पेड़
भीलवाड़े के अचकन सेठ ने अपनी आरे मील के लिए शहर में जाने जाते थे। वह अपने इलाके में हजारों हरे-भरे पेड़ों को मील के लिए कटवा चुका था और उसके तने को साइज करवा कर दरवाजों और फर्नीचर की जरूरत को बिना किसी अड़चन के पूरा करता था। लकड़ी के बलबूते, उसने अपनी पहुँच-प्रतिष्ठा और असबाब बनाने में कोई कमी नहीं रख छोड़ी थी। उनके बारे में यह ख्याति फैल गई थी कि पेड़ चाहे धरती के किसी कोने में हो उसका सही दाम देना और उसका यूं हिसाब लगा देना; उसके लिए चुटकी बजाने जितना आसान है। अचकन सेठ, अपने परिवार में दो बेटों और उसके बाद एक प्यारी सी बेटी के पिता थे। बड़ा बेटा अपने पिता के बेहिसाब फैले धंधे में हाथ बंटाता था और छोटा बेटा इंजीनियरिंग की डिग्री ले पीसीएस की तैयारी कर रहा था। दोनों अपनी उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर थे। सिर्फ एक ही सपना जो बचा रह गया था कि बच्ची को कैसे सबसे ऊँची डिग्री दिलाई जाए और कैरियर बनाने का ऐसा नुस्खा तलाशा जाए कि शहर के बाकी रईस दांतों तले अपनी उंगलियां दबा ले।
अपनी बड़ी-सी आरा मील के अंदर करकट के शेड के नीचे बने एसी कंपार्टमेंट में अचकन सेठ फोन से बात करने में व्यस्त थे।
अचकन सेठ- “पेड़ की लोकेशन क्या है?”
फोन के दूसरी छोर से- “लोकेशन तो एकदम विरान है। पूरे तीन-चार किलोमीटर तक रास्ते के दोनों तरफ पूरा इलाका सुनसान है। सुनसान मतलब सुनसान। सेठ जी उस दूरी में कुछ-भी नहीं है सिवाए इस पेड़ के।”
“सुनसान है तो फिर दिक्कत क्या है भाई, क्यों टाइम खोटी कर रहे हो मेरी। जाकर खुद क्यों नहीं हटा लेते।”
“भाई साहब दरअसल बात वो नहीं है। पूरे चार किलोमीटर के दरियाफ्त सिर्फ एक पेड़ के होने से राहगीर बीच में उसी पेड़ के नीचे सुस्ताते हैं। राहगीरों के साथ-साथ आस-पड़ोस के गांव की भावनाएं भी पेड़ से जुड़ी है। फाॅरेस्ट वाले उस पेड़ का क्लियरेंस देने से इसलिए कतरा रहे हैं। वो तो सर हमारी कंपनी को सड़क चौड़ी करने का ठेका मिला है और ये पेड़ उसके बीच में आ रहा है। सर आपको इस काम के लिए कंपनी से दाम अच्छा मिलेगा।”
“ओके चलो भाई मैं देख लेता हूँ। और ये लोगों की न भावनाएं-सावनाएं न आती रहेंगी। लोग तो पेड़ नहीं हो रखे हैं न। एक कटेगा तो दूसरा उग आएगा। चिंता कोनी, काम हो जाएगा।” फिर अचकन सेठ ने फोन रख दिया।
लेकिन फोन रखते ही अचकन सेठ पसीने से तर-बतर हो रहे थे। ऐसा नहीं था यह उस फोन के काम की चुनौती थी बल्कि उनके चैंबर का एसी काम नहीं कर रहा था। और अचकन सेठ को एसी के बाहर रहने की आदत नहीं थी उस पर भी राजस्थान की तपाती गरमी।
