"नीली!" उधर से जाती हुई नीली को योगेश बाबू ने बुलाया।
मार्ग में बाधा पाकर पिता को देखकर नीली टेढ़ी होकर आँखों से स्नेह बरसाने लगी।
"सुन।" भाव भरे गुप्त मंत्रणा के स्वर से पिता ने बुलाया। नीली गई।
योगेश बाबू ने पास बुलाया, और हाथ पकड़कर बिलकुल, नजदीक बैठा स्नेह-स्वर से कहा, "तू बड़ी बदमाश हो गई है।" पीठ पर हाथ फेरने लगे। कहा, "कल तुझे खोजा कि बाजार ले जाएँ, बड़ी मोटर, रेलगाड़ी और फुटबॉल खरीद दें, रंतु तू मिली ही
नहीं।" फिर अभ्यस्त आलोचक की दृष्टि से देखते हुए नली मुँह से लगाकर मंद-मंद खींचा।
"मैं दीदी के साथ गई थी," नीली ने कहा।
"कहाँ?"
"कुमार बाबू के घर।"
योगेश बाबू का जैसे योग भंग हो गया; पर आसन पर सिमटकर नली फिर हाथ में लेकर बड़े स्नेह-स्वर से पूछा, "फिर?"
नीली ने दानवाली कथा न सुनी थी। बोली, "कुछ नहीं, फिर कुमार बाबू की माँ ने जलपान कराया; इसके बाद कुमार बाबू कमल के साथ आए। फिर दीदी चली आई।"
"फिर कुमार से कुछ कहा था तेरी दीदी ने?"
"नहीं, कुमार बाबू ने दीदी के लिए कमल से कहा था कि इन्होंने एक दिन मुझे 'गोरू' कहा था।" ।
"ठीक कहा था। बुला तो अपनी दीदी को।" फिर डटकर, दृढ़प्रतिज्ञ होकर नली मुँह में लगाई।
निरुपमा आई और सँभलकर एक बगल बैठ गई।
योगेश बाबू देखकर हँसे। कहा, "यामिनी कह रहा था, मुझे चिट्ठी का जवाब निरू ने नहीं दिया।"
"उस चिट्ठी का क्या जवाब था, कुछ मेरी समझ में नहीं आया।" निरू सिर गड़ाए नाखून खोटती रही।
योगेश बाबू हँसे। "यह तुम्हारे लिए उचित ही हुआ है। घर कौन-सा है! लोग कितनी बातें कह गए। हमने कहा, 'कुत्ते हैं कुत्ते, भूकने के सिवा जानते क्या हैं?
-निरू किस माँ की लड़की है, यह मैं जानता हूँ।'
निरू हृदय से डरी, साहस बाँधती हुई भी कमजोर पड़ती गई, मामा की जानकारी पर अनेक प्रकार की भावनाएँ आने-जाने लगीं।
योगेश बाबू आप ही सोचकर हँसे। बोले, "वह। हिंदुस्तानी! भ्रष्ट कहीं का! आवारा! विलायत में कितने चमार डॉक्टर हैं। डॉक्टर होने से कोई किला नहीं फतेह कर लिया। समाज में किस तरह रहना चाहिए, ज्ञान नहीं। अकेले आकाश पर जाएँगे।
भले-भले एम.ए. हो गए थे, भले आदमियों से मिलते, जगह मिल जाती छोटी-मोटी, खाते-पीते मजे में रहते! नहीं, आसमान-आसमान चलने लगे! जो कुछ था उड़ गया। अपने भी पराए हो गए। कोई पानी छुआ नहीं पीता, वह कोई बुद्धिमानी है? जब समाज में
मिलने की ताकत नहीं, तब उतना ही बढ़ो जिससे मिले रहो।" योगेश बाबू सोचकर जोर से हँसे, "अब मिला भी वैसा ही समाज; बाप चटर्जी, माँ चमारिन। लड़की?' निरू, को स्नेह से देखकर, "निरू हम कहते हैं-यह संसार है; इसमें सब तरह के जीव हैं।
कितने बहते हैं। दूर से देखना चाहिए; छूना महापाप । देखो, अब दोनों कहाँ जाते हैं। बात यह कि जो जैसा होता है, उसे वैसा ही मिलता है। कमल की माँ का हाल तू तो जानती नहीं, हम जानते हैं। हमारी तो इच्छा नहीं थी कि कमल घर आए। पर अब
दूसरी हवा है, हम लोग बचकर निकल जाएँगे, यह सोचकर हम चुप थे," कहकर गंभीर भाव से कश खींचने में तल्लीन हुए।
निरू के हृदय को चोट पहुँची। कुछ न बोली। कुमार और कमल का संबंध स्थायी होगा, यह सोचकर सँभलने लगी। पहले उसने गलत सोचा था। मामा का विरोध ठीक नहीं। और भाग्य की बात जो हिंदू घराने में प्रचलित है, वह ठीक है। कुमार, मुमकिन है, सही हो; पर कुमार की ओर बढ़ती हुई उनकी मनोवृत्ति ठीक नहीं। उसके लिए कुमार के स्वर में सुहृदयता नहीं-कैसा कहा, पहचाने बगैर 'गोरू' कहा था! सोचती हुई थकी स्वर को भक्तिपूर्ण करके पूछा, "मामा, आपने मुझे बुलाया क्यों है?" "वह बात भूल गई थी। इस वक्त यामिनी ने आने के लिए कहा है, रुपयों के लिए। पहले कई बार टाल चुकी हो, शायद मजाक में यामिनी को हैरान करने के लिए-क्यों?"
