"विजय".
मनिहारपुर कस्बा एक फैला हुआ पहाड़ी कस्बा था। ऊपर के कस्बे में पानी की किल्लत रहती तो निचले इलाके में बरसात में दिक्कत होती। आमतौर पर लोग ऊपर कस्बे को आन टोला और नीचे कस्बे को पान टोला कहकर संबोधित करते। लोबिन का घर निचे तरफ पड़ता था और पूरे कस्बे का पानी उसके घर के सामने से बहता। यूं तो उसके घर के सामने से सरकारी नाला बहता था। पर जो चीज सरकारी हो और दुरुस्त रह जाए फिर सरकारी कैसी। नाले पर स्लैब ही नहीं था। लोबिन की गाय पूरे दिन हलकू पांड़े के खेत में खड़ी फसल पर अपना हाथ साफ करते रही। दोपहर को हलकू पांड़े खेत का मुआयना करने आया तो अपनी खड़ी फसल का हाल देखकर आपे से बाहर हो उठा। सामने पड़ी डांग(लकड़ी का फट्टा) उठा गाय को रगेदा। गाय को पहली बार अपनी जान पर संकट का एहसास हुआ, वह पूंछ उठाकर घर की ओर भागी। हलकू पीछे दौड़ा, गाय अपने पालनहार लोबिन के द्वार पर तो पहुंच गई पर घर का दरवाजा बंद था। पीछे आता संकट गाय के और नजदीक आ चला था। गाय आधी मुड़े छलांग तो लगाई लेकिन नाले के पार न जा सकी और पूरी गाय नाले में समा गई। हलकू पांड़े को पहली बार अपनी नादानी का एहसास हुआ और इसके पहले की बात बढ़ती हलकू पांड़े वहां से निकलने में ही अपनी भलाई समझी। गाय नाले में टस-से-मस नहीं हो पा रही थी। लोबिन, लोबिन की पत्नी और पान टोले वाले धीरे-धीरे एकत्र हुए। गाय को नाले से कैसे निकाला जाए, किसी को कोई युक्ति नहीं सूझ रहा था। सूखो का जो ठेला चालक थे दोपहर को घर लौटे तो सब उसकी तरफ आशा भरी निगाह से देखने लगे। उसे ऐसे मुश्किल काम का मर्म था उसने दो बड़े बाँस अपनी फूस के ऊपर से निकाले और गाय के पेट के नीचे से इसे नाले की दीवारों से टिका दिया गया। और लोगों के सहयोग से बांस के सरल उत्तोलक के सहारे गाय को बाहर निकाल लिया गया। गाय निकलते ही राहत का ली।
अब सूखो का बोल पड़े- “ऐसा कब तक चलेगा ई महीना में चौथा बार जान-माल नाला में गिर चूका है। सबको कहते कहते थक गए कि सब लोग मिलकर मुनिसपलटी को दरखास दे लेकिन किसी के कान पर जूँ रेके तब न।“
साहेब मंडल जवाब दिया- “दरखास से क्या होगा बिना ओजन के मुनिसपलटी में दरखास उड़ीयाता रहता है।“
रमुआ कोयरी भी बोल उठा- “ओजन रहता त हमीलोग दस बोरा सीमीट लाके अपने ढकना न ढक लेते।“
गोरखना पीछे क्यों रहता वह तो राजमिस़्त्री था- “खाली सीमीट से हो जाएगा दू बंडल छड़ भी चाहिए। मजूरी के देगा। हम तो बोले कि आन टोला में दर्जन भर सरकारी स्लैब पड़ा है, सब मिलके ले आते हैं और श्रमदान से नाला ढक जाएगा।“
ढाका साव ने चेताया- “इँह..... आन टोला का स्लैब मुखिया जी के स्लैब है छूने भी ने देगा।“
सूखो का- “मुखिया जी क्या घर में बैठाए हैं, है त सरकारी चीज ही न।“
ढाका साव - “मुखिया जी कुछ न भी बोले लेकिन आन टोला तो चिन्हार का है न...चिन्हार सब रंगबाज है के नहीं जानता है। झमेला छोड़ के कुछ नहीं है।“
सिमरिया माई बगल खड़ी थी- “चिन्हार है त का हुआ जी अपना घर में है।“ कहकर अपनी बात से लोकतंत्र के दर्शन करवा दिये।
