कमल ढलते दिन के कमल की तरह उदास बैठी है। हाथ में एक पत्र है, जिसे बार-बार देखती है। रह-रहकर बँगले के सामने सड़क की ओर एक ज्ञात आकर्षण से जैसे निगाह फेर लेती है। अभी दिन काफी है, पर प्रतीक्षा करते उसे देर हो गई। जी ऊब रहा है। एक बार पत्र को फिर पढ़कर झपट से भीतर गई और पैड ले आई। सोचती हुई चिट्ठी लिखने बैठी। क्या लिखे, किस तरह लिखे, कुछ समझ में नहीं आ रहा, केवल उत्तेजना बढ़ रही है। पत्र में घटनाचक्र ऐसा है, जो हर एक स्त्री-हृदय में पुरुष के प्रति विरोध भाव उभार देगा। ऐसी ही ओजस्विनी भाषा में वह उत्तर लिखने लगी। मुख्य बात यह है कि वह हर तरह पिता से मदद करने के लिए कहेगी, पर अच्छा यह होगा कि एक बार उसके घरवाले उसके पिता से आकर मिल जाएँ और फुर्सत हुई तो इस बीच में वह पत्र-लेखिका से साक्षात् करेगी। पता लिखकर चिट्ठी लिफाफे में बंद कर दी और फिर सड़क की ओर देखा। कुमार आ रहा था, देखकर खिल गई। उठकर कुछ कदम आगे बढ़कर लिया। कुमार बिलकुल पास आ गया, तो उच्छ्वसित कंठ से बोली, "जनाब, यह दो का समय है? चार बजने को पंद्रह मिनट है, अब कानपुर तो हम लोग चल चुके। चलें भी, तो बस जाना-आना होगा।"
कुमार कुछ ऐसी उधेड़-बुन में था कि उत्तर की नाप-तोलवाली हालत से परे था। जैसा साधारण भाव आया, कह दिया, "तो न हो, होटल में रह जाएँगे।" कुमार को न कानपुर जाने की आवश्यकता थी, न होटल में रहने की। कमल का प्रस्ताव था एक साथ जरा टहल आने का, उसने एक तरह कह दिया।
लज्जित होकर मुँह फेरकर कमल एक पूरे जोर की छिपी हँसी हँस ली। तब तक कुमार बढ़कर उसी कुर्सी पर बैठ गया, भीतर से बिलकुल दूसरे रूप का भरा हुआ। कुमार के आज के भाव की ओर कमल दूसरे दिनों से अधिक आकृष्ट हो रही है। आज वह उसकी निगाह में और पवित्र और परिमार्जित मालूम दे रहा है। आज उसे देखकर उसके हृदय का स्नेह का फौव्वारा रुकना नहीं चाहता। आज उसमें न जाने कौन-सा आकर्षण है कि उसके संगमात्र से जैसे वह ऊपर उठती जा रही है और ऐसी जगह पहुँची है, जहाँ जड़ बंधन का ज्ञान भी उसे नहीं रह गया, केवल आनंद मान रही है।
एकाएक इस आनंद के भीतर उद्भावना पैदा हुई, कहा, "चलिए एरोड्रोम, आकाश में उड़ आया जाए।" घंटी दी, नौकर से मोटर ले आने के लिए कहा। कुमार निर्विकार भाव से बैठा रहा। कमल ने सोचा, 'कानपुर जाना नहीं हुआ, इसलिए इनका दिल बैठ गया है।'
ड्राइवर ने गाड़ी सामने लाकर लगा दी। कमल सजी बैठी थी। कुमार से बैठने के लिए कहा। नौकर ने गाड़ी खोल दी। कुमार सामने ड्राइवर के पास बैठा। कमल लजाकर शिष्या की तरह भीतर बैठी, मन में एक प्रश्न उठता रहा, ये यहाँ बैठते तो छूतलगने की भी कोई बात थी? चलते समय नौकर से कागज उठाकर रखने के लिए कह दिया। गाड़ी चल दी। कमल अकेली बैठी रही। ऊपर एरोप्लेन के उड़ने की घरघराहट हो रही थी। कुमार कल्पना के नेत्रों से निरू का विवाह देख रहा था। रह-रहकर सुबहवाली सूरत, वह फूली लता के भुजों के भीतर का मुख, वह पीछे का सूर्यमंडल, वे एकटक काली-काली बड़ी-बड़ी आँखें याद आ रही थीं। उस दृष्टि का भाव याद आते ही एक अज्ञात दर्द उठता था। जब जूता-पालिश करने के लिए गया था, उस समय जिस तेजी में वह उसके सामने गई थी, जिस निरवरोध अपनाव से, उसे देखा था, भीतर से आज उसे पाने के वही भाव कुमार में उठ रहे है, पर हाय, यहाँ वह निरुपमा कहाँ, यहाँ तो उसकी छाया है! देखते-देखते एरोड्रोम आ गया। कमल उतर पड़ी। कुमार का दरवाजा खोल दिया। कुमार फिर भी बैठकर सोच रहा है। देखकर कहा, " (जनाब, सो रहे हैं या सोच रहे हैं?)