उसने अपने नौकर जेठा को आवाज दी- “जेठा, देख तो एसी में क्या दिक्कत हुई पड़ी है? कुलिंग नहीं आ रही है।”
जेठा ने एसी के सारे बटन को दबाकर चेक किया कि कुछ अच्छा हो जाए और एसी चल जाए। उसे अपने मालिक का पता था कि उनसे कुछ भी कर लो गरमी बर्दाश्त नहीं होती।
“म्हने लागे है के एसी की गैस खतम हुयगी, मैं अबार मैकेनिक ने बुलावू। तब तक एक काम करो मालिक-सा, जठै तक बाहरे निकल की पंखा के नीचे बैठ ज्यावो।” (मुझे लगता है कि एसी में गैस खत्म हो गई है मैं अभी मैकेनिक को बुलाता हूँ। ऐसा करो मालिक तबतक आप न चैंबर से बाहर निकल कर पंखे में बैठ जाओ।)
“अरे जेठा, ज्ञान मत दो। देखो, मेकैनिक कितनी देर में आता है। फिर मुझे जयपुर भी जाना है। इस एसी को भी न, अभी ही खराब होना था और ट्रेन को आज ही घंटे भर लेट होना था। वो सोनल को आज कोटा पहुंचाना है नहीं तो मैं इस गरमी में क्यों ही निकलता?” सेठ जी को आज जयपुर में पढ़ रही अपनी बेटी को लेकर कोटा जाना था।
कोई आधे घंटे में जेठा अचकन सेठ को बताया कि मेकैनिक दोपहर से पहले नहीं आ पाएगा। बकौल जेठा, मैकेनिक बताया कि अभी इस पीक सीजन में कंपनी की ओर से पहले नया इंस्टालेशन का दवाब है।
“ठीक है, ठीक है। दोपहर तक में एसी दुरुस्त हो जानी चाहिए।” मैकेनिक के देर से आने की जानकर सेठ जी सकते में आए, पर इसके अलावे कर ही क्या सकते थे। सुबह के नौ ही बज रहे थे पर अचकन सेठ की धोंकनी जैसे चालू थी। इधर-से-उधर टहलते ही जा रहे थे। धूप अभी कड़ी नहीं हुई थी, बावजूद इसके सेठ की पेशानी पर परेशानी झलक पड़ी थी। जैसे-तैसे सेठ ने समय पार किया और ट्रेन के लिए स्टेशन रवाना हो गए।
जेठा ने राहत की सांस ली कि थोड़ी देर में ही सही, सेठ जी के ट्रेन के एसी टू टायर में बैठने के बाद सब चंगा हो जाएगा।
ट्रेन के एसी टू टायर के बर्थ पर निढाल होते हुए सेठ को लगा मानो मुक्ति मिलने वाली हो। पर टू टायर का यह कम्पार्टमेंट अपेक्षा के अनुसार ठंढा नहीं था। सेठ को थोड़ी देर के लिए लगा कि अभी वह बाहर से आया है, इसलिए उसे ऐसा महसूस हो रहा है। लेकिन कुछ ही देर में जब साथी यात्रियों को हलकान देखा तो लगा कि यहाँ भी कुछ ठीक नहीं है। सामने की बर्थ पर जो दंपति बैठे थे, सामान्य परिचय के बाद उसमें से महिला यात्री ने कहना शुरू किया- “बाप रे, एक तो इतनी गरमी है और एसी ठंढा नहीं कर रहा है। यात्रा करना प्रलय लग रहा है।”
सेठ ने जानने के उद्देश्य से कहा- “क्या हुआ है, इस ट्रेन में। एसी ठंढा क्यों नहीं कर रहा है?”
