रामचंद्र, मलिकवा की माँ और अपनी माँ को लेकर कुमार लखनऊ चला गया। गाँव में किसी से मिला भी नहीं। पहले से वह इसी धातु का बना हुआ है। किसी की समझ पर दबाव डाले, उसका ऐसा स्वभाव नहीं। जब परीक्षाएँ पास की और एक सुंदर कन्या के धनी पिता भावी जामाता की कानपुर की इमारतें और विश्वविद्यालय की सर्वश्रेष्ठ पदवी देखकर उसके पिता के पास आए और कन्या के साथ दान में यथेष्ट धन देकर उन्हें प्रसन्न करने के लिए कहा, पिता विवाह के पक्ष में हो गए, माता की आँखों में भी अदृश्य बहू का मुख कुछ-कुछ दृश्य हो चला, विवाह के लिए वे ललचा उठीं, उसने किसी की समझ पर नासमझी नहीं की-सीधे विलायत की तरफ देखा। विलायत का नाम सुनकर कन्या के पिता खिंचे; वे ऐसे न थे कि जो धन देकर धर्म भी देते।
विलायत से लौटकर, भारत के वृहत्तर समाज पर जो कल्पनाएँ उसने की थीं-जाति-निर्माण का जो नक्शा खींचा था-इस पद-दलित धारा पर उसकी सहानुभूति की धारा जिस वेग से बहती थी-जिस सहृदयता से वह शिक्षित-मात्र को देखता था, वे सब,जीविकार्जन के क्षेत्र पर उसके पदार्पण करते ही, संकुचित होकर, सूखकर अपने ही सूक्ष्म-तत्व में विलीन हो गईं। पर उसने किसी की समझ पर नासमझी नहीं की। चुपचाप एक पेशा इख्तियार कर लिया, जहाँ किसी को धोखा खाने की बात न थी। बीच रास्ते पर उसका व्यवसाय लोग स्पष्ट रूप से देख सकते थे।
जब माँ की चिट्ठी मिली कि गाँव में रहना दुश्वार है, शायद लोग जमींदार पर दबाव डाल रहे हैं कि कुएँ से पानी भरने न दिया जाए, तब ऊँची-ऊँची किताब और ऊँचे-ऊँचे मनुष्यों की व्यवहार की इस जानकारी ने तुच्छ जमींदार और गाँववालों के उस विरोध को उनकी स्थिति के अनुकूल हुआ जानकर उनके खिलाफ एक शब्द नहीं कहा, चुपचाप गाँववालों को अपने साथ ले आया, यह समझकर कि जूते की पालिश रोटियों का सवाल अच्छी तरह हल कर लेती है। और उसकी माँ जैसी मार्जित हैं, उनके विचारों को कोबरा की स्याही न लगेगी; रामचंद्र के अभी अपने विचार कुछ नहीं, भविष्य में उनकी अधिक पुष्टि की आशा है। केवल मलिकवा की माँ की चिंता हुई कि कहीं उसकी समझ कुंद न हो जाए। उसे गाँव में कष्ट था, विशेष काम कर नहीं सकती थी। उसका लड़का जब पक्ष लिए हुए मरा, तब पक्ष छोड़ना ठीक नहीं -इस विचार से माँ बराबर उसे खाने-पीने को देती रही। चलते समय बुलाकर, कहकर, रोकर उसके आग्रह करने पर साथ लेकर आईं। अब उसकी समझ को धक्का न लगे, इस विचार से उसने रामचंद्र से मजाक में कहा, "ब्रश और ब्रांकों की वस्तु का अगर तू निर्देश न करेगा, तो मलिकवा की माँ इस जिंदगी में न समझ पाएगी कि मैं क्या करता हूँ," कहकर, दूसरे दिन, अपने जीविकार्जन के महास्र लेकर बाहर निकला।
