दूसरे दिन निरू ने कई मर्तबे कुमार के घर जाने की इच्छा की, पर उधर चलते पैर ही न उठे। सुरेश के मन में जो भाव पैदा हो गया है, उससे अधिक लज्जास्पद उसके लिए दूसरा नहीं। जाते हुए जैसे उसकी संपूर्ण शोभा चली जाएगी, जिसे लेकर बहन की तरह सिर ऊँचा कर वह सुरेश के सामने खड़ी होती है। निरू अपनी शोभा न छोड़ सकी। वह उसी की रक्षा के सौर-मंडल में तैयार हुई है; उसकी पहले वह शोभा है, फिर और कुछ; उसके साथ उसका अछेद्य संबंध है। भाई से जाने के लिए कहने में उसे साफ इनकार के तार बजते हुए सुन पड़े, उन्होंने जैसे उसकी इच्छा का विचार कर वैसा कहा हो। जो कुछ भी हो, निरू के दादा हैं; वह स्नेह में पली है, स्नेह न तोड़ सकी।
साथ ही मनुष्यता का भी विचार आया। कुमार की माँ क्या सोचेंगी! उन पर जो बर्ताव गाँववाले कर रहे हैं, वह किसी बुद्धिमती द्वारा समर्थन न पा सकेंगे। जमींदार के धर्म का पालन करते हुए उसके दादा ने एक प्रकार कुमार का सर्वस्व हर लिया है, जितने से वे उस गाँव के बाशिंदा रह सकते, पुनः उनके साथ-उनके जैसे सुधरे हुए विद्वान के साथ विद्याभाव का सहयोग नहीं किया-एक जमींदार होकर सामाजिक मुआमलों में उनका बाजू नहीं बचाया, बल्कि अपना ही स्वार्थ देखा है (जो वास्तव
में निरू का है)। अपने घर तथा समाज की आज्ञा और मर्यादा के अनुसार उसे भी एक प्रकार कुमार के कानपुरवाले मकानों के लिए यामिनी बाबू को कर्ज लेकर रुपया देना होगा, मामा छल करने पर भी छल नहीं कर सकते और यह इतना-सा अर्थ लेकर वह उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते-यह उनके कार्यों का पुरस्कार भी नहीं ठहरता, अस्तु इस प्रकार उसे भी विरोध करना होगा, कुमार को वह मदद नहीं पहुँचा सकती।
रामचंद्र को उसने खर्च देने के लिए कहा है; मुमकिन, अब उसकी माँ खर्च लेना मंजूर न करे। सोचती हुई निरू जब-जब आवेश में आई, चलने को तैयार हुई, पर दूसरे ही क्षण, लौटने पर उसका कैसा भाव होगा, सोचकर लज्जित हो गई। जो निरू कभी-कभी इसके कवल से मुक्ति पाने की सोचती थी, वह दूसरा खाली मकान देखकर भी न जा सकी।
वह अपनी ही इच्छा से नहीं जा सकती। लजाकर, मुरझाकर, असभ्य व्यवहार के कारण मन में मरकर रह गई।
नीली की इच्छा जाने की थी। उसने याद दिलाई और कहा कि दादा ने अंत में जाने की राय दी है पर निरू ने कहा, "जहाँ गाँववाले नहीं जाते, वहाँ मेरा भी जाना ठीक नहीं, पहले मुझे मालूम नहीं था।" इतना कहकर नीली को भी जाने के लिए न कह सकी।
नीली ने भी सोचा कि वहाँ उसका जाना ठीक नहीं। ऐसा सिर्फ अपनी पराधीनता का विचार कर सोचा। मन से वह दीदी का विरोध किए रही। कारण, कुमार बाबू की माँ से ज्यादा भली और स्नेहवाली महिला उस गाँव में कोई हैं, यह वह न मान सकी।
उस रोज निरू टहलने न निकली, नीली भी कहीं न गई। सुरेश बाबू पते पर थे कि निरू क्या करती है। उसके न निकलने से खुश होकर बोले, "आज रामचंद्र की माँ ने तुम्हें बुलाया था, अच्छा हुआ, तुम नहीं गईं। उनके यहाँ जाने पर दूसरी भी
तुम्हें बुलातीं और न जाने से अच्छा न होता। जमींदारी करने पर प्रतिष्ठा का विचार रखना पड़ता है। अभी तुम समझती नहीं। रामचंद्र की माँ भी तुम्हारे यहाँ आ सकती हैं, पर वे आवेंगी नहीं। वे इसका विचार रखती हैं। पर न आएँ, तुम बुलाना
