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भाग 21

5 अगस्त 2022

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"नीली!" उधर से जाती हुई नीली को योगेश बाबू ने बुलाया।

मार्ग में बाधा पाकर पिता को देखकर नीली टेढ़ी होकर आँखों से स्नेह बरसाने लगी।

"सुन।" भाव भरे गुप्त मंत्रणा के स्वर से पिता ने बुलाया। नीली गई।

योगेश बाबू ने पास बुलाया, और हाथ पकड़कर बिलकुल, नजदीक बैठा स्नेह-स्वर से कहा, "तू बड़ी बदमाश हो गई है।" पीठ पर हाथ फेरने लगे। कहा, "कल तुझे खोजा कि बाजार ले जाएँ, बड़ी मोटर, रेलगाड़ी और फुटबॉल खरीद दें, रंतु तू मिली ही

नहीं।" फिर अभ्यस्त आलोचक की दृष्टि से देखते हुए नली मुँह से लगाकर मंद-मंद खींचा।

"मैं दीदी के साथ गई थी," नीली ने कहा।

"कहाँ?"

"कुमार बाबू के घर।"

योगेश बाबू का जैसे योग भंग हो गया; पर आसन पर सिमटकर नली फिर हाथ में लेकर बड़े स्नेह-स्वर से पूछा, "फिर?"

नीली ने दानवाली कथा न सुनी थी। बोली, "कुछ नहीं, फिर कुमार बाबू की माँ ने जलपान कराया; इसके बाद कुमार बाबू कमल के साथ आए। फिर दीदी चली आई।"

"फिर कुमार से कुछ कहा था तेरी दीदी ने?"

"नहीं, कुमार बाबू ने दीदी के लिए कमल से कहा था कि इन्होंने एक दिन मुझे 'गोरू' कहा था।" ।

"ठीक कहा था। बुला तो अपनी दीदी को।" फिर डटकर, दृढ़प्रतिज्ञ होकर नली मुँह में लगाई।

निरुपमा आई और सँभलकर एक बगल बैठ गई।

योगेश बाबू देखकर हँसे। कहा, "यामिनी कह रहा था, मुझे चिट्ठी का जवाब निरू ने नहीं दिया।"

"उस चिट्ठी का क्या जवाब था, कुछ मेरी समझ में नहीं आया।" निरू सिर गड़ाए नाखून खोटती रही।

योगेश बाबू हँसे। "यह तुम्हारे लिए उचित ही हुआ है। घर कौन-सा है! लोग कितनी बातें कह गए। हमने कहा, 'कुत्ते हैं कुत्ते, भूकने के सिवा जानते क्या हैं?

-निरू किस माँ की लड़की है, यह मैं जानता हूँ।'

निरू हृदय से डरी, साहस बाँधती हुई भी कमजोर पड़ती गई, मामा की जानकारी पर अनेक प्रकार की भावनाएँ आने-जाने लगीं।

योगेश बाबू आप ही सोचकर हँसे। बोले, "वह। हिंदुस्तानी! भ्रष्ट कहीं का! आवारा! विलायत में कितने चमार डॉक्टर हैं। डॉक्टर होने से कोई किला नहीं फतेह कर लिया। समाज में किस तरह रहना चाहिए, ज्ञान नहीं। अकेले आकाश पर जाएँगे।

भले-भले एम.ए. हो गए थे, भले आदमियों से मिलते, जगह मिल जाती छोटी-मोटी, खाते-पीते मजे में रहते! नहीं, आसमान-आसमान चलने लगे! जो कुछ था उड़ गया। अपने भी पराए हो गए। कोई पानी छुआ नहीं पीता, वह कोई बुद्धिमानी है? जब समाज में

मिलने की ताकत नहीं, तब उतना ही बढ़ो जिससे मिले रहो।" योगेश बाबू सोचकर जोर से हँसे, "अब मिला भी वैसा ही समाज; बाप चटर्जी, माँ चमारिन। लड़की?' निरू, को स्नेह से देखकर, "निरू हम कहते हैं-यह संसार है; इसमें सब तरह के जीव हैं।

