कमल निरुपमा की मित्र है। फर्स्ट आर्ट तक दोनों साथ थीं, निरू ने छोड़ दिया, वह बी.ए. में है। पिता ब्राह्म हैं, उसके भी विचार वैसे ही। बहुत अच्छा गाती है। मिलने आई है। "नमस्कार।"-कमरे में बैठते ही हाथ जोड़कर कहा।
निरू बैठी थी, उठकर खड़ी हो गई, हाथ जोड़कर वैसे ही नमस्कार किया। चेहरा उतरा हुआ। सँभलने की कोशिश की; पर बहुत कुछ न सँभली। बैठने के लिए कुर्सी ठीक कर दी, "आओ, बैठो," कहकर मुस्कुराई; चिंता की रेखाएँ फिर भी खुली रह गईं। कमल संयत होकर बैठ गई, "भई, इस समय बैठने की इच्छा नहीं, तैयार हो लो, कुछ टहल आएँ।"
कमल के स्वर से स्नेह की प्रसन्नता निरू में जगने लगी। उसे बैठे-बैठे अच्छा न लग रहा था। ग्रीन रूम की अभिनेत्री की तरह अलस बैठी रही, जिसका पार्ट देर में आनेवाला है और जिसमें उसे अभिरुचि नहीं। उठकर हाथ-मुँह धोकर साड़ी बदलने गई। कमल स्वभाव से चतुर है; उसका अंदाजा ठीक लड़े, गलत, वह लड़ाती है। निरू सुंदरी है, इसलिए उसके पास प्रेम-पत्रों की कमी न होगी, उसने सोचा। इसका आधार था।
निरू को प्रेम-पत्र के कारण कॉलेज छोड़ना पड़ा था। राजनीति-शास्त्र के लेक्चरर डॉ. भड़कंकड़ निरू के बगलवाले मकान में रहते हैं, नए-नए विलायत से आए हैं, उन्हें प्रेम के पवित्र संबंध में किसी प्रकार की रुकावट मनुष्योचित नहीं
मालूम देती-प्रेम पाप नहीं। उन्होंने निरू को देखकर कॉलेज की छात्रा के ज्ञान से बढ़ी हुई मानकर, एक चिट्ठी लिखी, जिसमें अपनी सम्मति और विवाह की इच्छा प्रकट की थी। प्रेम के लच्छेदार शब्दों से पत्र सज्जित था। पढ़कर उत्तर लिखने
का ढंग निरू की समझ में नहीं आया। उसने पत्र मामा के हाथ रखा। मामा ने निरू का कॉलेज जाना बंद कर दिया। कमल के लिए यह कम मजाक न था। वह निरू की सरलता, दिव्यता पर तुष्ट थी। पर वह यही नहीं समझी कि मामा ने भड़कंकड़ के पत्र में निरू के प्रति हुए उसके प्रेम की अपेक्षा निरू की जमींदारी पर पड़ी उसकी दृष्टि को ज्यादा साफ देखा था, साथ-साथ यह भी सोचा था कि जो भक्ति मामा के प्रति उसकी है, उसकी रक्षा मामा के लिए पहले आवश्यक है।
कमल उठकर टेबल के ड्राअर खोलने लगी। बंद कर सिरहाने के तकिए का तला देखा। अंदाज ठीक लड़ा। एक पत्र पड़ा था, निकालकर पढ़ने लगी। नाम और पता देख कर मुस्कुराकर, उसी तरह रख दिया और भलेमानस की तरह कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगी। निरू तैयार होकर आई। "कहाँ चलना है?" मुस्कुराकर पूछा।
"कहीं नहीं, गोमती साइड तक टहल आएँ।" "पर लौटकर गाना गाना होगा।" "हाँ, हाँ; समय बड़ा अच्छा है!"