भी मत, नहीं तो अपमान होगा अगर वे न आईं। हम सिपाही से कहला भेजेंगे कि रामचंद्र को आज्ञानुसार बीस रुपये महीने भेज देंगे।"
भाई की बात सुनकर निरू ने कुछ न कहा। सुरेश बाहर से गंभीर और मन से खुश होकर चले गए। देवी सावित्री ने निरू के लिए अच्छा-अच्छा जलपान, सुबह पाँच बजे उठकर बंगाली पसंद के अनुसार मुलायम-मुलायम, सूरज खुलते-खुलते बना रखा और स्नेह के हृदय और आदर की दृष्टि से प्रतीक्षा करती रहीं। धीरे-धीरे दस बज गए, ग्यारह बजे, निरू न आई। तब हताश होकर जलपान रामचंद्र को देकर पहले एक चिट्ठी लिखी, फिर तीसरे पहर भोजन बनाया। रामचंद्र जलपान कर चिट्ठी डाकखाने छोड़ने गया।
देवी सावित्री के मन में अनेक प्रकार के भाव आए। उन्होंने निरू को स्नेहवश होकर बुलाया था, वह जमींदार की लड़की या स्वयं जमींदार है, यह सोचकर नहीं। पर वह नहीं आई। तो क्या रामचंद्र के लिए उसने कल जो कुछ कहा है, उसे सहायता देने की जो उदारता दिखाई है, वह इसलिए कि रामचंद्र एक गरीब विद्यार्थी है और वह उस पर दया करनेवाली उसके गाँव की मालकिन? क्या इसी दयाभाव के कारण फिर उसके मकान पर आमंत्रित होकर जाना उसने उचित नहीं समझा? मुमकिन, उसके भाई ने उसे रोका हो अथवा गाँव की हवा देखकर उसके अनुकूल रहना ही उसने युक्तियुक्त समझा हो, पर
उन्होंने केवल स्नेहवश उसे बुलाया था। वे धीर महिला थीं, इधर दुःख का पहाड़ उन पर टूटा था, धैर्य से वे उसे सँभाले हुई थीं, जब तक वह प्राकृतिक नियम से पूर्ववत हट न जाए। कुमार की इच्छा के अनुसार उसे विलायत भेजने के लिए उन्होंने स्वयं पति से आग्रह किया था। धन का मोह छोड़कर मकान रेहन कर देने के लिए कहा था। फिर परिस्थिति के उत्तरोत्तर बिगड़ते रहने से लेकर पति के स्वर्गवास तक का वज्रप्रहार धीरतापूर्वक सहन किया था। पुत्र की भविष्य-आशा में गाँववालों के भी असह्य लांछन नत-मस्तक होकर धारण किए थे। वैसी दीनता में भी मलिकवा की माँ का भरण-पोषण कर रही थीं। कभी पानी नहीं भरा, पर ऐसे अपमान के साथ गाँव से बाहर जाकर पानी भर लाना भी उन्होंने स्वीकार किया। कुमार की इच्छा पूरी हुई, पर वह स्थितिशील नहीं हो रहा, इसका असह्य ताप भी उन्होंने शांत होकर धारण किया। रामचंद्र पर इस परिस्थिति का बुरा प्रभाव न पड़े, इसके लिए माँ की तरह उसे पहला ही स्नेह देती रहीं, उसे बराबर गाँव तथा देश की नोवृत्ति की समुचित धारणा कराती रहीं! पर अब उनके लिए बरदाश्त से बाहर हो गया। निरू को उन्होंने बुद्धिमती सोचा था और उनकी स्थिति निरू को मालूम होने पर निरू शिक्षित बंगाली बालिका होकर भी उनके प्रति सहानुभूति न रखेगी, यह वे नहीं सोच सकीं। यही उनके लिए बरदाश्त से बाहर हुआ। इसी समय मलिकवा की माँ आई और कहा कि कल बिटिया बाग गई थीं, उसका दुःख सुनकर चली गईं, कुछ न बोलीं, गाँववाले अब इस उपाय में लगे हैं कि खेतवाले कुएँ से पानी भरना बंद करा दें और कल गाँव की औरतें डेरे पर बिटिया से मिलने गई थीं, बरमभोज की खबर है! कुमार की माँ धैर्य से सुनती रहीं।