सुरेश के पिता योगेश बाबू पचपन पार कर चुके हैं। गृहस्थी के झंझटों से फुर्सत पा घर रहकर योग-साधन किया करते हैं। ध्यान सदा सुरेश पर रहता है कि नवयुवक गृहयुद्ध के दाँव-पेंच भूलकर सहानुभूति में कहीं बहक न जाए। कर्म द्वारा जो संपत्ति अर्जित की है, अब ज्ञान द्वारा उसकी वृद्धि में रहते हैं। सुरेश पिता का आज्ञाकारी पुत्र है। यद्यपि उसमें बीसवीं सदी की संस्कृति-रूप दुर्बलता है,फिर भी वह पिता की कृपा और अपने कर्त्तव्य को दिन-भर में कई बार याद करता है।इसका संसार-सुख-फल वह प्रत्यक्ष भी करता जा रहा है और इसी से होनेवाली देवताओं की पूजाएँ।
निरुपमा योगेश बाबू की सगी भानजी है। उनके बहनोई, बाबू रामलोचन के पिता प्रयाग में कार्यवश आकर रहे थे। रहनेवाले कलकत्ते के थे। रामलोचन की शिक्षा-दीक्षा प्रयाग में हुई, फिर लखनऊ में योगेश बाबू की बहन से ब्याह। क्रमशः सांसारिक संघात में उभरते हुए रामलोचन बाबू युक्त प्रान्त की एक अच्छी इस्टेट के मैनेजरहो गए। दीर्घकाल तक इस पद पर रहे और यथेष्ट धन-अर्जन किया। जमींदारी में रहता हुआ आदमी जमींदारी ही पसंद करता है उपार्जित अर्थ का व्यय बाबू रामलोचन ने मौजे खरीदने में किया। मुसल्लम रामपुर और अवध के तीन और मौजों में कुछ-कुछ हिस्सा खरीदा। कुल मिलाकर बारह हजार की निकासी थी। प्रयाग में पहले से उनका अपना मकान था। लखनऊ में भी कई अच्छे बँगले बनवाए। संतान केवल निरुपमा थी। इधर मैनेजरी से अवसर ग्रहण कर चुके थे। उनकी मृत्यु से एक साल पहले उनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। औरों की तरह उनका भी ससुराल पक्ष प्रबल था। ससुरालवालों का ही विश्वास करते थे। कभी-कभी कलकत्ता जाया करते थे। उनके भैयाचार वहाँ थे, पर उन पर विश्वास न था। दैवयोग, पत्नी के मरने के छः महीने बाद खुद भी बीमार पड़े। छ: महीने तक इलाज होता रहा; पर कुछ फल न हुआ। एक दिन निरुपमा को योगेश के हाथ सौंपकर उन्होंने सदा के लिए आँखें मूंद लीं। उस समय निरू सोलह साल की थी।