नौकर ने खबर दी, "यामिनी बाबू आए हैं।" "ले आओ," कहकर योगेश बाबू निरू की ओर देखकर बोले, "बड़ी उम्र है मिनी
की-मैंने पहले सब ग्रह-नक्षत्र विचरवा लिए थे, मुझे किसी ओर से धोखा दे जाना मजाक नहीं, मैंने कहा और सब बाद को होगा-पहले देख लिया जाए कि हमारी निरू दीर्घकाल तक सुखी तो रहेगी।" यामिनी बाबू के आने की आहट मिलने पर वृद्ध गंभीर हो गए, निरू ज्यों-की-त्यों शुभ प्रतिमा-सी निश्चय और अनिश्चय की कल्पना की डोर छोड़कर, अपने भाग्य-चक्र
को आलोचिका की दृष्टि से देख रही थी। वह जहाँ बैठी थी, वहाँ से खुला आकाश अपनी असीमता लिए हुए देख पड़ता था। वह समझ रही थी कि दृष्टि को घेरे में उतना आनंद नहीं, जितना मुक्त आकाश के दर्शन में है, जैसे दृष्टि आकाश में अपनी असीमता प्राप्त कर अपने स्वरूप-दर्शन का आनंद पाती हो। सोच रही थी कि फिर छोटे-छोटे बंधनों से मनुष्यों की इतनी प्रीति क्यों है।
इसी समय यामिनी बाबू आए। आकाश ताकती हुई नलिन-आँखों की नवीन कांति को एक मुग्ध दृष्टि से देखकर योगेश बाबू को प्रणाम किया। योगेश बाबू के आशीर्वाद देने के समय निरू ने आँख फेरी और यामिनी को देखकर उठने को हुई कि योगेश बाबू ने कहा, "बैठो, अभी काम है।"
निरू की भावना प्राकृत कविता में बदलने के विचार से यामिनी बाबू बोले, "आसमान ताकने के दिन अब नहीं रहे। अब तो वायुयान तैयार हो गए हैं और लखनऊ के आकाश में मँडलाया भी करते हैं-दर्शकों को लिए हुए।"
"क्यों निरू, वायुयान पर चढ़कर आकाश में ही रह आओ कुछ देर!" योगेश बाबू ने हँसकर सम्मति दी।
निरू का भाव दूसरे समझ गए, पहले सोचकर लजा गई, फिर लज्जा को अपमान जानकर सिर उठाकर कहा, "अच्छा तो है, एक दिन चला जाए, नीचे से ऊपर ताकने की जरूरत ही न रह जाएगी-आप ईश्वर से दो बातें करके पूरा समझौता कर लीजिए।" बातें योगेश बाबू से कही थीं। दूरदर्शी वृद्ध पहले चौंके। पर भांजी को हँसती हुई देखकर मजाक करती समझकर कहा, "यह है कि स्वर्ग में नंदनवन, पारिजात, देवदूत और इंद्र की अप्सराएँ भी हैं और यमराज भी। तुम लोगों का जाना नंदन-विहार है और हमारी यमराज से मुलाकात होगी।"
डॉ. यामिनी बाबू वृद्ध की साहित्यिकता पर मुस्कुराए। वृद्ध ने भाव बदलकर कहा, "रुपये के मामले में तुम्हारा और इसका टग-ऑफ-वार जो चला, उसमें तुम्हारी हार हुई-क्या कहते हो?"
"जी हाँ, हार तो मेरी हर तरह है।" "तो तुम स्वयं इससे प्रार्थना करो, जिससे इसे कर्ज लेना मंजूर हो। और वह जो
कहा था, वह भी हो जाना चाहिए।" यामिनी बाबू बड़े दूरदर्शी थे, रुपये के मामले में। यह रुपया वृद्ध मजे में निरू के सिर हाथ फेरकर ले रहे हैं, वे समझते थे; पर बचाने पर सदा के लिए वंचित रहना पड़ता था। निरू की संपत्ति तीस-चालीस हजार रुपये के मुकाबले बहुत ज्यादा है। वृद्ध दूसरी जगह निरू का विवाह ठीक कर सकते हैं, यह सब सोचकर मंजूर कर
लिया था। कानपुर में दूसरी जगह उन्हें रुपया मिल सकता था; पर संपत्ति के पुनः हस्तगत होने की संभावना उन्हें इधर प्रेरित कर रही थी। वृद्ध की ओर मुँह करके कहा, "मैं तो हाथ जोड़कर हार स्वीकार करता हुआ रुपयों की प्रार्थना करता हूँ।"
एक लंबी साँस छोड़कर निरू ने कहा, "मैं तैयार हूँ। मामाजी जब और जिस तरह देंगे, लेकर दे दूँगी। मैं मामाजी की किसी इच्छा का विरोध नहीं करती।" जैसे किसी ने निरू का हृदय मसल दिया। पर धैर्य से बैठी रही। अनिच्छा ही संसार की
इच्छा है, सोचती रही। वृद्ध ने सुरेश को बुलाया।