लखनऊ में कुमार अब तक काफी प्रसिद्ध हो चुका है। हैट-कोट पहनकर, रास्ते पर बैठकर जूता-पालिश करनेवाला मामूली आदमी नहीं, फर्राटे से अंग्रेजी बोलता है। कोई-कोई कहते हैं, विलायत भी गया हुआ है, अंग्रेजी खत्म किए हुए है, यह देश को शिक्षा देने के लिए ऐसा करता है कि न कोई बड़ा है न छोटा, यह चर्चा घर-घर है। चमार, जिस रास्ते से वह निकलता है, चौकन्ने होकर देखते हैं। चमार चार पैसे लेते थे, वह एक पैसा लेता है। बाजार तब से गिर गया है। लोग चमारों को हेय
दृष्टि से देखते हैं। छावनी में कुमार की बड़ी कद्र है। गोरे बड़ी प्रीति से उसे काम देते हैं, उसकी बातें सुनते हैं। एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराते हैं। उसकी इज्जत करते हैं। वह भी यूरोप की, तरह-तरह की, उन्हें पसंद आनेवाली बातें सुनाता है। बँगलों में भी जाया करता है। सभी जगह यथेष्ट आमदनी होती है। उसके सीधे निरभिमान, प्रसन्न और प्रिय स्वभाव को सभी प्यार करते हैं। कभी-कभी लोग चारों ओर से घेरकर विस्मय, आदर और स्नेह की दृष्टि से देखते रहते हैं। आज वह बँगलों की तरफ चला। कमल साधारण घरेलू सुंदर पहनावे में सजी फाटक के पास खड़ी हुई, आकाश भरकर उतरती हुई वर्षा की पीन श्यामच्छवि एकटक देख रही थी। मुख पर काव्य का नैसर्गिक प्रकाश पड़ा पृथ्वी और स्वर्ग को एक कर रहा था।
कुमार ने देखा। मन में निश्चय हुआ कि यह विदुषी है। अपने कार्य के लिए आगे बढ़ा। आहट पा कमल ने उसी भाव की दृष्टि से देखा। कुमार ने अंग्रेजी में कहा, "जूते पालिश करता हूँ। आप देखकर खुश होंगी। मिहनत बहुत कम लेता हूँ।' कमल भाव की आँखों से मुस्कुराकर सोचने लगी, 'यह चमार है। थोड़ी-सी अंग्रेजी पढ़ ली है। आजकल के बाबू अंग्रेजी सुनकर खुश होकर काम ज्यादा देते हैं।' हिंदी में पूछा, "तुम्हारा नाम?" "कृष्णकुमार," नम्रतापूर्वक कुमार ने कहा। 'कृष्णकुमार चमार, सानुप्रास है।' मन में सोचकर, खुलकर कहा, "बड़ा अच्छा नाम है। अब तुम लोग भी अच्छे नाम रखने लगे।" सोचती हुई गंभीर होकर बोली, "यह देश की उन्नति के लक्षण हैं।" "जी हाँ।" सारा मतलब समझकर, मुस्कुराते हुए कुमार ने हा।"लेकिन तुम मुझसे अंग्रेजी क्यों बोले?" "मैंने कहा, मेमसाहब नाराज न हो।" "मैं मेमसाहब नहीं।" कुमार कुछ न बोला। कमल ने भाव स्पष्ट कर दिया, "अभी मेरी शादी नहीं हुई।" "मुझसे गलती हुई।" क्षमा चाहते हुए जैसे कुमार ने कहा।
कमल लापरवाही से बँगले के सामनेवाले टेनिस-ग्राउंड की ओर बढ़ी, पीछे-पीछे कुमार।
"तुम अंग्रेजी साफ बोलते हो; किसी साहब के यहाँ थे शायद?"
कुमार को बड़ा बुरा लगा। पर प्रश्नकर्ची का अनुमान व्यर्थ नहीं, सोचकर कहा, "नहीं, मैंने पढ़ी है।"
इसे स्पर्धा समझकर बी.ए. फाइनल की विद्यार्थिनी कमल ने दबाने के भाव से कुछ तिरछे देखते हुए उँगली जरा ऊपर को उठाकर पूछा, "वह क्या है?"
