कई रोज हो गए। निरू बाहर नहीं निकली। ज्यों-ज्यों निरू अँधेरे में रहने लगी, सुरेश प्रकाश देखने लगे। अनेक प्रकार के काल्पनिक चित्र आकाश में रंगीन पंख खोलकर उड़ते हुए पक्षियों की तरह सजीव जान पड़ने लगे। सुरेश की पहले की शंकासत्य के आलोक में लीन हो गई।
तीन-चार दिन तक निरू तूफान के समय की नौका-विहारिणी की तरह कूल से बँधी बंद नाव के भीतर जैसी बैठी रही। वेग कुछ शांत होने पर, नाव को विहार के उद्देश्य पर नहीं, जैसे स्वास्थ्य, शरीर-नियमन, दिनचर्या आदि के विचार से कूल-ही-कूल वाहित करने लगी। सुरेश को बुलाकर उसने कहा, "चुपचाप बैठे-बैठे मन निष्क्रिय हो रहा है, कुछ अच्छा भी नहीं लग रहा, किताबें थोड़ी ले आई थी, मैं चाहती हूँ-आप जमींदारी का हिसाब मुझे समझा दें।"
निरू का रुख इधर हुआ तो सुरेश का मानसिक विकास कृष्णपक्ष के चंद्रमा की तरह बहीखाते खोलकर एक-एक बात बताकर समझाते समय, एक-एक कला ह्रास पाने लगा। निरू सुरेश की सच्चाई की परीक्षा न कर रही थी, उस दृष्टि से हिसाब देखने का उसका उद्देश्य न था, वह केवल अपने मर्ज की दवा कर रही थी-उचटते हुए चित्त को एकमुखी करती हुई, पर मरीज सुरेश बाबू उसके प्रश्न से जैसे क्षतस्थान की वेदना का अनुभव करने लगे। मुकदमों के खर्च का ब्यौरेवार हिसाब नहीं, कार्य की अधिकता से उन्होंने एक ही दो अंकों में खर्च लिख दिया है, पंद्रह रुपये के दावे में पैंतालिस रुपये का खर्च । बौचर नहीं। आमदनी और खर्च का हिसाब देखकर निरू मन-ही-मन असंतुष्ट हुई। पिता के समय के बहीखाते मँगवाए। सीर की पैदावार आधी रह गई थी। लगान बढ़ गया था। पर फायदा आधा भी नहीं। रकम सिवा की आमदनी पाँच आने रह गई। और जितनी बातों में मुख्तार की सफाई दिखाने की गुंजाइश रहती है, उधर निरू ने ध्यान नहीं दिया। उसके पिता के समय चोरी की कोई बात न थी। वे स्वयं देखते थे और हिसाब साफ रखवाते थे। सुरेश बाबू ने लगान की वृद्धि तो दिखाई, मुकदमों में वृद्धि से अधिक खर्च था। जमींदारी के और बहुत-से हथकंडे थे जो निरू की समझ में नहीं आए। सुरेश कच्ची रसीद देते थे। पंद्रह के पट्टे पर जबानी पच्चीस तय कर लेते थे। लोगों से बेगार लेकर खर्च का हिसाब जोड़ते थे।...बबूलों की बिक्री में आधी रकम साफ कर जाते थे।
इस प्रकार दो-तीन रोज निरू ने खाता देखते हुए पार किए। सुरेश का स्नेहवाला स्वर मंद पड़ने पर भी निरू की भक्ति अचल रही। कल ब्रह्मभोज होगा। आज से तैयारियां शुरू हो गईं। आटा-घी आदि सुरेश के स्वस्थ क्षणों में आ चुका था। न्यौते फिर चुके थे। लोगों ने सलाह पक्की कर ली थी। एकांत में पहले बहुतों ने ओजस्वितापूर्वक विरोध किया था, कहा था, सीधा लेंगे, उनके यहाँ जाकर खाना ठीक नहीं, वहाँ औरतें बेलाने जाएँ, यह अपमान की बात है। कुछ लोगों ने कहा, कहा जाए कि गाँववालों की सलाह है कि मालिक कथा सुनें और फिर उसका ब्रह्मभोज किया जाए-कुछ जन दुसरे गाँवों से भी बुला लिए जाएँ। लोगों को बात बहुत पसंद आई।
उन्होंने कहा कि इस तरह दूसरे गाँववाले भी हमारे साथ रहेंगे तो कहने की कोई बात न रहेगी। फिर सुरेश बाबू से ऐसा कहे कौन, यह विचार होता रहा। कहा गया कि मुखिया कहें। पर मुखिया सुरेश बाबू के सरस मुख और अपनी मधुर कथा की कल्पना कर मुकर गए, कहा, "क्या हमारा ही जी भार है?"