इसपर पति ने कहना शुरू किया- “अरे आप तो अभी आए हैं न? पिछले स्टेशन पर एसी अचानक बंद हो गया था। इसपर यात्रियों ने हो-हल्ला किया तो बहुत देर बाद एसी फिर से ऑन किया जा सका, पर पहले जैसी कूलिंग अभी भी नदारद है। मेंटेनेंस का कहना है कि मशीनरी चीज है, कभी-कभी खराब हो सकती है। उस स्टेशन पर गाड़ी चालीस मिनट तक खड़ी रही थी।”
यह सुनने की देरी थी कि सेठ की छाती बैठ गयी। आज की यात्रा ही गड़बड़ है। कुछ-न-कुछ होता ही जा रहा है।
सहयात्री पति-पत्नी का वार्तालाप जारी रहा और सेठ की छाती बैठना भी।
पत्नी - “अभी तो फिर भी एसी चल रहा है, कहीं ऐसा न हो कि फिर से चलना बंद हो जाए, तब तो हमलोग कूकर की माफिक पक जाएंगे।”
पति - “देखो, बुरा मत कहो नहीं तो कहा लग न जाए, उसपर कोई भरोसा नहीं भारतीय रेल है।”
पत्नी - “भारतीय रेल को दोष मत दो, मेकैनिक ने कहा न कि मशीनरी चीज ठहरी, कुछ-न-कुछ खराब हो सकता है बल। फिर गरमी नहीं देखते हो, इतनी प्रचंड गरमी में एसी चल जो रहा है वही बहुत है।”
पति- “निगोड़ी, रेल को क्या ही दोष दें। असल करनी तो हमारी-तुम्हारी है। कहीं पेड़-पौधा रहने दिया है। सब तरफ देखो तो जंगल-के-जंगल काटकर लोगों को बसाया जा रहा है, खेती की जा रही है, एक-से-एक फर्नीचर तैयार किया जा रहा है। हम लोगों ने पेड़ काट-काटकर खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।”
सहयात्री की बातें सुनकर अब तक सेठ की बैठती छाती पर सांप भी लोटने लगा। उनके मन के किसी कोने में डरा-छिपा यह विचार घर करने लगा कि कहीं उसका भेद न खुल जाये कि वह खुद हजारों पेड़ों का हत्यारा हुआ ठहरा है।
सेठ को अचानक एक पर्यावरण एक्टिविस्ट से हुई बहस याद हो आई थी जब उसने धमकाते हुए उसकी बोलती बंद करवा दी थी कि ‘गरमी बढ़ गई है तो एसी लगवा लो, लोग-बाग अपना बीजनेस बंद कर भूखों क्यों मर जाये।’
पैक डब्बे में उमस से यात्रियों का बुरा हाल था लेकिन अच्छी बात यह थी कि ट्रेन की गति में कोई बदलाव नहीं आया था। जयपुर अब चालीस मिनट के करीब ही दूर रह गया था। ट्रेन की उसी गति के बीच, एक धप्प की आवाज आई और ट्रेन का एसी एकदम से बंद हो गया और उसकी रही-सही ठंढक उमस होती रही। ट्रेन की रही-सही ठंढी हवा का इस तरह अचानक से रुक जाना, अचकन सेठ को दिन में तारे दिखा गया। दोपहर को बाहर का पारा आग उगल रहा था। बदहाल सेठ को अपना मानसिक संतुलन खोता लग रहा था। बची यात्रा का एक-एक मिनट उसे गरम तवे पर पड़ने जैसा लगता। अपने पूरे जीवन में उसने ऐसी परिस्थिति की कल्पना तक न की थी। इस आग के मौसम में वह घर के एसी कमरे से निकलता और अपनी एसी गाड़ी में बैठकर एसी दफ्तर में प्रवेश कर जाता था।
ट्रेन जयपुर स्टेशन को लगने को हुई। अपने को टटोलकर इकट्ठा करते हुए वह अपने कोच से बाहर आया। स्टेशन पर उसकी बेटी कैब ड्राइवर के साथ उसका इंतजार कर रही थी। पिता को रिसीव करते ही बेटी ने पूछ लिया- “कैसे हो पापाजी, परेशान लग रहे हो।” पापा ने कोई प्रतिक्रिया दिये बगैर ड्राइवर की ओर मुड़कर कहा- “गाड़ी की एसी प्राॅपर है न?” ड्राइवर ने कहा- “हाँ सर, बिलकुल सही है और अभी तो हमारी गाड़ी नई है सर।”