कहकर कमल हँसी। निरू सरल दृष्टि से देखती रही। आईने में एक बार चेहरा देखकर कमल निरुपमा को लेकर बाहर निकली। देर तक कोई बातचीत नहीं हुई। सीधी निगाह रास्ता देखती हुई दोनों गोमती की तरफ चलीं। कैसरबाग पार हो गया, लोगों की भीड़ घट गई, इक्के-दुक्के रह गए कभी-कभी आते हुए। "आज-कल तुम्हारे रोमांस का क्या हाल है?" खुली हुई कमल ने पूछा। "कैसा रोमांस?" निरू ने लजाकर मुस्कुराकर पूछा।
"वही भड़कंकड़वाला?" "भई, तुम्हें हमसे ज्यादा आजादी है। हमें बहुत वक्त,बहुत वक्त नहीं-अक्सर घरवालों की मर्जी पर रहना पड़ता है।" "अच्छा, तो इधर का कोई मर्जीवाला रोमांस हो तो बतलाओ।"
निरुपमा मुस्कुराकर कमल को देखने लगी। "इसी तरह मुस्कुराती देखती रहो, यही मैं चाहती हूँ।'' निरुपमा को मर्म तक
गुदगुदाकर उभाड़ने के लिए कमल ने कहा, "अगर कोई प्रसंग चल रहा है तो उससे तुम सुखी हो, इसके ये मानी है, यानी केवल तुम्हारे घरवालों की मर्जी नहीं।" कमल की 'यानी' से निरुपमा को हँसी आ गई; मजाक में बनाकर पूछा, "अर्थात?"
और तेज होकर कमल बोली, "अर्थात उनसे तुम्हारे मामा नहीं शादी कर रहे।"निरुपमा समझकर चुप हो गई। कमल ने बनावटी क्रोध से कहा, "देखो, विवाह मजाकनहीं, एक जिंदगी-भर का उत्तरदायित्व है-बिना समझे, बिना मन मिले।" सोचती हुईबोली, "तुम मेरी सखी हो, मुझसे छिपाना ठीक नहीं; मैं तुम्हारा उपकार कर सकती
हूँ," कहकर उत्तर की प्रत्याशा में कृत्रिम गंभीर हो गई। वह निरुपमा से उसकेप्रेम और विवाह की कथा सुनकर सुखी होना चाहती थी और दुख में साथ देना एक सच्चीसखी की तरह।
निरू को कष्ट होने लगा। वह विवाह मनोनुकूल नहीं, फिर भी वह कह नहीं सकती,कुमारवाला प्रसंग जिसका सत्य की प्रीति से आगमन हुआ था, वह किसी तरह नहीं कहसकती। समझ रही है-खुलकर अपने गौरव, प्रतिष्ठा और मर्यादा से, छाँह में आनेवालेभरे घड़े की तरह सूर्य के बिंब से रहित हो जाएगी। रुख न मिलाती हई, संयत होकरबोली, "भई, हम लोगों की कोई अपनी मर्जी नहीं होती।""पर प्राणों की होती है।" कमल का मजाकवाला भाव बदल गया। निरुपमा कुछ विचलित
हुई, पर सँभल गई। कमल कहती गई, "तुम्हारी संस्कृति की छाप, तुम पर गहरी होती जा रही है और इसलिए अपने यहाँ की पर्दा-प्रथावाली देवियों को-जैसे तुम इसप्रसंग को पर्दे में रखना चाहती हो, पर यह अगर प्राणों पर पड़ता हुआ पर्दा है,
तो निश्चय यह सदा के लिए पड़ा ही रह जाएगा।""हाँ, यह तो।" निरुपमा लजाकर बोली।"यानी?"