काम की तलाश में आकर परीक्षा देते हुए कुमार को बुरा लगा, जैसे कोई बच्चे से पूछ रहा हो; पुनः वह चमार है इसलिए बड़ी सभी बातें उसके लिए अनावश्यक, अप्रत्याशित-सी हो रही हैं-व्यक्ति होकर वह पद और मर्यादा में बड़ा नहीं, तो बराबर है; पर यह विचार भी नहीं रहा, नहीं तो उँगली उठाकर इस तरह प्रश्न करने का क्या अर्थ, सोचकर, यथाभ्यास क्षोभ को दबाकर कहा, "बादल।" ।
"हाँ, इस पर पाँच मिनट जरा अंग्रेजी में बोलो।" प्रश्नकर्ची को गंभीर मुद्रा-वैषम्य की दृष्टि से देखता हुआ कुमार बोला, "आए
थे हरि-भजन को ओटन लगे कपास-हो रहा है।"
"नहीं, मैं तुमसे हरि-भजन ही कराना चाहती हूँ, इसलिए कहती हूँ।"
"लेकिन पारिश्रमिक तो कपास ओटने से ही मिलेगा।"
"ऐसी कोई बात नहीं है।"
"तो इसका तो बहुत ज्यादा पारिश्रमिक होगा।" "जब तुम पास होगे।"
"तो कितना पारिश्रमिक मिलेगा, अगर मैं पास हुओं में सबसे आगे रहा?" कुमार ने मुस्कुराते हुए कहा।
कमल चौंककर देखने लगी, कहा, "तुम जितनी आशा रखते हो, उतना मुझे संदेह है। पर दो सौ रुपये समझ लो।" ।
कुमार प्रसन्न हो गया; बोला, "संदेह ठीक है, पर भ्रम सभी को होता है। अच्छा, आपका आदर्श किस कोटि का होगा?"
"अच्छी अंग्रेजी का आदर्श तुम्हें मालूम होगा तो मुझे समझने में दिक्कत न होगी, तुम सीधी कहो या सजी हुई।"
"विषय तो सजी हुई का ही है। मैं यह और पूछता हूँ कि आपके विषय पर अंग्रेजी के कवियों का कहना और उसका हवाला सुनाऊँ या अपनी तरफ से कहूँ, अवश्य आप 'बादल' पर वैज्ञानिक व्याख्या नहीं सुनना चाहतीं।"
कमल को जैसे कुछ होश हुआ। पूछा, "तुमने कहाँ तक पढ़ी है अंग्रेजी?"
"मैं लंदन विश्वविद्यालय से डी. लिट. हूँ, अंग्रेजी साहित्य का।" कुमार का पौरुष न छिप सका।
कमल लज्जित हो गई। नम्र हँसती हुई बोली, "तो आपने यह कैसा स्वाँग रच रखा है!"
"यह स्वाँग नहीं, यह मेरे साथ भारत का सच्चा रूप है।"
कमल भाव में डूबी हुई खड़ी रही। गौरव अपनी महत्ता में भरकर उसे हृदय की दृष्टि से विद्या का प्रांजल प्रकृत-पथ दिखाता रहा, जिससे कुमार उसके पास चलकर आया था। नत होकर बोली, "मैं बी.ए. फाइनल की विद्यार्थिनी हूँ। आइए, मैं बाबा से
कहती हूँ, आप दो सौ मासिक लीजिए; मुझे सुबह दो घंटे अंग्रेजी पढ़ा जाया कीजिए!" कहकर, अपने बँगले की ओर चलती हुई, "आप अवश्य हिंदू हैं।"
नत मुस्कुराहट से, "हाँ।" शिष्या के विचार मात्र से कुमार आप न कह सका।
"आपकी जाति?"
"कान्यकुब्ज ब्राह्मण।"
कुमार के भार से झुकी हुई कमल एक कुर्सी की ओर बैठने का इंगित कर भीतर पिता के कमरे में गई, और संसार के आठवें विस्मय की चर्चा से पिता को बाहर ले आई, बँगला में कहा, "ये डॉक्टर कृष्णकुमार कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं; लंदन के डी. लिट.
हैं, जगह न मिलने से यह पेशा इख्तियार किया है।" कुमार का ब्रश उठाकर दिखाया, "जूता पालिश करते हैं। मैं इनसे अंग्रेजी पढूँगी, कहा है, सुबह दो घंटे के लिए। दो सौ मासिक पर।"
दिनेश बाबू प्रसिद्ध वकील थे। कई हजार मासिक की वकालत थी। मनोविज्ञान के पूरे जानकार। ऐश्वर्य और सम्मान सबके ऊपर उनकी प्यारी कन्या प्रतिष्ठित थी।
ब्रह्मसमाजी थे। अतः किसी तरह विचलित न हुए; सोचा, 'कमल इस युवक को प्यार करती है। यदि भविष्य में दोनों सदा के लिए बँध भी गए तो बुरा क्या है? युवक विद्वान और सुंदर है, पुनः ब्राह्मण है। अवश्य इसका सामाजिक बहिष्कार हुआ होगा।
ब्रह्मसमाज को एक योग्य मनुष्य प्राप्त हो सकता है।' कमल की बातें स्वीकार कर, देर तक कुमार से बातें करते रहे और बहुत प्रसन्न हुए।