटी से वाकिफ थे नरम होने का नाम तक नहीं ले रहे थे। यह पूरा कारोबार था जो लोग वहाँ थे संभव है उसके ऊपर कई लेयर में लोग रहते हों। सौदागरों के साथ कहा सुनी से बात बनता नहीं देख लोग वापस मौल मुरव्वत करने लगते। पापा के दामजोर और अमरपुर के फुफेरे भाईयों ने भी स्थानीयता का हवाला देते हुए गंगापार की भाषा में ही बतियाने कि जुगत भिड़ाई लेकिन दोनों कुरता धारी को देखकर संस्कार वालों ने नब्ज पकड़ लिया कि पूरा कुनबा ही जुटा हुआ है। मामला सुलझने की बजाय और उलझता लगा। अब तक हम लोगों के पास काकूचा भी आ गए थे, उन्होंने बताया कि अभी पिछे कोई कह रहा था कि उससे एकावन सौ लेकर ही माना सो उससे कम तो नहीं ही करेगा। बाबा कि जीर्ण और बेजान काया आधे घंटे तक चिता पर अग्नि की प्रतीक्षा करती रही। मुझे मन आया कि जाकर अभिभावकों से कहूं कि आप लोग इतनी दूर से आये हैं एक माचिस नहीं लाये हैं लेकिन आस्था की मान्यता के सामने मौन साधना बेहतर लगा। अंततः एकावन सौ में मामला फिट हुआ।
हमलोग और शोकाकुल परिवार कि तीन पीढ़ियां पुण्यात्मा को अग्नि में विलीन होते देखते रहे। बाबा कि बारहवीं की अगली सुबह उनकी वंश वृक्ष के बाइस बच्चे-बच्चियों की टोली जब बड़ुवां नदी की कंचन पानी में घंटों पैर छपछपाने के बाद नहीं थकी और सूईया पहाड़ दौड़कर चढ़ने लगी तो भी उनमें उमंग में कोई कमी नहीं देखकर बाबा की आत्मा जरूर तृप्त हो रही होगी।
- पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)
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