"यानी और क्या? तुम ठीक कहती हो।" बदल गई।"निरू!" कमल स्नेह के आवेश में आ गई, "मैंने बाबा से बहुत तरह की बातेंतुम्हारे और तुम्हारे मामा के संबंध में सुनी हैं; पर तुमसे नहीं कहीं।"निरुपमा जीती। हृदय को दबाकर, सँभली हुई, सखी के हृदय को खोल दिया। स्नेह सेहाथ पकड़कर कहा, "तो तुमने मुझसे छिपाया-यह स्नेह-व्यवहार न था।"
"हो, न हो; पर आज इसीलिए मैं तुमसे मिलने आई थी। यामिनी बाबू से तुम्हारा विवाह हो रहा है, यह लखनऊ-भर के बंगाली जानते हैं। मैंने एक चिट्ठी उनकीतुम्हारे तकिए के नीचे देखी है। पढ़ी भी है। इसलिए जानना चाहती थी कि यह विवाह
तुम कर रही हो, या तुम्हारे मामा कर रहे हैं?""इसीलिए मैं नहीं कह पा रही थी, भगवान ने पुनरुक्ति से बचा लिया। मेरे कहने से पहले सब कुछ तो मालूम ही कर चुकी हो। मेरा जो कहना है, वह मैं कह चुकी हूँ। और, तुम जानती हो, क्लास की लड़कियों के नाटक में प्रेम की बातें सुनकर मैं हँसती थी। भड़कंकड़ साहब को क्या सूझा, बैठे-बिठाए मेरा पढ़ना बंद करा दिया!" कमल खुलकर हँसी, "उसे तो तुम अपना मनोभाव लिखकर भले आदमी की तरह उत्तर दे सकती थीं! मामा को पत्र दिखाने की क्या बात थी?" "अब क्या बताऊँ, मेरी गलती! उत्तर न भी देती।" निरुपमा शून्य दृष्टि से कुछ
देर तक रेजीडेंसी की ओर देखती रही, फिर कहा, "अच्छा, कौन-सी बातें तुमने अपने बाबा से सुनी हैं?" । "तुम्हारे मामा पर बाबा विश्वास नहीं करते। उनका खयाल है, तुम्हारी जमींदारी पर तुम्हारे मामा की मामूली निगाह नहीं।"
"पर मामा मेरी जमींदारी ले तो सकते नहीं।" "जमींदारी की आमदनी तो ले सकते हैं। क्या तुम्हें मालूम है, तुम्हारी जमींदारी
की कितनी आय है और तुम्हारे बाबा के देहांत के बाद अब तक कितना रुपया तुम्हारे नाम जमा हुआ?"
"निकासी वगैरह तो मालूम है, क्योंकि बाबा के वक्त इसकी काफी बातचीत सुन चुकी हूँ। मामा काम सँभाले हुए हैं, कुछ कहने-सुनने की उन्होंने कोई जरूरत नहीं समझी होगी।" सीधे कहकर निरुपमा विचार में पड़ गई, जैसे यह एक बात ध्यान देने की हो। अँधेरा अच्छी तरह नहीं हुआ। दोनों गोमती के किनारे-किनारे छतर-मंजिल की सड़क की तरफ से लौटीं। एक खाली ताँगा आता हुआ देख पड़ा। निरुपमा ने हाथ उठाया। ताँगा खड़ा हो गया, "थक गई हूँ," कमल से बोली, "जल्द लौट चलें, अभी तुम्हारा गाना सुनना है, फिर जल्द-जल्द भेजवा देना है।" "जल्द-जल्द भेजवा देना है, क्यों?" बैठती हुई, कमल ने पूछा, "क्या यामिनी बाबू आनेवाले हैं?" बँगला में बोली, ताँगेवाले के न समझने के निश्चय से।
"यामिनी बाबू से मैं घर में नहीं, सिकंदर बाग में मिलती हूँ।" कमल जोर से हँसी। उसके गुप्तदान का फल मिला है। पूछा, "तो तुम खुश हो?' "मुझे खुश करने के लिए है, यह तो मानती हो?" "नहीं, सँभलकर खेलना है।"
"दादा मैच-मेकर है।"कमल संध्या के पश्चिमाकाश की तरह रँग गई। पूछा, "कैसे?" "मुझे बाग तक साथ ले जाकर छोड़ देते हैं।"
"फिर?"
"फिर यामिनी बाबू प्रेम की कविता सुनाते हैं।"
"क्या कहते हैं?
"भई, यह सब मुझसे न बनेगा। एक प्रेम का नाटक पढ़ो न, पढ़ तो पचासों चुकी होगी,
पार्ट भी कर चुकी हो।" ।
"तुम्हें लगता कैसा है?"
"जैसे वहाँ की तरह-तरह की चिड़ियों की बोलियाँ सुनीं, एक स्वर यामिनी बाबू का
भी सुना।"
"तो इन्हीं से विवाह का निश्चय है?"
"संदेह तो कहीं भी नहीं देखती।"
"अपने मन में?"
"वहाँ भी नहीं।"