दिन का तीसरा पहर है। रामचंद्र बाहर खेलने गया है। मलिकवा की माँ दुपहर के बरतन मल रही है। उसने अपने कर्तव्य का स्वयं निश्चय कर लिया है। देहात में अपनी जाति की. रीति के अनुसार वह किसी के यहाँ का चौका-टहल नहीं कर सकती
थी-ब्राह्मणों के यहाँ का भी नहीं, पर यहाँ यह सोचकर कि अब उसके आगे-पीछे कोई नहीं और ऐसे उपकारी ब्राह्मणों की सेवा से उसका परलोक सुधरेगा, करने लगी है। उसके लिए और काम भी न था कि क्षण-भर जी लगा रहता; इस तरह उसे आत्मा में संतोष होता कि वह अपनी मिहनत की कमाई खाती है, उसकी निगाह बराबरी लिए घर के लोगों से मिलती है। सावित्री देवी पान लगा रही है। मुख पर एक चिंता की रेखा खिंची हुई है।
कुमार आराम करके उठा। लोटे का ढक्कन खोलकर गिलास में पानी डाला। बरामदे के एक बगल चलकर मुँह धोया, फिर गिलास जगह पर रखकर तौलिए से मुँह पोंछने लगा। माँ निविष्टचित्त होकर पान लगा रही थीं, देखने लगा। देखते-देखते एक अव्यक्त करुणा से ओत-प्रोत हो गया। उसकी संपूर्ण स्वतंत्रता माँ की दी हुई है, उसके मनोभावों की अनुकूलता माँ ने की है, सब प्रकार तिरस्कृत होकर भी किसी प्रकार का अभियोग इन्होंने नहीं किया, आज जिस वेदना की छाप यह उनके मुख पर पड़ी हुई है उसका निराकरण करे, यह उसका परम धर्म है। वे किसी हार्दिक व्यथा से खिन्न हैं, कुमार पलँग पर बैठा हुआ सोचता और देखता रहा। माँ के दुःख के कारण की अनेक प्रकार से जाँच करते हुए उसने सोचा, हो-न-हो मेरे विवाह की याद कर सामाजिक मर्यादा से गिर जाने के कारण माँ को खिन्नता है। सामाजिक मर्यादा की कल्पना से उसे हँसी आ गई-कैसा ढोंग है! और कोई कष्ट तो माँ को है नहीं, अब तो पहले की अपेक्षा काफी अच्छे दिन आ गए हैं। सोचता हुआ, अपने को संयत कर, जैसा उसका स्वभाव था, बोला, "मैं विलायत न गया होता तो अब तक तुम्हें कुछ कामों से छुट्टी मिल गई होत माँ।" माँ पुत्र की बातचीत का ढंग पहचानती थी, समझकर, चिंताशीलता के भीतर से हँसकर बोली, "हाँ।"
"तुम्हें बहुत काम करना पड़ता है, अभी तक।" "हाँ, मदद करनेवाली नहीं आई," कहकर पुत्र को प्रसन्न मुखच्छवि से देखती हुई सावित्री देवी पान लेकर उठीं।।
"क्या करूँ, कोई मिलती ही नहीं, नहीं तो मैं आज घर में लाकर बैठा दूँ। माँ मारे आनंद ले रँग गईं। पान देकर प्रसन्न कंठ से बोली, "और जो मिलेगी वह मुझसे दूना काम लेगी।"
कुमार नहीं समझ सका कि माता ने कमल पर चोट की। - पुत्र के मुख पर छाई अज्ञता को पढ़कर, मुस्कुराकर, माता ने पूछा, "रामलोचन बाबू की लड़की को पहले-पहल तुमने कहाँ देखा था?" कुमार कुछ भावुक हो गया। कहा, "वह बड़ी लंबी कथा है।" वह लंबी कथा इतने से माता के पास संक्षिप्त हो गई। उन्होंने समझ लिया, निरुपमा और कमल में कौन कुमार के मन के ज्यादा नजदीक है। बहकाकर कहा, "लंबी कथा है।
रहने दो। तुम्हें अभी कमल के यहाँ भी तो जाना है?" अपनी प्रसन्नता को हृदय में छिपाकर माँ ने पुत्र को देखा।
"निरू क्या फिर आई थी माँ?" कुमार ने ओजस्वितापूर्ण आग्रह से पूछा। माँ उतनी ही सहज होकर बोली, "न, फिर तो नहीं आई।" कुमार गंभीरता से कपड़े पहन रहा था, इसी समय नीली और रामचंद्र कमरे में आए। कुमार को देखते ही मुस्कुराकर सावित्री देवी की ओर फिरकर ऊँचे गले से नीली ने कहा, "दीदी का विवाह आज पक्का हो गया है, अगले सप्ताह सोमवार की रात को होगा।" सुनकर सावित्री देवी जैसे कुछ चौंकी, पर वह दूसरे की समझ में न आया। कुमार कुछ कह न सका। कपड़े पहनकर धीरे पदों से नीचे उतरा। कमरे में सन्नाटा छाया रहा।