कार के सामने वाली सीट पर धंसते हुए, सेठ ने कहा- “ऐसा करो एसी फुल कर दो।” ड्राइवर ने गाड़ी की कुलिंग को लाॅवेस्ट करते हुए ब्लोवर की हवा का मुंह सेठ की ओर कर दिया। सेठ ने राहत की सांस ली। गाड़ी जयपुर-कोटा राजमार्ग पर दौड़ रही थी। पीछे के सीट पर बैठी अपने पिता के संयत में आने की कामना कर रही थी।
ड्राइवर पहले तो सोच रहा था कि सेठ जी अपनी बेटी के साथ पीछे की सीट पर बैठेंगे लेकिन सेठ जी के आगे वाली सीट पर बैठने से वह दवाब में था और चुपचाप गाड़ी चला रहा था। अब तक परेशानी से दो-चार रहे सेठ को एसी की ठंढी हवा ने नींद की आगोश में लाना शुरू किया। और कब सेठ का हाथ अपनी जगह से हटा, ड्राइवर को इसकी भनक भी न लगी। और फिर उसी निंद में सेठजी डिसबैलेंस हुए और उसका वजनी शरीर ड्राइवर की गोद में लुढ़क गया। ड्राइवर के हाथ पर अचानक से वजन पड़ना था कि उसका स्टियरिंग छुट गया और गाड़ी सामने पसरी रेत पर कई मीटर दौड़ गई। रेत पर जाने से गाड़ी दुर्घटना से तो बच गयी पर जिस ब्लोवर के मुंह से ठंढी हवा आ रही थी उससे धुआं बाहर आने लगा। ड्राइवर ने झट से एसी ऑफ किया और पंखा बंद किया। इस झटके से सेठजी की निंद भी झटके से खुली। वह भौंचक्का रह गया और खुद को संभाला।
ड्राइवर- “सेठ जी मैं आपको कहने वाला था कि आप बेबी के साथ पीछे बैठ जाइये। लेकिन आप आगे बैठ गये। खैर ज्यादा कुछ तो नहीं हुआ है पर ब्लोअर का मोटर जल गया लगता है इसलिए एसी नहीं चल पाएगा।”
सेठ जी लगभग चीखते हुए- “क्या कहा तुने, एसी नहीं चल पाएगा। अब इस गर्मी में मैं चल सकूंगा कि नहीं ये पूछा तुमने? हे भगवान, और अब क्या दिन दिखाएगा?? अब तो मैं जीते-जी कोटा नहीं पहुंच पाउंगा। इस गरमी में मरुस्थल में ही मेरा क्रिया-करम हो जाएगा। आ-हा, हा, हा!” सेठजी चीखते जा रहे थे।
सेठ जी की हालत देख ड्राइवर सन्न था लेकिन करे तो क्या करे? कार की छत तेजी से तपती जा रही थी। वह जगह बिलकुल सुनसान थी और दोनों तरफ बस रेतीले उभार। पेड़-छांव कुछ नहीं। ड्राइवर ने सेठजी को पीछे बैठाया और गाड़ी को वापस से सड़क पर लाया और तेज चल पड़ा। उसे लग रहा था कि जल्दी से कुछ इंतजाम नहीं हो पाया तो यह सेठ गरमी से मरे-न-मरे; सदमे से जरूर मर जाएगा। कुछ एक-दो किलोमीटर चलने पर सुनसान में एक पेड़ दिखा, यह उस दूरी में इकलौता और घना पेड़ था और उसकी छांव के नीचे राहगीर सुस्ता रहे थे।
ड्राइवर ने पेड़ के पास गाड़ी रोकी और पीछे का दरवाजा खोला। गाड़ी रुकते ही सेठ जी उससे ऐसे कूदते हुए बाहर आए जैसे कि गाड़ी में आग लग गई हो और पेड़ की छांव में जाकर जमीन पर निढाल पड़ गए। उसकी सांसें अस्त-व्यस्त हो रही थी।
सेठ की हालत देख कर एक राहगीर कह उठा- “लोग आपरा ढेढ़ सो फीट की कमरा ने और बीस-पच्चीस फीट की गाड़ी ने ठंढा कर लेवे तो सोचे कि पूरी दुनिया ही ठंढी हुयगी। पेड़ हमारी जान बचावे है, आ बात लोग भूल जावे है।” (लोग अपने 150 फीट के कमरे और 20-25 फीट की गाड़ी को ठंढा कर लेते हैं और सोचते हैं कि पूरी दुनिया ठंढी हो जाएगी। पेड़ ही हमारी जान बचाते हैं ये भूल जाते हैं लोग।)
दूसरा राहगीर- “ई पेड़ की बात करे हो कांई? यो पेड़ भी रास्ते में आ रहयो है और वो भी भेगो ही कटनो वालो है।” (इस पेड़ कि बात कर रहे हो क्या?? ये पेड़ भी रास्ते में पड़ रहा है और जल्द ही कटने वाला है।)
सेठ जी की चेतना सहसा लौटी- “नहीं-नहीं यह पेड़ कभी नहीं कटेगा, सड़क भले छोटी रह जाए।”
-- पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)