कितने बहते हैं। दूर से देखना चाहिए; छूना महापाप । देखो, अब दोनों कहाँ जाते हैं। बात यह कि जो जैसा होता है, उसे वैसा ही मिलता है। कमल की माँ का हाल तू तो जानती नहीं, हम जानते हैं। हमारी तो इच्छा नहीं थी कि कमल घर आए। पर अब

दूसरी हवा है, हम लोग बचकर निकल जाएँगे, यह सोचकर हम चुप थे," कहकर गंभीर भाव से कश खींचने में तल्लीन हुए।

निरू के हृदय को चोट पहुँची। कुछ न बोली। कुमार और कमल का संबंध स्थायी होगा, यह सोचकर सँभलने लगी। पहले उसने गलत सोचा था। मामा का विरोध ठीक नहीं। और भाग्य की बात जो हिंदू घराने में प्रचलित है, वह ठीक है। कुमार, मुमकिन है, सही हो; पर कुमार की ओर बढ़ती हुई उनकी मनोवृत्ति ठीक नहीं। उसके लिए कुमार के स्वर में सुहृदयता नहीं-कैसा कहा, पहचाने बगैर 'गोरू' कहा था! सोचती हुई थकी  स्वर को भक्तिपूर्ण करके पूछा, "मामा, आपने मुझे बुलाया क्यों है?" "वह बात भूल गई थी। इस वक्त यामिनी ने आने के लिए कहा है, रुपयों के लिए। पहले कई बार टाल चुकी हो, शायद मजाक में यामिनी को हैरान करने के लिए-क्यों?"

नौकर ने खबर दी, "यामिनी बाबू आए हैं।" "ले आओ," कहकर योगेश बाबू निरू की ओर देखकर बोले, "बड़ी उम्र है मिनी

की-मैंने पहले सब ग्रह-नक्षत्र विचरवा लिए थे, मुझे किसी ओर से धोखा दे जाना मजाक नहीं, मैंने कहा और सब बाद को होगा-पहले देख लिया जाए कि हमारी निरू दीर्घकाल तक सुखी तो रहेगी।" यामिनी बाबू के आने की आहट मिलने पर वृद्ध गंभीर हो गए, निरू ज्यों-की-त्यों शुभ प्रतिमा-सी निश्चय और अनिश्चय की कल्पना की डोर छोड़कर, अपने भाग्य-चक्र

को आलोचिका की दृष्टि से देख रही थी। वह जहाँ बैठी थी, वहाँ से खुला आकाश अपनी असीमता लिए हुए देख पड़ता था। वह समझ रही थी कि दृष्टि को घेरे में उतना आनंद नहीं, जितना मुक्त आकाश के दर्शन में है, जैसे दृष्टि आकाश में अपनी असीमता प्राप्त कर अपने स्वरूप-दर्शन का आनंद पाती हो। सोच रही थी कि फिर छोटे-छोटे बंधनों से मनुष्यों की इतनी प्रीति क्यों है।

इसी समय यामिनी बाबू आए। आकाश ताकती हुई नलिन-आँखों की नवीन कांति को एक मुग्ध दृष्टि से देखकर योगेश बाबू को प्रणाम किया। योगेश बाबू के आशीर्वाद देने के समय निरू ने आँख फेरी और यामिनी को देखकर उठने को हुई कि योगेश बाबू ने कहा, "बैठो, अभी काम है।"

निरू की भावना प्राकृत कविता में बदलने के विचार से यामिनी बाबू बोले, "आसमान ताकने के दिन अब नहीं रहे। अब तो वायुयान तैयार हो गए हैं और लखनऊ के आकाश में मँडलाया भी करते हैं-दर्शकों को लिए हुए।"

"क्यों निरू, वायुयान पर चढ़कर आकाश में ही रह आओ कुछ देर!" योगेश बाबू ने हँसकर सम्मति दी।