धीरे-धीरे कुमार नीचे उतरा कि दरवाजे पर चिट्ठीरसा मिला। सावित्री देवी के नाम की एक चिट्ठी दी। माँ के नाम किसकी चिट्ठी हो सकती है, सोचता हुआ कुमार ऊपर चढ़ा। हस्ताक्षर पहचाने हुए नहीं मालूम पड़ रहे थे।
ऊपर कमरे के द्वार पर आकर माँ से कहा, "आपकी चिट्ठी," कहकर पास खड़ी नीली को बढ़ा देने के लिए दे दी। नीली चिट्ठी हाथ में लेकर उस पर निगाह डालते ही खुश होकर चिल्ला उठी, "दीदी की चिट्ठी है।" मन-ही-मन उसने निश्चय किया, दीदी
यामिनी बाबू से विवाह नहीं करेगी, कुमार बाबू से करेगी, इसलिए चिट्ठी लिखी है। यामिनी बाबू के प्रति मन से उसका पूरा विद्रोह था। खुलकर कह दिया, "दीदी यामिनी बाबू को चाहती नहीं, बाबा जबरन विवाह कर रहे हैं।"
सुनकर खुशी के मारे सावित्री देवी को लिफाफा फाड़ना भूल गया और आनंद के लिए बढ़ीं, उसी तरह हाथ में लिफाफा लिए पूछा, "फिर दीदी तुम्हारी किसको चाहती है?" नीली कुमार की ओर देखकर मुस्कुराकर आँखें गड़ाकर रह गईं।
मारे लाज के कुमार का मुँह लाल हो गया। माँ के सामने ऐसी बेहयाई उससे कभी नहीं हुई। उसे चिट्ठी देकर चला जाना था, वह खड़ा रहा, वह अवश्य चिट्ठी का मजमून जानना चाहता है। वह निरू के हस्ताक्षर भी पहले से पहचानता था, तभी नहीं गया। माँ यही सोचेगी, सोचकर और लज्जित होकर नीचे उतरने के लिए चला। माँ ने लिफाफा फाड़ा था, चिट्ठी पढ़ी नहीं थी, मुड़ते देखकर कहा, "ठहर जाओ जरा।"
कुमार खड़ा हो गया। चिट्ठी पढ़कर सावित्री देवी ने कुमार को पढ़ने को दी। लिखा है, 'माँ, आपके मकान मैंने खरीद लिये, विधाता की इच्छा से अगले सोमवार को मेरा विवाह है। विवाह हो जाने पर मैं रामचंद्र के नाम की लिखा-पढ़ी करूँगी, शायद
इधर समय न होगा। आपकी स्नेह प्रार्थिनी-निरू।' कुमार ने पढ़कर एक नशे में जैसे, धीरे-धीरे माँ को चिट्ठी बढ़ा दी, फिर धीरे-धीरे नीचे उतर गया। कमरे में वैसा ही सन्नाटा छा गया। नीली कुछ समझ नहीं पा रही थी, केवल सन्नाटे का अनुभव कर चुप थी। रामचंद्र रह-रहकर माँ की ओर देख लेता था। सावित्री देवी फिर चिट्ठी पढ़ने लगीं। एकाएक निगाह एक धब्बे पर गई। एक अक्षर
फैल गया था। 'यह स्याही की बूँद नहीं' -उन्होंने निश्चय किया, 'क्योंकि अक्षर फीका पड़कर फैल रहा है। बरसात के पानी की बूँद नहीं हो सकती। क्योंकि इसके पड़ने की संभावना तब है, जब पत्र पोस्ट कर दिया जाएगा, और इधर-उधर लाया-भेजा
जाएगा या जब चिट्ठीरसा के हाथ में आएगा, यों कमरे में लिखते समय झरोखे के पास बैठने पर बूँद पड़ सकती है।' नीली पास खड़ी थी, कुछ आग्रह से पूछा, "तुम्हादी दीदी ने यह चिट्ठी कब लिखी, तुम्हें मालूम है?"
"न," नीली निगाह से इस प्रश्न पर प्रश्न कर रही थी कि ऐसा क्यों पूछती हो? जरा ठहरकर सावित्री देवी ने फिर पूछा, "तुम्हारी दीदी पत्र कहाँ लिखती है?"
"अपने कमरे में।"
"झरोखे के किनारे मेज है?"
"नहीं, उनकी मेज दीवार के किनारे है।"
"दीवार के किनारे!" सावित्री देवी ने निश्चय किया, 'यह अवश्य आँसू है। किनारे हाशिए के पास है। दाहिनी आँख का है। बाईं का बाहर पड़ा होगा!' देखते-देखते गंभीर हो गईं और पत्र पढ़ने लगीं अगर कुछ समझने लायक अभी छूट रहा है, सोचकर।
'विधाता की इच्छा से'-को कई बार देखा, मनन किया, एक निश्चय के साथ उनकी श्री प्रसन्न हो गई। नीली से बोली, "माँ, तू मेरी मदद करेगी?" नीली ने पूरी सहानुभूति से कहा, "हाँ।" "किसी से कहना मत।"
नीली ने गंभीर भाव से सिर हिलाया। आश्वस्त होकर सावित्री देवी ने कहा, "अपनी दीदी से कहना, रामचंद्र की माँ ने
तुम्हारा पत्र पढ़ा है, वे जब तक तुमसे न मिलेंगी, जल ग्रहण न करेंगी। कल अवश्य-अवश्य मिलें।" नीली गंभीर होकर बोली, "मैं ले आऊँगी।"