कुमार होश में आ सँभलकर, लज्जित होकर नीचे उतरा। एरोप्लेन अभी आकाश में उड़ रहा था। इसके बाद के जानेवाले गर्दन उठाए देख रहे थे। कमल कुमार के पास ही, एक प्रकार सटकर खड़ी थी, बोली, "काफी भीड़ होती है, हमें कुछ देर होगी शायद?" देखते-देखते एरोप्लेन उतरा। कमल और कुमार की आँखों में विस्मय था। निरू और यामिनी बाबू उतरकर उसी ओर बढ़ रहे थे। अभी इन्होंने न देखा था। निकट आने पर कुमार के साथ कमल को सरल आँखों से निरू ने देखा और आँखें फेर लीं। मुँह फेरने का भाव दोनों के हृदय में अंकित हो गया। कमल ने कुछ देर ठहरकर, निरू से मिलने की अपनी बढ़ती हुई इच्छा को रोककर यामिनी बाबू को देखा, जैसे मनुष्य किसी कीट को देखता है। उसके साथ कुमार की जल्द होनेवाली शादी के भाव को उपेक्षा की दृष्टि से उल्लंघन कर जैसे यामिनी बाबू ने कुमार को देखा। तब तक बिलकुल नजदीक
आ गए थे। उपेक्षा के स्वर से कहा, "अब जूता पालिश करना छूट गया जान पड़ता है।" वैसी ही उपेक्षा से कुमार ने कहा, "हाँ, तुम्हें उतनी शिक्षा देनी थी, वह दे चुका।" "बाकी जितनी रह गई है, वह मैं पूरी कर दूँगी।" कमल ने कहा। यामिनी बाबू झेंप गए। कुछ मतलब न समझे । तरह-तरह के अर्थ करने लगे। मतलब कोई नहीं समझा, पर निरू खुश हुई, यद्यपि भीतर से अप्रसन्न रही और यामिनी बाबू के साथ खुश आकर कुमार को अप्रसन्न करने की न सोची। एक बार ललित दृष्टि से कमल को
देखा, जिस लालित्य में श्रृंगार नहीं, करुणा थी, बेबसी का बयान था। आज कमल सब कुछ समझी, यदि कुमार के लिए उसके भीतर प्यार न होता, तो कमल को देखकर उस तरह वह आँखें न फेर लेती। अगर यामिनी को चाहती होती तो भी नहीं। खुलकर पहले कही बात को याद दिलाना चाहा कि मैंने पहले तुमसे पूछा था और मैं अब भी वही हूँ। तुम्हें बहुत बड़ा भ्रम हुआ है, पर वहाँ खड़े इक्के-दुक्के आदमियों की तरफ ध्यान गया, फिर यामिनी बाबू के लिए भी सोचा कि कुछ-का-कुछ सोच लेंगे, मुमकिन, दर्द पर हाथ जाए, यह अच्छा नहीं। सोचकर, कुमार का साथ छोड़कर, यामिनी बाबू के संग बढ़ती हुई निरुपमा को एक बगल से बुलाया। निरू चलने को हुई, तो यामिनी बाबू ने स्नेह से कहकर रोका, "हमें अब जल्द चलना चाहिए, निरू और भी तो बातें हैं।"
"हाँ, जरा बात सुन लूँ।'' सलज्ज कहकर निरू कमल की ओर चली। एक साथ होकर दोनों एकांत की ओर बढ़ती चलीं। "निरू!" निरू एकाग्र हुई, पर कुछ कह न सकी। "एक बार और मैंने तुमसे पूछा था, पर तुमने उत्तर नहीं दिया, टाल दिया था। मेरी इच्छा होती है, अब मैं भी टाल जाऊँ और अच्छी तरह तुम्हारा सर्वनाश देख लूँ।" निरू काँप उठी। त्रस्त स्वर से कहा, "मैं समझ नहीं सकी।" "तुम जितना समझती थीं, मैं उतना ही तुमसे पूछ रही थी। अगर उतना ही तुम बता