तब तक किसी ने कहा, "मालिक हमारे गाँव के राजा हैं. राजा भगवान का अंश रहता है, राजा का धन, उनके घर पर भी ग्रहण करने पर ब्राह्मण को दोख न लगेगा।" बात लोगों को पसंद आई और मखिया यह संवाद देने के लिए तैयार हो गए। एक ने आपस में दूसरे को मुखिया की पत्नी संबंध से याद करते हुए इशारा किया। कड़ाही पर कौन-कौन बैठेगा, निश्चित हो गया और यथासमय लोग डेरे पर आकर इकट्ठे होने लगे।
अगर दो-एक रोज पहले सुरेश बाबू से सलाह ली होती तो उन्होंने इनकार कर दिया होता।
धीरे-धीरे, शाम हो जाने पर, प्रबंध जोरों पर आया। नीली को गाँव की लड़कियों के बीच बड़ी खुशी है, जैसी जनता के बीच नेता को होती है। बिस्तर बिछे हुए। चारों ओर बड़ी-बड़ी परातों पर माड़ा हुआ आटा और मैदा रखा हुआ। लालटेन और मशालें जलती हुईं। बड़े आँगन के बगल गुइल। बिछे बिस्तर और पत्तलों पर स्त्रियाँ कचौड़ियाँ बेल-बेलकर फेंक रही हैं। साथ गीत चल रहे हैं। कार्य की महत्ता से शोरगुल बढ़ा हुआ। एक बगल निरू बैठी हुई मन में अनेक प्रकार की आलोचना- प्रत्यालोचना में लीन। इसी समय एक युवती ने घूँट हटाकर उसकी तरफ देखकर पूछा, "ए गुइयाँ, ब्याह के गीत तो नहीं सुनने की इच्छा?" "सुनाओ!" मंद हँसकर देखती हुई निरू बोली। "तुम्हारा ब्याह कब हो रहा है?" चपला सखी ने स्वर में दूरदर्शिता सूचित की। "बहुत जल्द!" निरू गंभीर होकर बोली।
"बड़ी उतावली होगी?" मर्मज्ञता से देखती हुई। "रात को नींद नहीं आती, तारे गिना करती हूँ, कमरे में धन्नियाँ।" वैसी ही
गंभीरता से निरू ने कहा। युवती जोर से हँस पड़ी। उसकी सास कुछ दूर उसके पास ही बैठी गीतों का नेतृत्व कर रही थी। उसके हँसने के साथ ही गीत बंद हुआ था, "क्या ही-ही, ही-ही कर रही है, चल बेल जल्दी," कहकर निरू को देखकर मुँह फेरकर नए गीत के प्रारम्भ में स्वर भरा। बहू ने फिर प्रश्न किया, "तो इतनी बेचैनी क्यों सहती हो? ब्याह कर लिया होता।"
चलते गीत के महोच्च स्वर की छाया में रहकर पूछा। "इच्छा तो थी, पर अच्छा कोई देख ही नहीं पड़ा।" निरू बहू की कचौड़ी देखती हुई बोली। वह पहले से अभी तक पूरी न हुई थी। बहू भी रस को छोड़कर कर्कश कचौड़ी की चारुता बढ़ाने में न थी।
पूछा, "तो इन्हें तुम्हीं ने पसंद किया है?" "हाँ" "कहाँ के हैं?" "अब तो विलायत के कहना चाहिए।" निरू अपना सेंटेड रूमाल नाक से लगाकर बोली, जैसे घी की तीव्र सुगंध से उकता गई हो। वाक्य ने बहू के हृदय को हिला दिया। सँभलकर सूक्ष्मदर्शी आलोचक के स्वर में पूछा, "कैसे तुमने उन्हें देखा?'
"वे हमारे यहाँ आया करते हैं, वहीं खाना खाते हैं, कभी कभी भाई साहब के साथ।'
निरू जान-बूझकर कह रही थी।
"घर में काम है। मैं अभी आती हूँ। दूध जल जाएगा। दुधहँड़ उतारकर रख देना है,"
कहकर युवती उठी और आपाद-मस्तक ढकी हुई बाहर निकल गई।
निरू सभ्यता के विचार से बैठी थी। उसके जाने पर मन को कचौड़ियों का पकना देखने की ओर लगाए। एक साथ मोटी-मोटी कितनी पड़ और निकल रही थीं। निरू निश्चय कर रही थी कि उसका भीतरी भाग कच्चा रहता होगा। इसी समय 'हाँ-हाँ-हाँ' की आवाज आई।
दरवाजे के पास बैठी हुई स्त्रियाँ चिल्लाईं। स्वर में समझ भरी हुई।
"क्या है? क्या है?" कड़ाही पर बैठे मर्दो ने आवाज दी, स्वर से विषय की अज्ञता सूचित होती हुई।
"मर गया आकर, देखे हुए था जैसे चमार कहीं का!' एक वृद्धा ने बेलना उठाकर कहा, "जाता है या दूँ तानकर कनपटी पर?"