निरू का भाव दूसरे समझ गए, पहले सोचकर लजा गई, फिर लज्जा को अपमान जानकर सिर उठाकर कहा, "अच्छा तो है, एक दिन चला जाए, नीचे से ऊपर ताकने की जरूरत ही न रह जाएगी-आप ईश्वर से दो बातें करके पूरा समझौता कर लीजिए।" बातें योगेश बाबू से कही थीं। दूरदर्शी वृद्ध पहले चौंके। पर भांजी को हँसती हुई देखकर मजाक करती समझकर कहा, "यह है कि स्वर्ग में नंदनवन, पारिजात, देवदूत और इंद्र की अप्सराएँ भी हैं और यमराज भी। तुम लोगों का जाना नंदन-विहार है और हमारी यमराज से मुलाकात होगी।"

डॉ. यामिनी बाबू वृद्ध की साहित्यिकता पर मुस्कुराए। वृद्ध ने भाव बदलकर कहा, "रुपये के मामले में तुम्हारा और इसका टग-ऑफ-वार जो चला, उसमें तुम्हारी हार हुई-क्या कहते हो?"

"जी हाँ, हार तो मेरी हर तरह है।" "तो तुम स्वयं इससे प्रार्थना करो, जिससे इसे कर्ज लेना मंजूर हो। और वह जो

कहा था, वह भी हो जाना चाहिए।"  यामिनी बाबू बड़े दूरदर्शी थे, रुपये के मामले में। यह रुपया वृद्ध मजे में निरू के सिर हाथ फेरकर ले रहे हैं, वे समझते थे; पर बचाने पर सदा के लिए वंचित रहना पड़ता था। निरू की संपत्ति तीस-चालीस हजार रुपये के मुकाबले बहुत ज्यादा  है। वृद्ध दूसरी जगह निरू का विवाह ठीक कर सकते हैं, यह सब सोचकर मंजूर कर

लिया था। कानपुर में दूसरी जगह उन्हें रुपया मिल सकता था; पर संपत्ति के पुनः हस्तगत होने की संभावना उन्हें इधर प्रेरित कर रही थी। वृद्ध की ओर मुँह करके कहा, "मैं तो हाथ जोड़कर हार स्वीकार करता हुआ रुपयों की प्रार्थना करता हूँ।"

एक लंबी साँस छोड़कर निरू ने कहा, "मैं तैयार हूँ। मामाजी जब और जिस तरह देंगे, लेकर दे दूँगी। मैं मामाजी की किसी इच्छा का विरोध नहीं करती।" जैसे किसी ने निरू का हृदय मसल दिया। पर धैर्य से बैठी रही। अनिच्छा ही संसार की

इच्छा है, सोचती रही। वृद्ध ने सुरेश को बुलाया।

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रचनाएँ
निरुपमा
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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (२१ फरवरी, १८९९ - १५ अक्टूबर, १९६१) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। उनके मार्ग में बाधाएँ आती हैं, पर वे उनसे विचलित नहीं होते और संघर्ष करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं।'' कमल और निरुपमा के माध्यम से निराना ने नारी-जाति की मुक्ति का भी पथ प्रशस्त किया है। सन् 1935 के आसपास लिखा गया निराला का यह उपन्यास हमारे लिए आज भी कितना नया और प्रासंगिक है, यह इसे पढ़ कर ही जाना जा सकता है। सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' को उनके मरणोपरांत भारत के प्रतिष्ठित सम्मान “पद्मभूषण“ से सम्मानित किया गया।
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निरुपमा भाग 1

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लखनऊ में शिद्दत की गरमी पड़ रही है। किरणों की लपलपाती दुबली-पतली असंख्यों नागिनें तरु लता-गुल्मों की पृथ्वी से लिपटी हुई कण-कण को डस रही हैं। उन्हीं के विष की तीव्र ज्वाला भाप में उड़ती हुई, हवा में ल

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भाग 2

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एक साधारण रूप से अंग्रेजी रुचि के अनुसार सजा हुआ कमरा। एक नेवाड़ का बड़ा   पलँग पड़ा हुआ। पायों से चार डंडे लगे हुए; ऊपर जाली की मसहरी बँधी हुई। पलँग पर गद्दे-चदरे आदि बिछे हुए। चारों ओर तकिए। बगलवाले

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भाग 3

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कुमार कमरे में अन्यमनस्क भाव से एक कुर्सी पर बैठ गया। चिंताराशि, फल के छिलके पर खुले रंग जैसे, मुख पर रंगीन हो आई। स्वच्छ हृदय के शीशे पर अपने ही  रूप का प्रतिबिंब पड़ा। इसे ही वह प्यार करता था। अन्यत