गोरखना ने शक्ति पाकर ऊर्जा से कहा- “मुखिया जी से रोज भेंट होता है उनका काम तो हमीं करते हैं मुखिया जी से हम बात कर लेंगे।“
सूखो का - “तो ठीक है अपना टोला के घर-घर जाकर खबर कर देते हैं कि इस इतवार को सब घर से एक आदमी श्रमदान देगा, आन टोला से स्लैब लाना है। और जो श्रमदान नहीं देगा वो पैसे दे देगा आखिर कुछ पैसा भी तो खरचा होगा ही।“
“लेकिन एगो चिन्हार मेरा दोस्त है वह कह रहा था कि जो स्लैब वहां रखा है वह आन टोला के नाले को ढकने के लिए रखा है।“ रामपरवेश का लड़का बता रहा था जो, हाईस्कूल में पढ़ता था।
सूखो का - “आन टोले का स्लैब है तो ढकता काहे नहीं है अपने नाले को चार बच्छर से क्यों फेंकाया है जी।“ आपत्ति दाखिल होने के साथ ही ख़ारिज भी हो गई थी।
इतवार के दिन तय समय पर परचून दोकान के सामने लोग इकट्ठा हुए। दो ठेले, तीन ठो सब्बल, चार गो बांस और एक पुरानी टायर का इंतजाम हुआ। सूखो का ने आदमी की गिनती शुरू की: "एक...दो...तीन....बारह....तेरह आदमी? एतना बड़ा मोहल्ला और तेरह गो आदमी....सब कहाँ भाग गए जी।
लूटन ने कहना शुरू किया- “सोमनथवा बोला काम पर जाएंगे....बदीया कह रहा था देघर जाऐगा....लरेना...."
सूखो का - “ऐसे नहीं होगा सबको घर से उठाके लाना होगा।“
ठक्... ठक्.....सोमनाथ का दरवाजा बंद था। उसका परिवार दरवाजा खोला।
ढाका - “कहाँ गया सोमनथवा जी....पता नहीं है ओकरा आज स्लैब लाने का दिन है।“
परिवार- “देघर गया है“
ढाका - “देघर गया है....लेकिन गाड़ी तो घरेम है कैसे गया।“
तब तक दो लड़का सोमनाथ के घर में घुस के देखने गया। और चिल्लाया- “हव् चच्चा मुनवा चौंकी के नीचे घुसा है।“
ढाका - “निकल रे छोंड़ नहीं ते बताते है तोरा, अभी स्लैब लग जाएगा त सबसे पहले तोर बाप ही गाड़ी लगाएगा...निकलता है कि दू थाप दें तुमको।“
कोय चारा न देख मुनवा देह-हांथ झाड़ते हुए बाहर निकला। इसी तरह डांट-डपट, दुलार-चुचकार से सब बाहर निकला। अब कुल छब्बीस लोगों का कारवां स्लैब लाने चल पड़ा। जहाँ सरकारी स्लैब पड़ा हुआ था वहाँ झाड़ी-झंगड़ हो गया था। लोग-बाग घर का कूड़ा-कचरा भी उधर डाल देते थे।
बदीया - “हव्व बहुत गंदा है।“
नेपाली - “गंदा है त परिवार को काहे न ले आया साफ करवा के हाथ लगाता।“
बदीया - “गड़बड़ा गए हैं का जी कोंची अंट-संट बोलते हैं।“
गोरखना - “काम करो न जी कितना फेंगाठी पढ़ता है तुम सब।“
गोरखना का इशारा समझकर सब स्लैब में भीड़ गए। एक बात थी पान टोला के लोग साधारण थे पर काम करने में बीहड़ थे। यही बात उसको आन टोले से बीस करती थी। ठेला स्लैब किनारे लाकर उठा दिया जाता और स्लैब को ठेले पर पलट दिया जाता था। फिर ठेला खड़ा कर के पान टोला के लिए निकल जाता। पान टोले में भी भोलेन्टियर का एक ग्रुप था जो वहाँ ठेला खाली कर उसको वापस चलता कर देता था। काम जल्दी निपटाने की जुगत थी ताकि किसी तरह का बखेड़ा न खड़ा हो जाए। तभी शुगन चिचयाया।
“अरे बिच्छु....बिच्छु...स्लैब के नीचे बिच्छु है।“
“किसी को काटा तो नहीं“
शुगना को काट लिया। एक पल के लिए लगा कि रंग में भंग हो गया। लेकिन शुगन हिम्मती था, उसने खुद आगे बढ़कर कहा कि उसको काई दिक्कत नहीं है। लेकिन बड़े मौके की नजाकत को बेहतर समझते थे।