प्रकाश काफी था। तब तक औरों ने भी देखा, "इसमें तो पैर रोप दिया! हद है। जाता है या दिया जाए परसाद?" कड़ाहीवाले उठकर बोले।
निरू ने भी देखा। तुरंत उठकर पास चली। "छूना मत उसे," इधर की स्त्रियों ने आतुरता से कहा। निरू को हिंदू-संस्कारों ने जैसे जकड़ लिया। ज्यों-की-त्यों खड़ी रह गई, पर दृष्टि आगंतुक से बँधी हुई। "दीदी!" रामचंद्र बोला। जैस बड़े कष्ट से बोल पाया हो! आँखें छलछलाई हुईं। वह उसी को खोज रहा था। छाए वाष्प की आँखों से दृष्टि रुद्ध हो रही थी, पुनः अनेक
आदमियों में आदमी-ही-आदमी देख रहा था, परिचित कोई मुख नहीं। इस समय जो कुछ समझ में आया, वह अवज्ञासूचक स्वर था। बालक गया भी वहीं तक जाने के लिए था। वह जानता था, आज ब्रह्मभोज है और ऐसे शुभ मुहूर्त में वहीं तक मेरी गति है, उससे अधिक एक अछूत की नहीं होती, मैं नाई-कहार की इज्जत भी नहीं रखता, इसलिए दूर, दरवाजे पर खड़ा, जिसके लिए गया था, उसे खोज रहा था। बालक की मुखाकृति और आमंत्रितों की अवज्ञा से निरू की सहानुभूति उद्वेलित हो उठी। पर पैर न उठे। देह और प्राणों की भेदात्मिकता का स्पष्ट रूप उसके भीतर और बाहर लक्षित हो रहा था।
क्या है रामचंद्र!" उसी सहानुभूति के स्वर में निरू ने पूछा, उसके दर्द की अव्यर्थ दवा हुई। आँखों से आँसुओं का तार बँध गया। बालक खड़ा सिसकियाँ भर-भरकर रोने लगा। यह उसके लिए, निर्दोष के लिए कितना बड़ा अपमान था, वहाँ कोई नहीं समझा; उसकी प्रकृति रुला-रुलाकर समझा रही थी। भाव-रस की बूंदें कपोलों से बह-बहकर पृथ्वी पर टपकीं। कुछ देर बाद, बरसे हुए मेह के बाद के आकाश की तरह बालक का मन आप हलका हो गया, जैसे क्रोध और अपमान का आँसुओं द्वारा पूर्णरूप से बदला चुका लिया गया और यह कठोरता का कोमलता से दिया गया उत्तर अंतर्यामी के समझाने के लिए रह गया, भविष्य के विश्व के निर्माण के लिए। निरू प्राणों से उसके बिलकुल नजदीक थी, जैसे अपने आँचल से उसके गाल और आँसू पोंछ रही हो। सुरेश दूर कुर्सी पर बैठे देखते हुए।
निरू के कोमल भाव के लेप से बालक बिलकुल शांत हो गया। मराल-कंठ पर झंकृत वीणावादिनी के स्वर-सा परिष्कृत हिंदी में बोला, "दादा ने कहा है।" सुनते ही निरू जैसे नयी चेतना से आप्राण पुलकित हो गई, संपूर्ण एकाग्रता दोनों आँखों से
निकलकर बालक की दोनों आँखों पर आशीर्वाद की तरह न्यस्त हुई, बालक कहता गया, "हम आपके बड़े कृतज्ञ है-दादा ने कहा है-जो आपने बीस रुपये की स्कॉलरशिप देने की आज्ञा की; पर चूँकि मैं अपने भरण-पोषण भर के लिए उपार्जन कर लेता हूँ, इसलिए आपकी कृपा का फल दूसरे के लिए छोड़ता हूँ। इस गाँव में हमारी जो स्थिति है, इससे हम यहाँ रह नहीं सकते, यह आप समझती होंगी। अन्य जिन कारणों से किसी को गाँव में रहने का मोह होता, वे हमारे लिए नहीं रहे। हम आपके कुएँ से पानी-भर भरने के गुनहगार थे, हालाँकि कुआँ हमारा ही खुदाया हुआ है। फिर भी, खेत बेदखल हो जाने के कारण आपकी जमीन पर है, आपका है। आप ज्यादा जनों के लिए हैं, मैं अकेला हूँ। सिर्फ घर है। पर आगे बिना मरम्मत के पुराना होकर, थोड़ा-बहुत बैठकर, वह भी नियमानुसार आपका होगा। इस तरह यहाँ हमारा कुछ नहीं। मैं आज ही आया हूँ और घरवालों को लेकर आज ही चला जाऊँगा," कहकर, प्रणाम कर बालक लौट पड़ा, फिर उधर नहीं देखा।
निरू के प्राण जैसे बालक के पीछे लगे हुए उच्च स्वर से पुकारकर कहते गए, "रामचंद्र, लौट आओ। तुम्हारा जो कुछ था, वह सब तुम्हारा ही है। तुम्हारे जैसे स्नेह-सगे के लिए, सत्य मनुष्य के लिए, पहले स्थान है।" पर निरू चित्रार्पितवत खड़ी रही।