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भाग 4

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सुरेश ने नीली को बुलाकर यामिनी बाबू से कहा, "हम लोग जाते हैं, जल्द काम है,   तुम पैदल निरू को लेकर आओ," सुरेश मोटर ले गए।  निरुपमा समझकर एक बार लज्जित हो चंपे के झाड़ की तरफ देखने लगी-यामिनी बाबू से  

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भाग 5

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नीली मार खाकर जिस तरह निरुपमा से नाराज हुई थी; अनादृत होकर उसी तरह यामिनी  बाबू से हुई। वह शारीरिक शक्ति में दीदी या यामिनी बाबू से कम है! पर बदला चुकाने की शक्ति में नहीं। जिस समय चमार के रूप में कुम

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भाग 6

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सुरेश के पिता योगेश बाबू पचपन पार कर चुके हैं। गृहस्थी के झंझटों से फुर्सत पा घर रहकर योग-साधन किया करते हैं। ध्यान सदा सुरेश पर रहता है कि नवयुवक गृहयुद्ध के दाँव-पेंच भूलकर सहानुभूति में कहीं बहक न

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भाग 7

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कमल निरुपमा की मित्र है। फर्स्ट आर्ट तक दोनों साथ थीं, निरू ने छोड़ दिया, वह बी.ए. में है। पिता ब्राह्म हैं, उसके भी विचार वैसे ही। बहुत अच्छा गाती है। मिलने आई है। "नमस्कार।"-कमरे में बैठते ही हाथ जो

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भाग 8

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निरू ने कमल को स्नेहपूर्वक बिदा किया। कमल से वह कुछ खुल गई, इसके लिए मन में कुछ लज्जित हुई। पर, कमल उसकी हिताकांक्षिणी है, सोचकर आश्वस्त हुई। ऐसीछोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना ठीक नहीं, आखिर यह गीत हर

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भाग 9

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नीम के नीचे बैठक है। गुरुदीन तीन बिस्वेवाले तिवारी हैं, सीतल पाँच बिस्वेवाले पाठक, मन्नी दो बिस्वे के, सुकुल, ललई गोद लिए हुए मिसिर - पहले पाँच बिस्वे के पाँडे, अब दो कट गए हैं, गाँववालों के हिसाब से,

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भाग 10

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रामपुर आते-आते निरुपमा के दिल का क्या हाल था, वह काव्य का विषय है। नीली भी  नील आकाश की चिड़िया थी, चपल सुख के पंख फड़काकर उड़ती हुई। मुश्किल से एक रात  डेरे में रही। सुबह होते ही गाँव घूमने निकली। नि

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भाग 11

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जूते पहनकर नीली को लेकर निरुपमा चली। बाहर निकलकर गली के घरों को पार करने लगी तो काम करती हुई किसानों की स्त्रियाँ आकर जमा हो गईं और चारों ओर से घेर लिया। स्नेह से उच्छ्वसित होकर उन्हीं में से एक वृद्ध

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भाग 12

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भोजन के पश्चात आराम करते हुए सुरेश ने नीली को बुलाया। गाँव की हवा में नीली लहर की तरह मुक्त हो रही थी। लिखने-पढ़ने का कोई दुःख न था। भाई के सामने प्रसन्न मुख आकर खड़ी हुई। सुरेश बँगला उपन्यास की किताब

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भाग 13

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शाम चार बजे से निरू को देखने के लिए गाँव की स्त्रियों का आना शुरू हुआ। एक  बड़े कमरे में दरी और चादर बिछा दी गई थी, स्त्रियाँ आ-आकर बैठने लगीं। सब सिर से पैरों तक भारी भूषणों से लदी, जैसे सांस्कृतिक स

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भाग 14

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दूसरे दिन निरू ने कई मर्तबे कुमार के घर जाने की इच्छा की, पर उधर चलते पैर ही न उठे। सुरेश के मन में जो भाव पैदा हो गया है, उससे अधिक लज्जास्पद उसके लिए दूसरा नहीं। जाते हुए जैसे उसकी संपूर्ण शोभा चली