“अरे दिक्कत कैसे नहीं है जी। बिच्छू काटा है तो इलाज तो कराना होगा न। गगन तुम्हारा मोटर साइकिल है न सदर ले के जाओ इसको और दवाई करवाओ और दिक्कत होगा तब खबर करना जी हम लोग सब पहुंचेंगे, घबराना नहीं“ चीखो का गार्जीयन की भूमिका में थे। गगन अपने दोस्त शुगन को लेकर हॉस्पिटल रवाना हो गया।
एक के बाद एक स्लैब उठते जाते देख आन टोला के लोगों की बैचेनी बढ़नी शुरू हुई। दूसरे टोले के लोगों का हुजूम अलग कौतुहल बढ़ा रहा था। पास के चापाकल पर पानी लेती हुई एक महिला दूसरे से बोली - “पान टोला वाला सब स्लैब ले जाएगा का जी...फिर हमलोग क्या लगाएंगे। एकर बप्पा भी बाहरे गया हुआ है।“ “बाहरे गया है त क्या हुआ तुम बढ़के बोलो, ऐसे कैसे ले जावेगा“ दूसरी महिला ने ताव दिया।
“सब स्लैब ले जाइएगा का जी फिर हमनी का लगाएंगे....एतना दिन से जोग-जोग के रक्खे हैं। अब नहीं ले जाने देंगे।“
महिला की इस बात ने कार्यकर्ताओं को ठंढा कर दिया। सब सहम गए और रुक भी गए।
“मुखिया जी बोले हैं जी पहिलका वाला उठा लेने मुनिसपलटी में फिर स्लैब जम रहा है अभरी खेप में नयका स्लैब आएगा जी“ बुजुर्ग साहेब मंडल ने ऐसे कहा कि महिला को मुगालता न रहा। लेकिन वह भिनभिनाती हुई चली गई।
साहेब मंडल ने ठंढाती चुल्हे में हवा भरी-“जल्दी हाथ-पैर मारो न जी, देखता न है सब के नजर इधरे है।“
तभी “कि हो साहेब आन टोला के स्लैब पान टोला ले जावोगे जी पहिले हमरा खर्चा दो फिर उठाना स्लैब।“ साहेब का हमउम्र था।
“खरचा जाके मुखिया जी से लो। और तुमरा मर्जी कहो तो जो स्लैब उठाएं हैं वापस उतार देते हैं फिर ओतना मेहनत कर देंगे।“ हमउम्र समझ लिया साहेब से दमड़ी भी न निकाल सकेगा।
“एतना गोस्साते काहे हो बुढ़ारी पे, मेहरारू लथाड़ी है कि....चलअ खैनी खियावो।“ कहकर हमउम्र हंसने लगा।
तीसरा ट्रीप लोड होने के बाद साहेब दादा ने सबको इशारा किया। सब उसके समीप आ गए। दादा ने कहना शुरू किया-“देखो हम सबको और स्लैब उठाने नहीं मिलेगा, झूठमूठ का बखेड़ा हो जाएगा। और अब सब चुपचाप रहेगा, कोय कुछ नहीं बोलेगा।“ बुजुर्ग ने हवा भांपते हुए कहा। “सब्बल, गेंता सब लदा दो।“ काफिला चला। तबतक जन्म से विकलांग मिंटू हांफते हुए आया और हांफते हुए ही कहा - “सलौना चिन्हार, चार-पाँच गो के साथ चौक पर खड़ा है, सनक रहा है!! साहेब ने सबको चुपचाप आगे बढ़ने का इशारा किया।
सलौना पान टोले वाले को आन टोले से स्लैब ले जाते देखकर लहर उठा- “पान टोला के केतना औकात आ गया है जी आन टोला से स्लैब पान टोला ले जाएगा...कैसे ले जाएगा देखते हैं....“
काफिला से कोई हरकत नहीं...सब मौन....जैसे कोई कुछ सुन ही नहीं रहा हो। गुरुमंत्र काम कर रहा था। सलौना का लहर जुलूस के मौन के आगे दम तोड़ दिया।
सांझ तक पान टोले के खुले नाले ढक चुके थे, अब जान-माल के लिए खतरे की कोई बात नहीं थी। रास्ता अलग चौड़ा हो गया था। विजय के उपलक्ष्य में नई जमीन पर पक रही खिचड़ी की सुगंध भोज के उत्साह को डबल कर रही थी।
-पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित व मौलिक रचना है।)