देतीं, तो आज इतने बड़े हास्यास्पद नाटक का तुम्हें पार्ट न अदा करते रहना पड़ता।" यह इतनी सहृदय बात थी कि निरू सत्य की जगह से दुर्बल पड़ गई, वह छिपा सत्य जाहिर हो गया। उसने कहा, "मैं खुद अपने मर्ज की दवा के लिए चली थी, पर रास्ते में तुमने बाधा दी।" "मैंने बाधा दी? कैसी बाधा?" "तुम कुमार बाबू को प्यार करती हो?" कमल आश्चर्य की दृष्टि से निरू को देखती रही, कहा, "प्यार करती हूँ, इसका एक ही अर्थ मेरे पास है, उससे विवाह का कोई तअल्लुक है, यह मैं नहीं जानती, दूसरे अलबत्ते यही अर्थ-संयोग लेते हैं।"
निरू उदास होकर मुरझा गई, फिर एकाएक अपनी प्रभा से चमक उठी, बोली, "कुमार बाबू के यहाँ तुम्हें उनके साथ देखकर मैंने वैसा ही निश्चय किया था, इसीलिए अपने दर्द की दवा से मैंने अपना हाथ खींच लिया; मैं नहीं चाहती थी कि मैं तुम्हारी प्रतिद्वन्द्विनी बनें, नहीं तो कुमार बाबू की माँ का जैसा स्वभाव है, मैं जानती हूँ, वे मुझे अवश्य आश्रय देतीं; मैंने जान-बूझकर यह जहर पिया है; मुझे भ्रम था ही।" "वे आश्रय अब भी देंगी, नहीं, तुमने स्वयं अपना आश्रय-स्थल खोज लिया; और यही तुम्हारे योग्य भी है; हृदय से तुमने धोखा नहीं खाया। इस जिस मनुष्य के साथ तुम आई हो, यह, उफ!" "क्या है?" "फिर बताऊँगी। क्या तुम्हारा विवाह ठीक हो गया?" "हाँ।' निरू ने डरे हुए गले से कहकर विवाह-तिथि बताई।"तो वे तैयारी अवश्य कानपुर से करेंगे और वहीं से बारात भी लाएँगे।" "हाँ।"
"कब जाएँगे?'
"कल सुबह।"
"ठीक है। अच्छा, अब यह बताओ कि तुम कुमार बाबू को प्यार करती हो या नहीं?" निरू लज्जित होकर देखने लगी।
"बोलो।" कमल ने जोर दिया।
"करती हूँ," कुछ बेहयाई से निरू ने कहा।
"आह-ऊह-ओहवाला प्यार?"
"हाँ।"
कमल खिलखिलाकर हँसी।
तब तक यामिनी बाबू ने बँगला में कुछ उद्धत स्वर से, 'देर हो रही है' कहकर निरू को बुलाया। निरू ने बिलकुल स्वतंत्र दृष्टि से देखा, कमल से कहा, "इसे कह दूँ, चला जाए।" "नहीं, नहीं, मजा न बिगाड़ो। जब नाटक यहाँ तक हुआ तब पूरा किए बगैर क्यों छोड़ा जाए?""यानी?""और बातें फिर कहूँगी, इस समय तुम निश्चिंत होकर जाओ, इन्हें अच्छी तरह अब हवा
खिलाना।" निरू अभिवादन कर हँसती हुई चली। कमल कुमार के पास आई।