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भाग 15

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कई रोज हो गए। निरू बाहर नहीं निकली। ज्यों-ज्यों निरू अँधेरे में रहने लगी, सुरेश प्रकाश देखने लगे। अनेक प्रकार के काल्पनिक चित्र आकाश में रंगीन पंख खोलकर उड़ते हुए पक्षियों की तरह सजीव जान पड़ने लगे। स

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भाग 16

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दूध उतारने के बहाने युवती घर गई। पति वहीं घर ताक रहे थे। युवती के मन में सुरासुर-करों की कर्षित रज्जु से जो समुद्र-मंथन हो रहा था, उसका निकला हुआ गरल पति को एकांत में बुलाकर, महादेव की तरह का समर्थ सम

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भाग 17

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रामचंद्र के चले जाने पर निरू को एक जबरदस्त धक्का लगा। वह उस जगह जाकर अवस्थित हुई, जहाँ उसकी अक्लेद नारी-सत्ता है-समस्त विश्व की नारियों की एक ही चेतन संस्कृति, जो स्वयं रीति-नीतियों का सृजन करती है और

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भाग 18

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रामचंद्र, मलिकवा की माँ और अपनी माँ को लेकर कुमार लखनऊ चला गया। गाँव में किसी से मिला भी नहीं। पहले से वह इसी धातु का बना हुआ है। किसी की समझ पर दबाव डाले, उसका ऐसा स्वभाव नहीं।  जब परीक्षाएँ पास की औ

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भाग 19

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ब्रह्मभोज के दूसरे दिन निरुपमा नीली को लेकर लौट आई। चित्त में समाज के विरोध में जगा हुआ क्षोभ बराबर उसे बहका रहा था। सोच रही थी, प्राणों की मैत्री के लिए समाज की आवश्यकता है, वैषम्य की सृष्टि करे-इसके

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भाग 20

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कमल भीतर कपड़े बदल रही थी, बाहर कुमार प्रतीक्षा करता हुआ। नए-नए संबंध की घनिष्ठता की डोर कमल के स्नेह-कर में जो थी, कुमार उससे बँधता जा रहा था-उसने बुलाया था, वह गया हुआ है। यद्यपि कुमार पहले से प्रकृ

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भाग 21

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"नीली!" उधर से जाती हुई नीली को योगेश बाबू ने बुलाया। मार्ग में बाधा पाकर पिता को देखकर नीली टेढ़ी होकर आँखों से स्नेह बरसाने लगी। "सुन।" भाव भरे गुप्त मंत्रणा के स्वर से पिता ने बुलाया। नीली गई। य

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भाग 22

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दिन का तीसरा पहर है। रामचंद्र बाहर खेलने गया है। मलिकवा की माँ दुपहर के बरतन मल रही है। उसने अपने कर्तव्य का स्वयं निश्चय कर लिया है। देहात में  अपनी जाति की. रीति के अनुसार वह किसी के यहाँ का चौका-टह

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भाग 23

5 अगस्त 2022
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कमल ढलते दिन के कमल की तरह उदास बैठी है। हाथ में एक पत्र है, जिसे बार-बार देखती है। रह-रहकर बँगले के सामने सड़क की ओर एक ज्ञात आकर्षण से जैसे निगाह फेर लेती है। अभी दिन काफी है, पर प्रतीक्षा करते उसे

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भाग 24

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नीली प्रतीक्षा में थी। मोटर के आने की आहट मिली। नीली ने ऊपर से झाँककर देखा, यामिनी बाबू के साथ दीदी को देखकर जल गई। निरू उतरकर यामिनी बाबू से स्नेह-संभाषण कुछ किए बगैर जीने पर चढ़ने लगी। कुछ द्रुत-पद

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भाग 25

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 यामिनी बाबू दूसरे दिन चलते समय निरू से विदा होने गए, तो निरू ने कहा, "मेरी इच्छा है कि मेरा विवाह मामा के घर से नहीं, मेरे घर से हो। इस समय सेन रोडवाला मेरा बँगला खाली है। बारात वहीं आए। आप मामा से क

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