तरंग.
मस्तिष्क में उठती अनगिनत तरंगें
अपरिमित ऊर्जा से भरी हुई
कई बार मुश्किल होता है
इन तरंगों को संभालना
मस्तिष्क की कमजोर तंतुएं
बिखरती है इस ऊर्जा के आगे
और मुश्किल में डालती है हमें
हमें और तुम्हें और सबको
मस्तिष्क की तंतुएं कमजोर
और असहाय क्यों पड़ जाती है
इस अपरिमित ऊर्जा के आगे
तंतुएं जहाँ से निकलती है ऊर्जा
असहाय क्यों दिखती है
तरंगित ऊर्जाओं के सामने
दरअसल हम प्यार करते हैं
पुलकित करती ऊर्जाओं को
और नकारते हैं तंतुओं को
इतना की हो जाती वे बेबस
हम रिठाते नहीं तंतुओं को
खोए रहते हैं ऊर्जाओं के सम्मोहन में।
-पुरुषोत्तम
(स्वरचित व मौलिक)